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(Update 12 minutes ago)

कोचिंग माफियाओं को खत्म करने के लिए यूपीएससी की स्क्रीनिंग परीक्षा प्रणाली को समाप्त करने की जरूरत है

विशाल कोचिंग संस्कृति जो आज देश में फल-फूल रही है, यह यूपीएससी के प्रश्न पत्र तैयार करने वालों द्वारा ऐसे जटिल प्रश्न पूछने की नासमझी का परिणाम है जो किसी भी सामान्य स्नातक की क्षमता से परे हैं। इससे एक विशाल कोचिंग उद्योग का जन्म हुआ, जिसके दुष्परिणामों का अध्ययन और पता लगाया जाना अभी बाकी है। इन कोचिंग माफियाओं के जाल में फंसकर कई युवा जिंदगियों बर्बाद हो हो गईं है

विजय शंकर पांडेय

आज कल संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और प्रतिष्ठित आईएएस सेवा कतिपय उम्मीदवारों के ग़लत ढंग से हुए चयन के कारणों से सुर्खियां बना रहा है। सबसे पहले पूजा खेडकर प्रकरण का मामला प्रकाश में आया जिसने ग़लत ढंग से दिव्यांग एवं अर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बनाये गये कोटे का लाभ उठाकर आईएएस सेवा में चयन पाया । इसके बाद तो कई पूर्व में आईएएस सेवा में चयनित उम्मीदवारों द्वारा गलत तरीके से विभिन्न तरह के कोटा हासिल करने के घोटाले उजागर हुए जो अब फर्जी तरीके से प्रतिष्ठित पदों पर काबिज हो चुके हैं। एक प्रसिद्ध कोचिंग प्रदाता के बेसमेंट में डूबकर तीन आईएएस अभ्यर्थियों की दुःखद और भयावह मौत ने इन कोचिंग माफियाओं की सड़ांध को फिर से उजागर कर दिया है। मीडिया ने देश के प्रसिद्ध और स्थापित कोचिंग सेंटरों द्वारा इन असहाय उम्मीदवारों का कोचिंग संस्थानों द्वारा वर्षों से किए जा रहे शोषण का खुलासा किया जो अब भी जारी है । मीडिया में आई खबरों और तस्वीरों से पता चलता है कि यूपीएसी की तैयारी कर रहे उम्मीदवार किस तरह से इन कठोर और बेदर्द कोचिंग संस्थानों की गिरफ्त में फँस कर खुद को पूरी तरह से असहाय पाते हैं।
इन हालात में सत्ताधीषों से यह सवाल प्रासंगिक है कि आईएएस एवं अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में उम्मीदवारों को कोचिंग की इतनी आवश्यकता क्यों पड़ती है। इसका उत्तर सीधा सा है, यूपीएससी ने सिविल सेवा परीक्षा का पैटर्न कुछ इस तरह से तैयार किया है कि कोई भी उम्मीदवार इसे क्रैक करने के प्रति तब तक पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो सकता जब तक कि उसने आईएएस की परीक्षा की उचित तैयारी सुनिश्चित करने के लिए विशेष कोचिंग प्राप्त ना किया हो । सीएसई में प्रारंभिक परीक्षा वर्ष 1979 में शुरू की गई थी।
प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षाओं में सुधारों का सुझाव देने के लिए स्थापित कोठारी आयोग ने गंभीर उम्मीदवारों में से गैर-गंभीर उम्मीदवारों की छंटनी (स्क्रीनिंग) करने का सुझाव दिया। साथ ही यह भी विचार पेश किया कि यूपीएससी पर गैर-गंभीर उम्मीदवारों की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का बोझ न डाला जाए इसलिए पहले ही स्क्रीन करके सभी ग़ैर गम्भीर उम्मीदवारों की छटनी कर देनी चाहिए । इस तरह यूपीएसी ने अपने ऊपर तो स्क्रीनिंग व्यवस्था से बोझ कम कर लिया लेकिन ऐसा करते हुए कभी भी यह नहीं सोंचा कि इसका कितना बड़ा दुष्प्रभाव परीक्षा में बैठने वाले अभ्यर्थियों पर पड़ेगा जिनको कोचिंग के बिना सफलता मिलना ना मुमकिन सा हो गया ।जब आईएएस परीक्षा के पाठ्यक्रम की विशालता को जानते हुए भी अभ्यर्थी अपना समय और पैसा इसकी तैयारी में खर्च कर रहे हैं तो यूपीएससी या कोई अन्य परीक्षा संस्था उन्हें गैर-गंभीर उम्मीदवार करार देने वाली कौन होती है? प्रारंभिक स्क्रीनिंग परीक्षाओं के आगमन से देश भर में बड़ी संख्या में कोचिंग सेंटरों का जन्म हुआ क्योंकि अभ्यर्थियों को न तो तब कोई जानकारी थी और न ही अब पता है कि इसे कैसे पास किया जाए। आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इस परीक्षा में पहले ही प्रयास में सफलता पाकर सेवाओं में चयन प्राप्त कर चुके ढेरों अभ्यर्थी जब पुनः ऊपरी सेवाओं के लिए फिर परीक्षा देते हैं तो वह स्क्रीनिंग में ही छट जाते हैं । इस स्क्रीनिंग की मनमानी प्रक्रिया की समस्या को यूपीएससी द्वारा नियुक्त पेपर सेट करने वालों ने और भी जटिल बना दिया, जिन्होंने कठिन प्रश्न तैयार करने की कोशिश में ऐसे पेपर सेट करने की होड़ में शामिल हो गये कि जिनका उत्तर दे पाना विशेषज्ञों की क्षमता से भी बाहर होता है। यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है, आपको ऐसे प्रश्न पूछने की आवश्यकता क्यों है जो खुद यूपीएससी द्वारा उम्मीदवारों के लिए निर्धारित न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता (किसी भी विषय में स्नातक) के दायरे से मीलों परे हैं।

विशाल कोचिंग संस्कृति जो आज देश में फल-फूल रही है, यह यूपीएससी के प्रश्न पत्र तैयार करने वालों द्वारा ऐसे जटिल प्रश्न पूछने की नासमझी का परिणाम है जो किसी भी सामान्य स्नातक की क्षमता से परे हैं। इससे एक विशाल कोचिंग उद्योग का जन्म हुआ, जिसके दुष्परिणामों का अध्ययन और पता लगाया जाना अभी बाकी है। इन कोचिंग माफियाओं के जाल में फंसकर कई युवा जिंदगियों बर्बाद हो हो गईं है । इस नासमझ प्रक्रिया के चलते उन लोगों की मानसिकता में भी बदलाव लाया है जो अंततः सिविल सेवा परीक्षाओं में सफल होते हैं। सरकारें अभी भी कमरे में मौजूद हाथी समान विशालकाय समस्या से जैसे पूरी तरह बेखबर हैं। तथाकथित एक्सपर्ट्स के सिस्टम द्वारा बिना सोचे-समझे बदलावों का सुझाव दिया गया और सरकारों ने उनपर बिना सोंचें समझे उन्हें लागू भी कर दिया गया, जबकि उन्हें इसके भविष्य के विपरीत परिणामों की शायद ही कोई समझ थी। यदि विचार किया जाये तो उच्च पदों पर नियुक्त किए जाने वालों में यही तो गुण होने चाहिए कि वे तीव्र बुद्धि के हों , निर्णय लेने में निपुण हों , उनमें अनुशासन हो , वे मेहनती, ईमानदार और निष्ठावान हों । ईमानदारी को छोड़कर, अन्य सभी आवष्यक योग्यताओं को सरल परीक्षा तकनीकों द्वारा परखा जा सकता है।
हर उम्मीदवार देश भर के विभिन्न माध्यमिक बोर्डों और विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित विभिन्न स्तरों पर विविध परीक्षा प्रणालियों से गुजरता है लेकिन केवल कुछ ही लोग अपने ईमानदार प्रयासों, कड़ी मेहनत और बुद्विमता के दम पर इन परीक्षाओं में उच्च सफलता हासिल कर पाते हैं। उचित गुणवत्ता का कोई भी प्रश्न पत्र तैयार किया जाए तो भी परीक्षाओं में उच्च प्रतिशत हासिल करने वाले छात्रों की संख्या अभी भी बहुत कम होगी। क्या हमारे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय भी कभी छात्रों को भ्रमित करने के एकमात्र उद्देश्य से प्रश्न पत्र तैयार करने का प्रयास करते हैं? जवाब है नहीं। फिर यूपीएससी ने अपनी विभिन्न स्तरों पर उम्मीदवार की योग्यता परखने वाली परीक्षा प्रणाली को इस तरकीबी और त्वरित उत्तर देने की रणनीति वाली प्रारंभिक परीक्षा में क्यों बदल दिया, जिसे पास करने के लिए कोचिंग संस्थानों के पास जाना उम्मीदवारों की मजबूरी हो गई है। कोचिंग के बिना इन प्रतियोगी परीक्षाओं को पास ना कर पाने की इस व्यवस्था की जननी यूपीएससी ही है और साथ ही सरकारें भी जो आँख मूद कर सब कुछ होने दे रही हैं ।
स्पष्टतः सिस्टम उन लोगों की सुविधा के लिए नहीं है जो परीक्षा का आयोजन कराते हैं, वह जनता की सेवा करने के लिए होते हैं, और इसके लिए उन्हें अथक परिश्रम करना चाहिए। ओएमआर शीट की शुरूआत के माध्यम से अपनी जिम्मेदारियों को स्मार्ट मशीनों के हवाले कर अपने कार्यभार को कम करने की कोशिश यूपीएससी को नहीं करनी चाहिए। ऑप्टिकल मार्क रिकॉग्निशन (ओएमआर) शीट मशीन मूल्यांकन प्रणाली के माध्यम से प्रारंभिक परीक्षा, उन्हें श्रम और सिरदर्द से बचाती है, लेकिन इसने लाखों उम्मीदवारों के जीवन को बर्बाद कर दिया है, जो अभी भी नहीं जानते हैं कि उन्होंने अपने विलक्षण प्रयासों के बावजूद इस परीक्षा को पास क्यों नहीं कर पाये और उनके ज्ञान भंडार का कभी भी ईमानदारी से परीक्षण क्यों नहीं किया गया। यूपीएससी को हर किसी को मुख्य परीक्षा देने की अनुमति क्यों नहीं देनी चाहिए, जो कि 1979 से पहले हुआ करती थी और फिर उम्मीदवारों का पास या फेल के रूप में मूल्यांकन किया जाता था?
वर्तमान परीक्षा प्रणाली ने इस राक्षस रूपी कोचिंग माफिया को जन्म दिया है, जो लाखों प्रतिभाशाली छात्रों को राजेंद्र नगर, मुखर्जी नगर, कोटा आदि नामों से नरक में पीड़ित कर रहा है। अभ्यर्थी इन कोचिंग माफियाओं को लाखों रुपये का भुगतान करते हैं, जिसे वह बहुत मुष्किल से वहन कर पाते हैं। उम्मीदवार खुद लगभग 15000 रुपये प्रति माह के भारी किराए पर 10 बाई 10 के तंग कमरों में रहकर पढ़ाई करते हैं, यह तंग कमरे चार अन्य लोगों के साथ साझा किया जाता है, बैठने और अध्ययन के लिए बहुत कम जगह मिलती है। इसके अतिरिक्त बेसमेंट में खुले पुस्तकालयों में चार हजार रूपये और खर्च कर बहुत कम जगह में बैठकर पढ़ाई करते हैं। इतने कष्ट सहने, पैसा और समय खर्च करने के बावजूद वह परीक्षा उत्तीर्ण करने में असफल हो जाते हैं। स्वार्थ के इस गंदे फलते-फूलते खेल में शामिल सभी लोगों के क्रूर विश्वासघात के कारण, अभ्यर्थी बार-बार असफलताओं के दुष्चक्र से गुजरते हैं और अपनी युवावस्था के छह से आठ साल बर्बाद कर देते हैं।
यही हाल जेईई, एनईईटी, सीयूईटी जैसी सभी प्रवेश परीक्षाओं के अधिकांश उम्मीदवारों के लिए भी है , जिस के चलते लाखों युवा उम्मीदवारों को असंख्य उत्पीड़न झेलना पड़ता है। गैर-गंभीर उम्मीदवारों को गंभीर उम्मीदवारों से अलग करने के यूपीएससी पैटर्न की नकल करते हुए, आईआईटी ने स्क्रीनिंग परीक्षा शुरू की और उभरती हुई कोटा फैक्ट्री को जन्म दिया, जिसने पहले ही कई लोगों की जान ले ली है और देश भर में अन्य कोचिंग सेंटरों को पनपने में मदद की है।
आईआईटी में प्रवेश के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के प्रश्न पत्रों का स्तर भी कुछ ऐसी ही कहानी है। जब तक कोई छात्र कम से कम दो से तीन साल तक जेईई परीक्षा के लिए सख्ती से तैयारी नहीं करता, वह परीक्षा पत्रों के उच्च कठिनाई स्तर के कारण सफल होने की उम्मीद नहीं कर सकता है। जेईई परीक्षा आईआईटी प्रणाली के अंदर संयुक्त प्रवेश बोर्ड नामक निकाय द्वारा आयोजित की जाती है। यह पूरी ईमानदारी के साथ इन परीक्षाओं को सफलतापूर्वक आयोजित कर रहा है, लेकिन इस परीक्षा प्रणाली ने हमारी स्कूली शिक्षा प्रणाली को जो नुकसान पहुंचाया है और लाखों उम्मीदवारों और उनके परिवारों को मानसिक पीड़ा पहुँचाई है, उसकी वास्तविकता से वह पूरी तरह से अनभिज्ञ है। हाल ही में शुरू की गई केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा एक और नासमझी भरा प्रयोग है जो स्कूल प्रणाली को अपूरणीय रूप से नष्ट करने जा रही है क्योंकि अब माध्यमिक शिक्षा के परिणाम छात्रों को किसी भी प्रमुख संस्थान में प्रवेश की गारंटी नहीं दे सकते हैं जैसा कि पहले हुआ करता था।
मुख्य समस्या यह है कि नीतियां बनाते समय या निर्णय लेते समय सबसे महत्वपूर्ण हितधारक छात्र के हितों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है। निर्णय लेते समय केवल और केवल प्रबंधन संस्थानों व शिक्षण बिरादरी के लाभ-नुकसान, और सरकार की सनक व पसंद-नापसंद को दिमाग में रखा जाता है। किसी भी शिक्षा प्रणाली के मुख्य हितधारक, छात्र समुदाय के हितों की इस तरह जानबूझकर और घोर उपेक्षा के कारण ही कोचिंग सेंटरों का प्रसार हुआ है और एक पूरी तरह से विषम प्रवेश परीक्षा प्रणाली और हमारी शिक्षा प्रणाली का बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण हुआ है। इस सब का विनाशकारी परिणाम यह है कि उम्मीदवारों को जबरदस्त शोषण और शारीरिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है। यह हमारे सबसे मूल्यवान युवकों के जीवन को शुरू में ही कष्टदायक बना कर उन्हें असफल लोगों की लाइन में खड़ा कर देता है जो अत्यंत दुःखद स्थिति है । इस कुव्यवस्था की सफाई अभी तत्काल शुरू होनी चाहिए।

(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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