राजेन्द्र द्विवेदी
कोरोना युद्ध की लड़ाई में देश के सामाजिक, आथिर्क एवं जीवन के अन्य कई क्षेत्रों में व्यापक बदलाव किया। साथ ही यह भी साबित कर दिया कि अगर जब्बा है तो बड़ी से बड़ी परेशानी से भी हम लड़ सकते हैं। ऐसी ही एक हौसिलों की लड़ाई देश और दुनिया के लोगों ने सैकड़ों किलीमीटर लम्बी सड़कों की लम्बाई को गरीबों के पावों द्वारा नापते हुए देखा। चेन्नई हो या हैदराबाद, महाराष्ट्र हो या दिल्ली से हजारों किलोमीटर सड़के जो उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल व देश के दूसरे राज्यों के दूर दराज गांवों को जोड़ती हैं। उसे कोरोना युद्ध हौसले से उत्तर प्रदेश बिहार के गरीब नौजवान युवाओं ने अपने बच्चों और महिलाओं के साथ पैदल भी रौद दिया।
आजादी के 72 वर्षाे बाद देश के इन गरीबों ने सपने में भी नही सोचा होगा कि उन्हें ऐसी दुखद स्थिति का सामना करना पड़ेगा। पिछले एक महीने से देश के विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरों का जत्था, भूखा प्यासा सर पर झोला रखें, बच्चे के हाथ पकड़े अपने पत्नी के साथ पैदल ही घर की तरफ सैकड़ो किलोमीटर दूर चलता रहा। इतिहास में ऐसे अवसर कभी-कभी आये होंगे। जब ऐसा संकट गरीबों के सामने आया हो। इसमें सबसे दुखद यह रहा केन्द्र एवं प्रदेश सरकारों ने पूरी तरह से संवेदनहीनता का परिचय दिया है। सत्ता में बैठे लोग नौकरशाह तथा मीडिया में डिबेट करते है सरकारों का पक्ष रखने वाले लोग अपने को उन नौजवान, गरीब की मनोदशा में रहकर सोचें तो उनके दिल की भावनाएं पता चल जायेगी। लॉकडाउन में सरकार की तरफ से स्पष्ट नीति, कार्ययोजना न होने के कारण रोजगार छिन गये मजदूरों के सामने एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति थी। रोजगार छिन गये थे खाने के लिए था नही। छोटे-छोटे कमरों में सोशल डिसटेस्गि पालन कर नही सकते थे। मीडिया में कोरोना के आंतक का लगातार नकारात्मक प्रचार हो रहा था।
दूसरी तरफ गांव से माता-पिता रिश्तेदार लगातार भावनात्मक फोन करके उन्हें किसी तरह से जान बचाकर बच्चों के साथ घर वापस आने के लिए लगातार फोन करते रहें। मजदूर कहे जाने वाले युवकों में बहुत पढ़े लिखे मध्यम श्रेणी परिवारों के बच्चे है। जो गांव में रोजगार न होने के कारण मजबूरीवश शहरों में खोज परिणाम जीविकोपार्जन के लिए गये थे। गांव से शहरों की तरफ रोजगार के लिए प्लायन करने वाले इस भीड़ में 50 प्रतिशत ऐसे पढ़े लिखे तकनीकी शिक्षा लिये हुए युवक हैं। जो रोजगार के लिए मनरेगा में मजदूरी नही कर सकते। इन युवाओं की परिवारिक प्रतिष्ठा भी शामिल है। गांव में सर्वणो की स्थिति दलितों से भी खराब हैं। लेकिन संभ्रांत परिवारों से जुड़े पढ़े लिखे युवक सामाजिक कारणों से गांव में मजदूरी नही कर सकते। मजबूरीवश शहरों में गये हैं।
कोरोना युद्ध से लड़ाई के लिए अचानक चार घंटे का मोहलत देते हुए प्रधानमंत्री ने तीन हफ्ते का प्रथम लॉकडाउन घोषित किया जो 14 अप्रैल को समाप्त हो रहा था। गांव गरीब, किसान सहित विपक्ष ने भी प्रधानमंत्री के निर्णय का स्वागत किया और पूरा सहयोग भी दिया। प्रथम लॉकडाउन में केवल सहयोग की अपील प्रधानमंत्री ने की थी। कोइे ऐसी कार्ययोजना जनता को नही बतायी थी कि लॉकडाउन में आने वाली समास्याओं का कैसे निपटा किया जायेगा। प्रधानमंत्री के अपील पर छोटे बड़े उद्योंगों में एक माह का वेतन दिया गया। मकान मालिक ने किराया नही लिया और हर क्षेत्र में लोगों ने एक दूसरे का सहयोग किया। दिहाड़ी मजदूर पहले चरण में ही भूखमरी की कगार पर पहुंच गये थे क्योंकि लॉकडाउन में दिहाड़ी छिन गयी थी। स्थिति तब और खराब हो गयी जब बिना किसी कार्ययोजना के 14 अप्रैल को 19 दिनों का तीन मई तक दूसरा लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। अफवाहे फैली कि लॉकडाउन कई चरणों में कई महीने तक रहेगा। इन अफवाहों के बीच मीडिया के नकारात्मक प्रचार ने आग में घी का काम किया।
दूसरे लॉकडाउन में तब्दीली जमात को लेकर मीडिया में ऐसा आंतक मचाया कि समाज में दो संप्रदाय के बीच जबरदस्त खाई पैदा हो गयी। जिसका उदाहरण यह है मुंबई में फसे एक संप्रदाय के जुड़े कई युवक जिनकी संख्या 40 से अधिक थी लगातार फोन करके घबराये हुए यह बताते रहे कि वह ऐसे क्षेत्र में फसे हुए है जहाँ दूसरे धर्म के लोग है। उन्हें रोजगार देने वाला भी दूसरे धर्म का हैं। कई के मकान मालिक भी दूसरे धर्म के थे। मीडिया के तब्लीगी जमात पर की जा रही रिपोर्टाे से असुरक्षा का भाव बढ़ता गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने नोडल अधिकारी बनाये थे उनका मोबाइल नम्बर भी दिया, लेकिन उस पर लगातार फोन करने पर कोई सहयोग नही मिला। बार-बार समझाने के बाद किसी तरह यह नौजवान मुंबई में अभी तक रूके रहे और केंद्र सरकार द्वारा वापस लाने की घोषण के बाद निर्धारित फार्म की प्रक्रिया पूरी कर रहे हैं। सुबह से लेकर शाम तक इन फसे बच्चों के लगातार फोन आ रहे हैं। इनमें से कई की मदद स्थानीय स्तर पर करायी भी गई और आपस में मिलकर सहयोग के साथ रहते रहें। मेरे फोन के भरोसे पर रूके रहे और अब उनके आने की व्यवस्था सरकार कर रही है।
इन युवाओं ने तीसरे चरण के घोषणा के बाद यह स्पष्ट रूप से मुझे भी कहा था कि अगर तीन मई के बाद उन्हें जाने के लिए ट्रेन बस नही मिली तो वह भी पैदल चल देंगे। यह एक छोटा सा उदाहरण है। लेकिन ऐसा संवाद व आश्वासन के लिए शायद दूसरे मजदूरों के पास व्यवस्था नही थी। केंद्र के दूसरे लॉकडाउन से मची अफरा-तफरी के बीच डर और घबराहट से हजारों लाखों की संख्या में मजदूर अहमदाबाद, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, नागपुर, चेन्नई तमाम शहरों में सड़कों पर आये जिसे सरकारों ने ताकत के बल पर रोकने का प्रयास किया लेकिन रोक नही सके। इनका भरोसा केन्द्र एवं प्रदेश के दोनो सरकारों के व्यवहार से टूट गया। आक्रोशित युवक अपने परिवार बच्चों और साथियों के साथ एक दूसरे का हौसला अफजायी करके सड़कों को नापते हुए सैकड़ो किलोमीटर दूर गांव की तरफ चल दिये। इनमें से कई बच्चे, महिलाए और युवको के निधन की सूंचनाए अखबारों में आती हैं। मजदूरों के हल्ला मचाने और उनके परिवारों द्वारा स्थानीय स्तर पर सांसदों विधायको पर दबाव बनाने के कारण मजबूरीवश डर कर मजदूरों के वापस लाने का निर्णय सरकारों ने किया। जिसकी पहल शुरू हुई है लेकिन इनमें भी बिहार एक ऐसा राज्य है जिसके मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अभी भी हिला-हवाली कर रहे है। जिसको लेकर देश भर में प्रदर्शन हो रहा हैं और बिहारी के युवक विडियो बनाकर अपना आक्रोश गाली ग्लोज के साथ रोते हुए वायरल कर रहे है। ऐसे कई विडियों मेरे पास है जिन्हें सार्वजनिक नही किया जा सकता।