चुनावी बांड: चुनावों में काले धन के इस्तेमाल ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को पटरी से उतार दिया

विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों द्वारा चुनावों में करोड़ों रुपये का खुलेआम खर्च करना एक आदर्श बन गया है। इस सत्य को अब झुठलाया नहीं जा सकता. चुनावों में काले धन का बोलबाला हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा है। यह सत्य भी निर्विवाद है, ऐसा पूर्व आईएएस अधिकारी वी.एस.पाण्डेय लिखते हैं

भारतीय राजनीति में जाति , धर्म और काले धन का बढ़ता वर्चस्व सभी के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है । देश की राजनीति में पैदा हुई इन विकृतियों को समाप्त करने के बारे वर्षों से चर्चा और गंभीर विचारविमर्श चलता रहा है लेकिन समस्या है कि समय के साथ बढ़ती ही जा रही है । स्पष्टतः सिद्धान्त विहीन राजनीति का ही यह दुष्परिणाम है कि वोट लेने के लिए जाति, धर्म के सहारे के साथ ही काले धन का भारी दखल आज हमारे देश के राजनीतिक परिवेश की सच्चाई है ।चुनावों में सुधार लाने के उद्देश्य से कई बार उच्च स्तरीय समितियाँ इस संबंध में अपनी संस्तुतियाँ देने के लिए गठित की गई लेकिन चुनावी परिदृश्य में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हो पाया , यह भी सत्य है । विभिन्न राजनीतिक दलों एवं उनके उम्मीदवारों के द्वारा चुनावों में करोड़ों रुपये खर्च किया जाना एक आम बात हो गई है और इस सच्चाई को अब कोई नहीं नकार सकता ।चुनावों में काले धन के वर्चस्व से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है , इस सच्चाई को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

वर्तमान में चुनावी चंदे के लिए वर्ष २०१९ में प्रारंभ की गई चुनावी बॉण्ड की व्यवस्था चर्चा में है और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दाखिल की गई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई पूरी करके अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया है ।लेकिन
सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिए चुनावी बॉन्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखने के कुछ दिनों बाद सरकार ने चुनावी बॉन्ड के नए दौर को जारी करने की मंजूरी दी है। चुनावी राज्य (राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) में विधानसभा चुनावों के बीच 29वीं चरण के चुनावी बॉन्ड की बिक्री शुरू कर दी गई है। इस संबंध में वित्त मंत्रालय ने जारी किए गये अपने बयान में कहा कि भारत सरकार ने बिक्री के 29वें चरण में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को अपनी 29 अधिकृत शाखाओं के माध्यम से 6 नवंबर से 20 नवंबर, 2023 से चुनावी बॉन्ड जारी करने और भुनाने के लिए अधिकृत किया है। यद्यपि इस चुनावी बॉन्ड योजना(जिसे सरकार द्वारा 2 जनवरी 2018 को अधिसूचित किया गया था) को राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले नकद दान के विकल्प के रूप में पेश किया गया था लेकिन इस योजना में व्याप्त गोपनीयता के चलते इस पर शुरू से ही प्रश्नचिन्ह लग गये और यह योजना विवाद में पड़ गई और इसकी वैधता को सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दीगई ।

कोई भी निर्णय या योजना जनहित में है या नहीं , यह प्रश्न सदैव से लोगों को विभाजित करता रहा है । आज भी चुनावी बॉण्ड को लेकर जहां सरकार और उसके समर्थक लगातार यह तर्क देते रहे हैं कि राजनीतिक दलों को वैध ढंग से चंदा लेने हेतु ही चुनावी बॉण्ड की व्यवस्था की गई है वहीं इन चुनावी बाण्डों को लेकर बरती गई गोपनीयता से इस पूरी योजना पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक ही है । देश के राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने सही और ग़लत का निर्णय करने के लिए एक बहुत ही आसान तरीक़ा सुझाया था जिसको शायद सत्ताधारी लोगों ने वर्षों पहले ही भुला दिया । महात्मा गाँधी जी के अनुसार जिस काम को करने के बाद उसे छुपाना पड़े , वह काम या निर्णय सदैव ग़लत होता है , यानी यदि किसी काम में गोपनीयता बरतने की ज़रूरत महसूस हो तो समझ लेना चाहिए कि वह काम या निर्णय अनैतिक है । चुनावी बाण्डों की नीति और निर्णय में जिस प्रकार की गोपनीयता दान कर्ता या बॉण्ड ख़रीदने वाले को लेकर बरतने की व्यवस्था की गई है , वह यह स्पष्ट करती है कि कहीं कुछ बड़ा गड़बड़ है । आख़िर बॉण्ड ख़रीदने वालों का नाम क्यों ज़ाहिर नहीं किया जा रहा है या किस ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना चंदा दिया , इस तथ्य को छिपाने का कोई भी ठोस तर्क होना प्रतीत नहीं होता है। हमारे देश में संविधान ने क़ानून के राज की व्यवस्था लागू की है जिसके मूल में ही पारदर्शिता है । क़ानून का राज बग़ैर पारदर्शिता के चल ही नहीं सकता , यह सर्वविदित है ।ऐसी स्थिति में चुनावी चंदे में बॉण्ड की प्रक्रिया में बरती जाने वाली गोपनीयता का कोई भी औचित्य प्रतीत ही नहीं होता और स्पष्टतः यह व्यवस्था क़ानून के राज की व्यवस्था की कसौटी पर कदापि खरी नहीं उतरती ।यह बात और है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में आज कल चुनावों में काले धन के पूरी तरह से हावी होने की स्थिति में जिस प्रकार से प्रत्येक चुनाव में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च किए जाने के तथ्य प्रकाश में आते रहे है , उसको देखते हुए चुनावी बॉण्ड के माध्यम से दलों को मिलने वाला चंदा तो ऊँट के मुँह में जीरे की समान ही कहा जाये गा । इस दृष्टि से जहां एक ओर अपारदर्शी चुनावी बॉण्ड की व्यवस्था को तत्काल निरस्त किया जाना देश के हिट में होगा वहीं चुनावों में काले धन के पूर्ण वर्चस्व को समाप्त किए जाने पर भी गंभीरता से विचार विमर्श करके ज़रूरी कदम उठाए जाने की भी आज महती आवश्यकता है । काले धन का हमारी राजनीतिक चुनावी व्यवस्था पर बन गये मक़ड़ जाल को अगर जल्दी नहीं तोड़ा गया तो वह हमारे लोकतंत्र के लिए दुखकारी होगा , यह भी स्पष्ट है और इसके लिए आम जनता को ही आगे आकर सफ़ाई का बीड़ा उठाना पड़ेगा ।

(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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