वादों के इरादे।

डा० एच० सी० पाण्डे

चुनाव महोत्सव का आग़ाज़ हो चुका है और सारे राजनैतिक दल,रोज़,रोज़ नये वादे कर रही है।लोक लुभावन वादों की बरसात हो रही है,इतनी ज़्यादा कि डर लगता है कि कहीं बाढ़ न आ जाये।हर चुनाव में यही होता है।वादों की बाढ़ से जनता का विवेक बह जाता है और जनता उन्हीं लोगों को वोट दे बैठती है जिन्होंने चुनाव-दर-चुनाव जनता को धोखा दिया है।
हर राजनैतिक दल अपने नेताओं के त्याग और बलिदान की प्रशंसा करते नहीं थकता।सच यह है कि अधिकांश नेताओं ने सिद्धान्त त्यागे हैं और जनता के हितों की बलि दी है।हर एक दल का दावा है कि यदि उन्हें सत्ता मिली तो वे देश से ग़रीबी हटा देंगे और सर्वत्र सुख,सम्रद्धि तथा शान्ति होगी।सच यह है कि सभी राजनैतिक दल, कभी न कभी,कहीं न कहीं सत्ता में रहे हैं परन्तु वे केवल अपनी ग़रीबी हटा सके और सुख,सम्रद्धि तथा शान्ति उनके अपनों तक सीमित रही।वे ऐसे दावे क्यों करते हंत समझना मुश्किल है।क्या यह उनकी स्मरणशक्ति की कमज़ोरी है अथवा वे जनता को बेवक़ूफ़ समझते हैं।
समस्या धन की नहीं है,समस्या है मन की।वादे होते हैं चुनाव की नैय्या पार लगाने के लिये,और,पार उतरते ही सत्ता सुख भोगने के इरादों का प्रेत प्रकट हो जाता है।जनता के सारे चुनें हुवे प्रतिनिधि अपने लिये सुविधायें जुटाने में लग जाते हैं।मिसाल की तौर पर,एक प्रदेश के मुख्यमंत्री ने,अपने लिये,१० करोड़ रू० की लागत के नये आवास का निर्माण किया है जो बुलेट प्रूफ़ भी है।जहाँ अधिकांश जनता झोपड़ियों में रहती हुई,असुरक्षा के माहौल में जी रही हो,वहाँ यह एक भद्दा मज़ाक़ ही नहीं वरन आपराधिक क्रत्य भी है।सत्ता में आते ही आवाम से वोट माँगने वाला भिखारी नवाब बन जाता है और सूबे के वज़ीरों के निवासों के रख रखाव,उनके गाड़ियों के क़ाफ़िले,सैर-सपाटे और चाय-नाश्ते,सभी जनता की तिजोरी में डाका डाल कर किये जाते हैं।
अब एक नयी राजनीति का समय आ गया है।यदि जनता स्वच्छ,निष्ठावान एवं कर्मठ प्रतिनिधि चुनती है तो समय आया है और यदि पुराने धोखेबाज़ चुनती है तो समय गया है।जनता को निर्णय लेना है कि प्रत्याशी के वादों पर जीना है या उसके प्रमाणित इरादों पर।

आज के युग में धर्म की परिभाषा।

डा० एच० सी० पाण्डे

सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव जाति एक संगठित इकाई,समाज,बनने की ओर बढ़ती रही। इस समाज के रूप,स्वरूप के आधार,कुछ कहे,कुछ अनकहे,विचारों तथा भावनाओं से उपजे और अंतत: इसी आधार को धर्म के नाम से स्थापित कर स्थायी स्वरूप दिया गया।देश तथा काल के अनुसार धर्म ने कई रूप लिये।आस्था,अवधारणायें तथा परंपरायें समय के अनुभव तथा उपलब्ध ज्ञान के अनुसार उपजी,तदनुसार,धर्म की व्याख्या होती रही।समय चलता गया और मानव का विकास व उसकी प्रकृति पर पकड़ तथा समझ बढ़ती गयी।ज्ञान के भंडार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई तथा कल का रहस्य आज का साधारण,समझा हुआ,तथ्य बना।अब मनुष्य अपना भाग्यविधाता बन
रहा है।आज,समाज का भविष्य वह नहीं है जहाँ समाज परवश जा रहा है वरन वह जिसे समाज स्वयं सृजित कर सकता है।ऐसे युग में धर्म की परिभाषा,यज्ञ,तप व कर्मकांड की भूमिका,तथा,पाप व पुण्य की अवधारणा,सरल तथा युक्ति-संगत ही स्वीकार्य होगी।
आज के उपलब्ध ज्ञान,विज्ञान,विवेचना तथा तर्क पद्धिति के संदर्भ में प्रचलित धर्म,विसंगतियों से भरा,तथ्यों से परे,अन-उपयोगी तथा जटिल कर्मकांड में उलझा प्रतीत होता है।वास्तव में ऐसा ही है,क्योंकि सदियों से कुछ सरल तथा कुछ स्वार्थी तत्व,धर्म के रूप-स्वरूप को अज्ञानवश अथवा निजी स्वार्थ के लिये,आवश्यकता अनुसार,नये नये आवरण से ढक कर परिवर्तित करते रहे हैं।समग्र,सुखी,स्वस्थ और सम्रद्ध समाज का पोषण,जो धर्म की मूल भावना है,अब व्यर्थ के आवरणों के अंबार से,पूर्णतया ओझल हो गई है।आज का प्रचलित धर्म मुख्यतया शोषण का माध्यम बना हुआ है न कि पोषण का।
मानव,प्रकृति के रहस्य हर दिन खोलता जा रहा है तथा उसका आत्म-विश्वास नित्य नई ऊँचाइयाँ छू रहा है।इस परिस्थिति में मानव दंभी तथा निरंकुश हो कर सर्वनाश की ओर बढ़ सकता है।इसी कारण धर्म की अवधारणा समाज के स्थायित्व के लिये नितांत आवश्यक क्योंकि सृष्टि अपार और अनंत है।मानव एक रहस्य समझता है तो दो और रहस्य सामने दिखने लगते हैं अत: मानव का प्रकृति का अध्ययन सदैव चलता रहेगा पर वह
सृष्टि का स्वामी नहीं बन सकता।श्रुति,स्मृति,समस्त धार्मिक ग्रन्थों तथा प्रचलित परंपराओं को वर्तमान ज्ञान की भट्टी में तपा कर धर्म के स्वर्णिम सार को सर्वसुलभ करना आज की परम आवश्यकता है।
सारा विषय,धर्म क्या है? पुण्य क्या है? पाप क्या है,इन तीन प्रश्नों के उत्तर में समाया हुवा है।
हिन्दू धर्म के परिपेक्ष में भीष्म पितामह व महर्षि व्यास के वचन कालजयी हैं।
महाभारत के महायुद्ध के अंत में,शर-शैय्या से भीष्म पितामह ने युद्धिष्टिर को धर्म-ज्ञान देते हुवे कहा था,
सत्य ही परम धर्म है।सत्य ही परम तप है।सत्य ही परम यज्ञ है।
धर्मग्रन्थों की जटिल भाषा से हटकर,पाप व पुण्य की,व्याख्या करते हुवे महर्षि वेदव्यास ने कहा था,
उपकार करना ही पुण्य है तथा पीड़ित करना ही पाप है।
आज के समय,सत्य आचरण तथा परोपकार ,यही धर्म को परिभाषित करते हैं।

डा० एच० सी० पाण्डे

इस,वर्ष होली महोत्सव और चुनाव पर्व का साथ-साथ होना केवल संयोग नहीं है परंतु दैवी संकेत है कि होली और चुनाव एक से ही पर्व हैं।हाँ ,इतना फ़र्क़ ज़रूर है कि होली में और लोगों के चेहरे,लाल पीले रंग लगा कर छिपा दिये जाते हैं,और चुनाव में अपने चेहरे,सफ़ेद झूठ पोत कर।होली में लोग भांग पी कर अँट-संट बोलते हैं परंतु चुनाव में ऐसी बकवास,बिना भांग पिये ही,नेताजी के मुख से निकलती है।
सभी राजनैतिक दल देश की जनता को नामुमकिन सपनों की ठंडाई और झूठे वायदों की गुझिया परोसते है,और,जब नेताजी के जीतने के बाद,जनता को पता लगता है कि ठंडाई गरम और गुझिया कड़वी है तो नेताजी,मिलावट के ज़माने की दुहाई दे कर अपनी असमर्थता समझाते हैं जैसे कह रहे हों, बुरा न मानो होली है।चुनाव दर चुनाव,जनता बेवक़ूफ़ बनती रही है,पर अब दिमाग़ बहुत गरम और ज़ुबान ख़ूब कड़वी हो चुकी है।जनता ने कई बार कोशिशें की हैं पर जब जब ,नेक वादे-इरादे रूपी प्रह्लाद को गोद में लिये हुवे भ्रष्ट नेता रूपी होलिका का दहन किया गया,तब तब, नेक वादे-इरादे भस्म हो गये और भ्रष्ट नेता को खरोंच तक नहीं आई।इसका कारण यह है कि कलियुग में राजनैतिक दल के घोषणा-पत्र रूपी मंत्र प्रभावहीन होते हैं केवल उनका पाठ करनेवाला प्रभावशाली होता है।
चुनाव आ गये हैं और यही वक़्त है कि जनता ईमानदार,सुयोग्य तथा कर्मठ व्यक्तियों को चुने जिस से कि अगली होली पूर्णरूपेण सफल हो सके।

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