यह सच है कि देश तेज़ी से विकास कर रहा है पर अभी लंबा रास्ता तय करना है,यह ध्यान रखते हुए कि विश्व में विकास की मंज़िल उत्तरोत्तर आगे बढ़ती जा रही है।झूठे वादे और झूठे आश्वासन किसी काम के नहीं हैं।समस्या समाधान के गणित की उपेक्षा करना अपने आप को धोखा देना है।आर्थिक समीकरण पर सीमाओं की प्रतिबंधिता,को शिथिल करना दूरदर्शी राजनेता और परिश्रमी जनता पर निर्भर रहता है
प्रो. एच सी पांडे
गणितीय समीकरण के संदर्भ में एक प्रमेय है जो समीकरण पर लगी हुई सीमाओं के अंतर्गत समीकरण के हल की
संभावना निश्चित करता है।हर सीमा के अंदर हर समीकरण का हल नहीं है।हर क्षेत्र में,हर समस्या के निराकरण के संदर्भ में,यह एक ध्रुव सत्य है।हर सांसारिक समस्याओं के हल सरलता से निकाले जा सकते हैं यदि स्वप्नलोक में रहना है,परंतु यथार्थ के धरातल पर वास्तविक सीमायें,समाधान का अस्तित्व निर्धारण करती हैं ।किसी भी समस्या का,किसी भी संदर्भित सीमाओं के अंदर,सदैव हल हो सके यह संभव नहीं है ।
कहा जाता है कि ‘exception proves the rule’,और यहाँ अपवाद है नेतागीरी का क्षेत्र।हल के अस्तित्व का गणितीय प्रमेय यहॉं लागू नहीं होता।
समस्या स्थानीय हो अथवा राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय,नेता जी के पास,अ से ज्ञ तक की समस्या के समाधान उपलब्ध हैं। वास्तविक समस्या के परिप्रेक्ष्य में वास्तविक सीमाओं की अनदेखी करते हुए समस्या का निदान प्रस्तुत करना जनता को बरगलाने का काम अवश्य कर सकता है परंतु समस्या जस की तस रहती है।जो भी राजनैतिक दल चुनाव लड़ता है उसके लिये यह दावा करना,कि वह देश की सभी समस्याओं को खटाखट-खटाखट हल कर देगा,अति सरल है क्योंकि अगर हार गए तो समाधान करना विजयी दल का सिरदर्द है,और,यदि जीते तो….
‘ क़समें,वादे,विचारधारा,वादे हैं ,वादों का क्या,
सच कहना भी नहीं ज़रूरी,कुछ भी कह दो,कहना क्या।’
जब निभाना नहीं है तो वादा किया जा सकता,विचारधारा का अफ़साना सुनाया जा सकता है।
आज के मायावी युग में,प्रचार-प्रसार की चकाचौंध में,जनता यथार्थ से अनभिज्ञ हो चुकी है उसे अफ़साना ही समझ में आता है।आज के राजनैतिक दलों का ख़ास उसूल है ,पहले अफ़साना और फिर वोट के लिये फँसाना।
पुरातन काल से संग्रहित भौतिक व सामाजिक समस्याओं के पर्वतों पर ५ वर्ष के चुनावी अंतराल में विजय पाना असंभव है।आर्थिक तथा सामाजिक समीकरणों का हल आज की विद्यमान सीमाओं के भीतर करना ५-१० वर्ष का काम नहीं है।आसमान फटा हुआ है,सिर्फ़ एक,दो टाँके नहीं हज़ारों,लाखों टॉंके लगाने लगाने के लिये अच्छा ,ख़ासा समय चाहिए। जनता को यही समझना है।आर्थिक समस्याओं के निराकरण की गति,वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर है।इसी प्रकार स्थायी सामाजिक परिवर्तन की गति,सामाजिक चेतना में व्याप्त पूर्वाग्रह निर्धारित करता है।
पहली औद्योगिक क्रांति के समय से देश,प्रायः दो सदी तक,पिछड़ता रहा और केवल बीसवीं सदी के आरंभ में,टाटा इस्पात उद्योग से औद्योगिक युग का सूत्रपात हुआ।वर्तमान समय में दूसरी औद्योगिक क्रांति (Computer age),तीसरी औद्योगिक क्रांति (Artificial Intelligence),का उदय देख रही है।इन परिस्थितियों में यह स्पष्ट है कि देश के औद्योगिक विकास को विकासशील देशों के स्तर तक आना तत्काल संभव नहीं है,पर्याप्त समय चाहिए ।अट्ठारवीं सदी की फ़्रांसीसी क्रांति से,स्वतंत्रता ,समानता और भाईचारा की अवधारणा बलवती हुई और मानवीय चेतना में समाहित हो गई परंतु भारत में,ऐतिहासिक कारणों से एकत्रित,पूर्वाग्रहों को निर्मूल करने का गंभीर प्रयास बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रारंभ हुआ।मनोवृत्ति में परिवर्तन केवल क़ानून बनाकर नहीं किया जा सकता है।शैक्षिक तथा व्यवहारिक स्तर पर सतत प्रयत्नशील रहना अनिवार्य है,एक-आध सदी तक।
यह सच है कि देश तेज़ी से विकास कर रहा है पर अभी लंबा रास्ता तय करना है,यह ध्यान रखते हुए कि विश्व में विकास की मंज़िल उत्तरोत्तर आगे बढ़ती जा रही है।झूठे वादे और झूठे आश्वासन किसी काम के नहीं हैं।समस्या समाधान के गणित की उपेक्षा करना अपने आप को धोखा देना है।आर्थिक समीकरण पर सीमाओं की प्रतिबंधिता,को शिथिल करना दूरदर्शी राजनेता और परिश्रमी जनता पर निर्भर रहता है ।इसी प्रकार सामाजिक समीकरण पर लगी सीमाओं को सहल करना राजनेता के विवेक और जनता की सहृदयता से ही संभव है।
दूरदृष्टि,विवेक,परिश्रम व सह्रदयता से ही विकास के समीकरण का वांछित हल निकल सकेगा और वह भी पर्याप्त समय बाद।विकास समीकरण का गणित झुठलाया नहीं जा सकता अतः सदियों से एकत्रित समस्याओं का निराकरण खटाखट नहीं हो सकता।
राजनैतिक दलों के वादों को खटाखट भूल जाना ही बुद्धिमानी होगी ।
(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)