शर्म आनी चाहिए मजदूर मर रहा है, नेता सियासत कर रहे हैं

राजेन्द्र द्विवेदी

नेताओं को शर्म आनी चाहिए कि मजदूर नंगे, भूखे, छोटे-छोटे बच्चों के साथ अपने घर जाने के लिए छटपटा रहे है। दूसरे राज्यों से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर उत्तर प्रदेश के सीमा पर पहुंचे हजारों हजार मजदूर मजबूर हैं लेकिन मजबूरी प्रदर्शित नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश के ऐसे 35 करोड़ लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए जो मजबूर तो हैं लेकिन अपने सम्मान और स्वाभिमान में सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण अपनी मजबूरी प्रदर्शित नहीं कर सकते।

नोटबंदी के बाद बिगड़ते आर्थिक हालात में रोजगार छिन गए थे। किसी तरह से अपनी जीवन यापन कर रहे थे। कोरोना संकट में लाकडाउन में ऐसे 35 करोड़ अपर, मीडियम तथा निम्न वर्गीय परिवारों की हालत मजदूरों से भी बदतर होने जा रही है। मजदूर हमारे देश के सम्मानित नागरिक हैं। उनका अधिकार है कि उन्हें मूलभूत आवश्यकताएं सम्मानजनक तरीके से दी जाएं। लाकडाउन में मजदूरों का पलायन और उनकी बेबसी निश्चित ही बहुत ही दुखदाई और पीड़ा पहुंचाने वाली है। जिस तरह से मजदूरों को लेकर सियासत ज्यादा मदद कम हो रही है यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है जैसे भी अच्छे बुरे मरते गिरते जो भी बचेंगे वह गांव पहुंचेंगे। गांव पहुंचने के बाद इन मजदूरों के सामने भुखमरी नहीं होगी। समस्याएं जरूर रहेंगी लेकिन भूखे नहीं मरेंगे क्योंकि सरकार ने मुफ्त खाने की व्यवस्था, राशन, जनधन खाते में व्यवस्था, फ्री गैस तथा अन्य तरह की सुविधाएं और रोजगार के लिए मनरेगा उपलब्ध करा रही है। ऐसे मजदूरों की संख्या भी हर क्षेत्र में लाभ पाने वालों की मिलाकर 80 करोड़ है, ठीक है इन्हें मदद मिलनी चाहिए और हर तरह से सुरक्षा दी जानी चाहिए लेकिन 35 करोड़ अपर, मीडियम एवं लोअर परिवारों के बारे में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश के व्यवस्था से जुड़े हुए सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सोचना चाहिए।

मध्यम श्रेणी के 35 करोड़ जिनमें 30 करोड़ निजी और स्वयं की व्यवसाय और सेवाओं से जुड़े हैं इनमें प्रोफेशनल और नान प्रोफेशनल सभी शामिल है। सोचे की जिन्होंने लाखों लाख रुपए खर्च करके इंजीनियरिंग पास किया और 5000-7000 में अपनी जीविका चला रहे थे। जिन्होंने अभी-अभी नई वकालत शुरू किया था। 2000 से 4000 रूपये मिलना शुरू हुए थे, देशभर में फैले हजारों कंपनियों के सेल्समैन एरिया मैनेजर तथा अन्य तरह के एजेंट पांच से दस हज़ार रुपया कमा कर अपना परिवार चला रहे थे। बीमा एजेंट तथा अन्य सेवाओं कोचिंग, ट्यूशन, टाइपिस्ट, स्टोनों, रिसेप्शनिस्ट सहित सैकड़ों निजी और कंपनियों के सेवा में लगे हुए थे जो आर्थिक रूप से मजबूर होते हुए भी अपनी मजबूरी प्रदर्शित नहीं करते।

साफ-सुथरे कपड़े पहन कर समाज में किसी तरह से सम्मानजनक जिंदगी जीने का प्रयास कर रहे थे। हजारों हजार छोटे-मोटे ठेका करने वाले पढ़े लिखे स्नातक, इंजीनियर, डिप्लोमा होल्डर, आईटीआई व व्यवसायिक प्रशिक्षण प्राप्त युवक और युवतियां किसी तरह से अपने पेट पाल रहे थे। रियल स्टेटट से जुड़े देश भर में लाखों लाखों युवक- युवतियां जो प्रॉपर्टी से जुड़े जमीन प्लाट और फ्लैट को बेचकर अपना कमीशन के आधार पर मिली धनराशि से परिवार पाल रहे थे। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग जो किसी तरह से अपनी जीविका का यापन कर रहा था। छोटे बड़े अखबारों से जुड़ा था। असंगठित क्षेत्रों के यह अपर मीडियम, मीडियम और लोवर मीडियम के परिवार वालों के बारे में भी मोदी को सोचना चाहिए।

प्रधानमंत्री को जानना चाहिए कि जब तक अप्पर मीडियम, लोअर मीडियम और मीडियम वर्ग के जेब में पैसा नहीं होगा तो सप्लाई चैन किसी भी तरह से कामयाब नहीं होगी क्योंकि यह एक ऐसा वर्ग है जो समाज में छोटे से लेकर बड़े, मीडियम सभी तरह के खरीद-फरोख्त में मार्केट में उपस्थित रहता था। ऐसे परिवारों के सामने बच्चों की फीस देने, मकान के क़िस्त देने, गाड़ियों के क़िस्त देने है। बच्चों के कोचिंग कराने, शादी ब्याह सहित अन्य तमाम कार्यों के लिए कोई भी आर्थिक स्रोत नहीं है। केंद्र और प्रदेश सरकार है चाहे जितना आर्थिक पैकेज बना ले। गांव गरीब को फ्री सामान बाट दें लेकिन जब तक देश का अप्पर, लोअर और मीडियम वर्ग के परिवारों की भागीदारी व्यवस्था में नहीं होगी तब तक सप्लाई चैन कभी भी ठीक नहीं हो सकता। 20 लाख करोड़ पैकेज में मीडियम, लोवर और अपर मीडियम को ऐसा कुछ नहीं मिला है जिससे वह सीधा है सप्लाई चैन की व्यवस्था में जुड़ सकें। सबसे बड़ी समस्या इनके सामने हैं क्योंकि यह न तो मजदूरों की तरह मजबूर होते हुए भी अपनी मजबूरी देश समाज या सरकार के सामने प्रदर्शित कर सकते हैं और न ही सरकार द्वारा किसी प्रकार की जीविका उपार्जन हेतु सुविधाएं दी जा रही है।

प्रियंका और योगी के संवाद एवं सहयोग बीच बाधक बनी नौकरशाही

कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन में फसे लाखो लाख मजदूरों को उनके घर पहुचाने के लिए बसों का प्रस्ताव प्रियंका गाँधी का सराहनीय कदम है। प्रियंका ने जिस तरह से 1000 बसों की मदद के लिए पत्र लिखा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से यह भी कह दिया कि गरीब मजदूरों को उनके घर पहुचाइये आप चाहे तो उन बसों पर भाजपा का झंडा, बैनर लगा लीजिए या अपनी फोटो ही लगा लीजिये हमे कोई आपत्ति नही होगी। प्रियंका का यह प्रयास राजनीति में बहुत ही सराहनीय है। बसों की संख्या कम ज्यादा हो सकती है। इस विवाद में पड़ने के बजाय जितनी 879 बसे मौके पर कांग्रेस ने उपलब्ध कराई उसे तत्काल मजदूरों की सेवा में लगा देनी चाहिये लेकिन उत्तर प्रदेश की नौकरशाही ने ऐसा होने नहीं दिया।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पूरी तरह गुमराह करके भाजपा की छवि गरीबों और मजदूरों में गिराने का प्रयास भी किया है। बसे बॉर्डर पर खड़ी है और लाखों-लाख मजदूर बसों की तरफ निहारते हुए मजबूरी में नंगे भूखे छोटे छोटे बच्चे और महिलाओं के साथ पैदल घर चलने के लिए मजबूर हो रहे है। बहुत ही शर्मनाक है कि प्रियंका गाँधी के इस मदद को राजनीत में घसीटा दिया। प्रियंका ने 1000 बसों की देने का वादा किया और सूची दी। सूची में जो भी कारण हो कुछ गैर बस के नंबर आ गये इस पर विवाद करने के बजाये जो बसे उपलब्ध थी उसे गरीबों की सेवा में लगा देनी चाहिए। इस आरोप-प्रत्यारोप की सियासत में प्रियंका गाँधी को राजनीतिक फ़ायदा भी मिला और उन्हें गरीबों के हमदर्द के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी तरफ जिसका जो भी आंकलन हो लेकिन यह निश्चित है कि मौके पर खड़ी बसों से सेवा न लेने से योगी सरकार की छवि मजदूरों में ख़राब हुई है।

जिस तरह अपर मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी और प्रियंका गाँधी के निजी सचिव के बीच पत्रों का आदान प्रदान हो रहा है। इससे भी सरकार की छवि प्रभावित हुई है। एक तरफ मजदूर परेशान है उनकी मदद के लिए प्रियंका के द्वारा उपलब्ध कराई गयी 879 बसे खड़ी है और अधिकारी उसे मदद लेने के बजाय पत्रों में उलझे है। यही नहीं प्रियंका के निजी सचिव और प्रदेश कांग्रेस अद्यक्ष अजय कुमार लल्लू के खिलाफ लखनऊ हजरतगंज में FIR भी दर्ज करा दिया गया है।

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