राजेन्द्र द्विवेदी
देश में चुनाव में करोड़ों करोड़ रुपए लुटाए जाते हैं छोटे से प्रधानी के चुनाव में भी लाखों खर्च होने लगे हैं। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव करोड़ों में होते हैं। इन चुनावों में कोई एक दल नहीं सियासत करने वाले सभी दल शामिल होते हैं। दलों के अलावा तमाम ऐसे लोग होते हैं जो बिना किसी दल के ही चुनाव के दलदल में करोड़ों खर्च करके अपनी ताकत का एहसास कराते हैं। यह नेता की प्रजाति किसी एक जगह नहीं पाई जाती, पूरे देश में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पाए जाते हैं।
करोड़ों खर्च करने वाले नेताओं का लेखा-जोखा अगर हम देखें तो जनता से सीधे चुने जाने वाले लोकसभा सांसदों की संख्या 542 और विधायकों की संख्या 4123 है इनमें राज्यसभा के 245 और राज्यों के विधान परिषद सदस्यों की संख्या शामिल नहीं है सभी सांसद और विधायक अपने-अपने चुनाव में किस तरह से पानी की तरह पैसा बहाते हैं यह देश की जनता से छुपा नहीं है। कोरोना संकट में गरीब जो आज दर-दर अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर सैकड़ों किलोमीटर भूखा प्यासा रोता हुआ अपने घर की तरफ आ रहा है यही गरीब चुनाव में इन करोड़पति नेताओं के माई बाप और भगवान होते हैं।
देखा गया है कि नेता अपने-अपने चुनाव में इन्हीं गरीब मजदूरों को जो दूसरे राज्यों में कमाने गए हैं उन्हें तथा उनके परिवारों को हजारों-हजारों रुपया किराया और खाने पीने का व्यवस्था करके वोट लेने के लिए बुलाते हैं इन्हें आने जाने के किराए के साथ ही जब तक चुनाव की प्रक्रिया 2 महीने तक चलती है उस दौरान खाने पीने की व्यवस्था के लिए भंडारा चलता है इन भंडारों में प्रतिदिन विधायक चुनाव में 100 से 200 और सांसद के चुनाव में 500 से 1500 तक कार्यकर्ता सुबह-शाम भोजन नाश्ता करते हैं इन सभी के चलने के लिए एसी और नान एसी गाड़ियों का लंबा काफिला भी होता है।
चुनाव नहीं है कोरोना संकट है, अब यही मजदूर नेताओं के लिए पराए हो गए हैं। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जेडीयू, आरजेडी, शिवसेना व अन्य छोटे-बड़े दल सभी की रैलियों में पार्टी की हैसियत के हिसाब से लाखों से लेकर अरबों रुपए खर्च होते हैं यही गरीब मतदाता को इन रैलियों में जाने के लिए प्रतिदिन की दिहाड़ी दी जाती है आने-जाने की गाड़ी दिया जाता है। खाने की व्यवस्था होती है और नेता करोड़ों खर्च करके रैलियों करते हैं।
रैलियों में पिछले एक दशक में विशेषकर मोदी और अमित शाह की जोड़ी सबसे अधिक आगे रही है। भाजपा की रैलियों में किस तरह से व्यवस्था की जाती है पूरा इवेंट मैनेजमेंट की तरह हाईटेक रैलिया होती है और इन रैलियों में यही मजदूर, गांव गरीब किसान आते हैं मोटे अनुमान के अनुसार रैली में औसत एक व्यक्ति पर ₹500 खर्च होते हैं रैली के मंच पर ही नेता लाखों-लाख की भीड़ होने का दावा करते हैं।
अब सवाल यही उठ रहा रहा है कि आखिर चुनावों में करोड़ों खर्च करने वाले नेताओं ने इन गरीबों पर रहम क्यों नहीं किया ? इतने संवेदनहीन क्यों हो गए ? अगर हम नेताओं की संवेदनहीनता का विश्लेषण करें, तो कोई किसी से कम नहीं है? सभी दलों के नेताओं चाहे वह सत्ता में हों या सत्ता से बाहर सबका चरित्र मजदूरों के खिलाफ ही एक जैसा रहा है। जो जितना बड़ा होता है उसकी जिम्मेदारी उतनी बड़ी होती है अब अगर हम संख्या बल के हिसाब से देखें तो भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है।
भाजपा के 303 सांसद है देशभर के टोटल 4123 विधायकों में 1320 विधायक भारतीय जनता पार्टी के हैं। केंद्र में सरकार में होने के कारण भारतीय जनता पार्टी की सबसे अहम जिम्मेदारी है। दूसरे स्थान पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस है जिसके सांसदों की संख्या तो जरूर 52 है लेकिन विधायकों की संख्या 831 है इन दोनों दलों के शीर्षस्थ नेता आपस में आरोप-प्रत्यारोप अधिक मजदूरों के हितों को लेकर सार्थक पहल अपने स्तर से किसी ने नहीं की यही स्थिति देश के अन्य क्षेत्रीय दलों की भी है जो सत्ता में हैं या सत्ता से बाहर है। केरल राज्य को छोड़ दें तो अन्य सभी राज्यों की स्थिति एक जैसी है सबसे दुखद स्थिति अति पिछड़े राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम की है जिनमें सबसे अधिक मजदूर दूसरे राज्यों में मजदूरी करने गए इन सातों राज्यों में 1320 चुने हुए विधायक और 209 सांसद है इन सभी विधायकों और सांसदों में 97 प्रतिशत सांसद विधायक करोड़पति और अरबपति है। इन्हीं राज्यों के सबसे अधिक मजदूर सड़कों पर रोते बिलखते छोटे-छोटे बच्चों को लेकर अपने घर आने के लिए पदयात्रा कर रहे हैं।
जिन राज्यों के मजदूर दूसरे राज्यों में कमाते हैं। उनकी कमाई से एक गरीब राज्य की 30% से अधिक अर्थव्यवस्था चलती है। अगर मजदूर की कमाई राज्य में नहीं आए तो परचेजिंग पावर कम होगी और सप्लाई चैन टूट जाएगा। कोरोना संकट में अब यही होने जा रहा है क्योंकि मजदूर जैसे तैसे अपने राज्यों में वापस आ रहे हैं। मजदूरों के साथ कैसी संवेदनहीनता नेताओं द्वारा बढ़ती जा रही है इसका हिसाब एक एक दलों से विश्लेषण करने पर सामने आ रहा है।
सबसे पहले सबसे बड़े दल भारतीय जनता पार्टी के चुने हुए 303 सांसदों और 1320 विधायकों को लिया जाना चाहिए, यहां यह बताना जरूरी है कि सरकार केंद्र में हो या प्रदेश में, किसी की भी क्यों ना हो अपने अपने संसदीय क्षेत्रों के प्रवासी मजदूरों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सांसदों और विधानसभा क्षेत्रों से विधायकों की है। मैं नहीं मानता हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी या किसी दूसरे दल के नेता ने मजदूरों को मदद करने से रोका होगा, हां इतना जरूर है इन नेताओं ने सार्थक पहल नहीं की और ना ही सांसदों विधायकों को निर्देशित किया कि वह अपने अपने संसदीय क्षेत्र में ही फंसे मजदूरों की मदद करें। उनके खाने-पीने की व्यवस्था करें और जाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करें लेकिन ऐसा किसी ने नहीं किया। अमेठी के कुछ फंसे मजदूरों को प्रियंका गांधी ने जरूर घर वापस भेजने में मदद की अब हम यहां सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी के सांसदों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही विश्लेषण शुरू करते हैं कि आखिर इन सभी ने मजदूरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया ?
नेताओं का दोगला चेहरा
कोरोना वायरस की लड़ाई में देश के नेताओं का दोगला चेहरा सामने आ गया। जो नेता आज मजदूरों को घर पहुंचाने को लेकर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर रहे हैं वह सभी मजदूर विरोधी हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इन सभी नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए कि चुनाव में जब यह 5 और 10 लाख की रैलियां करते हैं तो भीड़ कैसे और किस साधन से आती है। निश्चित है भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, शिवसेना, एलजेपी, आम आदमी पार्टी, टीडीपी, एलजीपी, सीपीआई, सीपीएम, टीआरएस, बीजेडी व कोई भी राजनीतिक दल सभी अपने रैलियों में निजी संसाधनों से लाखों की भीड़ जुटाते हैं। सत्ता में हो या सत्ता से बाहर। सत्ता में है तो सरकारी संसाधन का भी उपयोग करते हैं और सत्ता के बाहर हैं तो केवल निजी वाहनों का उपयोग करते हैं। सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी जो देश की सबसे बड़ी पार्टी है इनकी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, प्रदेश के अन्य बड़े बड़े नेता 10-15 लाख भीड़ की घोषणा करते हैं आखिर 10-15 लाख भीड़ कहां से और कैसे आती थी। इसके संसाधन कैसे होते थे ? वह संसाधन आज गरीबों को उनके घर पहुंचाने के लिए कहां गायब हो गए ? यही स्थिति कांग्रेस की है कांग्रेस की भी रैलियों में भारी संख्या में भीड़ जुटती है और यह भीड़ भी निजी संसाधनों से पार्टी के नेताओं के माध्यम से जुटाई जाती है।
सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वह अन्य नेता जो भाजपा पर आरोप लगाते हैं आखिर वह भी अपने रैलियों की तरह इन मजदूरों की मदद घर तक पहुंचाने में कर सकते थे। बसपा नेता मायावती जो 10 से 15 लाख की रैलियों की घोषणा करती थी। आखिर इन की रैलियां कैसे होती थी ? इनकी भीड़ कैसे आती थी ? भाजपा की भीड़ में तो कमजोर तबके खास करके दलित सबसे अधिक होते थे। गरीब दलित मजदूर, पिछड़े बसपा की रैलियों में काफी संख्या में आते थे। आखिर मायावती जो गरीबों की सबसे बड़ी नेता बनने का दावा करती हैं उनके संसाधन और नेता कार्यकर्ता कहां चले गए जो रैलियों में लाखों की भीड़ जुटाते थे। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी रैलिया करते हैं इनकी रैलियों में भी प्रदेशभर से लाखों की भीड़ जुटती है आखिर केवल आरोप लगाने से काम नहीं चलेगा। अखिलेश ने सड़क पर चल रहे गरीब मजदूरों को अपनी रैलियों की तरह उन्हें घर पहुंचाने की व्यवस्था क्यों नहीं की ? यही स्थिति बिहार की है जहां पर रामविलास पासवान बड़े नेता माने जाते हैं बड़ी-बड़ी रैलियां करने का दावा करते हैं उनकी रैलियों में भी लाखों भीड़ आती है और यह भीड़ भी निजी संसाधनों से आते हैं। आखिर दलितों के मसीहा बनने वाले रामविलास पासवान उनके बेटे चिराग पासवान आज बिहार के गरीबों को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिए हैं केवल बयानों तक सीमित है। लालू के बेटे तेज प्रताप यादव जो कभी-कभी मीडिया में आकर नीतीश पर दलित विरोधी, गरीब विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। इनकी रैलियों में भी बिहार में लाखों -लाखों भीड़ जुटती है यह भीड़ भी अन्य दलों की तरह अपने संसाधनों से लाई जाती है आखिर तेज प्रताप यादव ने बिहार के मजदूरों को अपने प्रदेश में लाने में सहयोग क्यों नहीं किया ? नितीश कुमार और अन्य सभी रैलीबाज नेता गायब है। वरिष्ठ नेता शरद पवार भी संसाधनों के मामले में किसी से कमजोर नहीं है और आज महाराष्ट्र में सत्ता में भागीदार है शरद पवार की रैलियों में भी लाखों भीड़ जुटती है आखिर भीड़ जुटाने वाले संसाधन शरद पवार के कहां गायब हो गए ? यही स्थिति सभी दलों और सभी राज्यों में है किसी ने भी अपने राज्य में इन गरीबों को मदद करने का प्रयास नहीं किया केवल नरेंद्र मोदी या राज्यों में भाजपा व गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों का ही दायित्व नहीं है। क्यों गरीबों की मदद करें ? यह दायित्व विपक्ष की नेता सोनिया गांधी और दूसरे दलों के नेताओं का भी है दुर्भाग्य ही है कि सभी नेताओं ने सियासत ज्यादा की और गरीबों को उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया।
लॉकडाउन के 52 दिनों के बीच जिस तरह से देशभर में करोड़ों मजदूर छोटे-छोटे बच्चों को लेकर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं। नंगे भूखे यह मजदूर इन सभी नेताओं से एक ही सवाल कर रहे हैं कि जब रैलियों करते हैं तो आपके पास गाड़ियों का अंबार होता है और आज हम कोरोना संकट में फंसे हैं तो गाड़ियां गायब हो गई। यहां दोगला चेहरा किसी एक नेता का नहीं सभी नेताओं का है। लॉकडाउन में घर पहुंचने के लिए निकले मजदूर विभिन्न दुर्घटनाओं में 1000 की संख्या में मारे जा चुके हैं और कई हजार घायल हो चुके हैं। मजदूरों की यह पीड़ा आज भी नेताओं को दिखाई नहीं पड़ रहा है ?