दलितों के ”माया-जाल” पर भाजपा का शिकंजा !

दिनेश दुबे

दलितों और पिछड़ों की रहनुमाई करने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती लगता है अब बहुजनों की बहिन जी न रहकर सत्ता और ‘सरकार’ की हो गईं हैं ? जन्म से ही सामंती व्यवस्था और उच्च वर्ग का विरोध करने वाली मायावती के तेवर अब ढीले पड़ चुके हैं। इसे राजनैतिक मजबूरी कहा जाए या केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों का भय, जो बसपा सुप्रीमों का भाजपा प्रेम एक बार फिर से उबाल मार रहा है ! हकीकत यह है कि सत्ता-सुख के लालच में उच्च वर्ग के प्रति मायावती का नजरिया तो बहुत पहले ही नरम पड़ चुका था तभी तो वो पांच साल तक पूर्ण बहुमत वाली सरकार की मुख्यमंत्री भी रहीं ! किन्तु इससे पहले भी वो भाजपा के सहयोग से ही तीन बार मुख्यमंत्री बनीं थीं ! मायावती की मेहनत से एकजुट किये गए ‘वोटबैंक’ पर निग़ाह लगाए भाजपा ने इस बार बसपा के राज्यसभा प्रत्याशी को जिन परिस्थितियों में जिताकर राज्यसभा भेजा है उससे साफ है कि यूपी के आगामी चुनाव में भाजपा और बसपा का गठबंधन होना लगभग तय है। वोटबैंक के बिखराब को रोंकने के लिए मायावती ने ऐलान जरूर किया है कि भाजपा और बसपा का गठबंधन नहीं होगा ! लेकिन मौजूदा परिस्थितयों व राजनैतिक हालातों से लगता है कि सपा को रोंकने के लिए भाजपा और बसपा को एक होना ही पड़ेगा ! बसपा सुप्रीमों के विषय में ज्यादातर लोग जानते ही हैं कि जिस मुकाम पर वो हैं वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ लम्बा संघर्ष ही किया है बल्कि मौके का फायदा उठाने में भी उन्होंने कभी कोई चूक नहीं की है। जिसके चलते मायावती को मौका परस्त भी कहा जाता है। दलितों और वंचितों को संवैधानिक हक दिलाने के लिए लम्बे अरसे तक ज़मीनी संघर्ष करने के बाद सन 1984 में बहुजन समाज पार्टी के नाम से राजनैतिक दल की स्थापना करने वाले कांशीराम के साथ राजनीति में आते ही मायावती ने सबसे पहले दलितों और पिछड़ों के बीच दांव चलते हुए ऐलान किया था कि वो कभी शादी नहीं करेंगी और जीवन भर बहुजन समाज के लिए काम करती रहेंगी !

बहुत कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि मायावती ने ही सन 1992 में लोकदल तोड़कर समाजवादी पार्टी बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से राजनैतिक समझौता करके सत्ता का रास्ता तैयार किया था। समझौते के तहत 1993 के विधान सभा चुनाव में सपा और बसपा ने क्रमश: 256 और 164 सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा और दोनों दलों को 109 व 67 सीटें जीत में हांसिल हुई। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। लेकिन सपा-बसपा की दोस्‍ती लंबे समय तक नहीं चली। मई 1995 में बसपा ने मुलायम सिंह यादव की सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी। जिसके बाद ‘गेस्‍ट हाउस कांड’ में मायावती के साथ दुर्व्‍यवहार की घटना हुई जिसमें भाजपा के कद्दावर नेता ब्रम्हदत्त द्विवेदी ने मायावती को सपा नेताओं से बचाया था। इसी के बाद सपा-बसपा में तल्‍खी बढ़ी और भाजपा-बसपा में निकटता। जिसके बाद भाजपा के सहयोग से ही 3 जून 1995 को पहली बार मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। साढ़े तीन महीने 18 अक्टूबर 1995 तक उन्होंने सत्ता-सुख का स्वाद चखा। चूंकि मायावती ने सत्ता-सुख के लिए ही पिछड़ों और किसानों के नेता मुलायम सिंह यादव से समझौता कर सरकार बनवाकर गिरा दी थी। इसीलिए बसपा से पिछड़ों का मोहभंग होने लगा और मायावती की पहचान एक राजनेता के बजाय “दलित-नेता” की बन गई। भाजपा के सहयोग से ही मायावती 21 मार्च 1997 से 21 सितंबर 1997 तक दूसरी और 3 मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक तीसरी बार मुख्यमंत्री रहीं। इस बीच जातीय जहर के शिकार लोगों के बीच रहकर मायावती ने जब यह बात भली-भांति समझी कि सिर्फ दलितों के सहारे उनका राजनीतिक सफर तय नहीं हो पायेगा तो उन्होंने ‘सर्वजन- सुखाय व सर्वजन-हिताय’ का नया नारा दिया। फलस्वरूप सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर 2007 के विधान सभा चुनाव में उन्हें अप्रत्याशित जीत मिली और 13 मई 2007 को उन्होंने चौथी बार यूपी की सत्ता संभाली। शासन-सत्ता का फायदा उठाकर पार्टी के कैडर कार्यकर्ताओं को कैसे खुश किया जाए ? इसका फार्मूला भी बसपा सुप्रीमों मायावती ने ही तैयार किया। अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद मायावती ने पूरे पांच साल तक न सिर्फ सरकारी धन की लूट करवाई बल्कि जनता की गाढ़ी कमाई से दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाकर नया बखेड़ा भी खड़ा किया। इस बीच उन्होंने पार्टी की कई बड़ी रैलियां भी आयोजित की जिसमें भी सरकारी धन का अपव्यय व सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया गया। सरकारी धन की लूट और घोटालों से प्रदेश की जनता में मायावती के प्रति नफरत पैदा हो गई ! चूंकि मायावती पर भ्रष्टाचार और आय से अधिक सम्पत्ति जुटाने का मामला पहले से ही प्रचलित था और सीबीआई द्वारा की गई जांच में इसका खुलासा भी हो चुका था। इस तरह चारों ओर से घिरने के कारण वर्ष 2012 के विधान सभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को समाजवादी पार्टी से करारी हार का सामना करना पड़ा।

चूंकि आयकर विभाग के मुताबिक सन 2007 से 2012 के बीच मायावती के भाई आनंद कुमार की निजी संपत्ति में 18 हजार फीसदी का इजाफा हुआ है। वर्ष 2007 में आनंद कुमार की संपत्ति 7.1 करोड़ थी जो 2012 तक बढ़कर 1300 करोड़ हो गई। आयकर विभाग की नजरें उन 12 कंपनियों पर भी है जिनमें आनंद कुमार निदेशक के रूप में जुड़े हैं। जांच में यह भी पता चल चुका है कि सन 2007 से 2012 तक जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तब पांच कंपनियों फैक्टर टेक्नोलॉजीज, होटल लाइब्रेरी, साची प्रॉपर्टीज, दीया रियल्टर्स और ईशा प्रॉपर्टीज के जरिए अधिकतर पैसा इकट्ठा किया गया। यही नहीं आनंद कुमार के पास 870 करोड़ रुपये से अधिक की अचल संपत्ति के साथ ही कई अन्य बेनामी संपत्तियां भी है। इन्हीं बेनामी संपत्तियों में से एक संपत्ति को आयकर विभाग ने जब्त भी कर रखा है। इस संपत्ति की कीमत करीब 400 करोड़ रुपये बताई जाती है। आनंद कुमार पर हो रही आयकर विभाग की कार्रवाई की जद में मायावती भी आ सकती है। आयकर विभाग के अलावा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी मामले की जांच कर रहा है। लोग जानते ही हैं कि आनंद कुमार नोएडा विकास प्राधिकरण में क्लर्क थे। लेकिन सन 2007 में बहन मायावती की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनते ही उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी। इसके बाद आनंद कुमार ने 2012 तक 49 कंपनियां खोली और उनकी संपत्तियों में भारी इजाफा होता गया। इस बीच सीबीआई की जांच में मायावती के पास पाई गई आय से अधिक की सम्पत्ति के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज जरूर कर दिया। लेकिन सीबीआई द्वारा की गई जांच को गलत नहीं ठहराया गया है। जिस पर याचिका कर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में दूसरी याचिका दाख़िल की है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर रखा है। चूंकि बसपा सुप्रीमों मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर उसे राजनैतिक संरक्षण जरूर प्रदान कर रखा है लेकिन आंनद के लिए यह राजनैतिक संरक्षण कवच तभी साबित होगा जब भारत सरकार चाहेगी ? चूंकि अवसर वादी मायावती ने पिछला लोकसभा चुनाव सपा के साथ मिलकर लड़ा था क्योंकि मायावती को विश्वास था कि केंद्र में गैर एनडीए की सरकार बनेगी तो उन्हें राजनैतिक संरक्षण मिल जायेगा। लेकिन केंद्र में पुनः भाजपा की सरकार बन गई ! चूंकि सपा से गठबंधन तोड़ने के बाद से चुप बैठी बसपा सुप्रीमों मायावती ने राज्यसभा चुनाव के दौरान खुलकर भाजपा का दामन थाम लिया ! इससे साफ है कि मायावती को इस समय बहुजनों से ज्यादा स्वजनों की चिंता सता रही है ! मौका परस्त मायावती के इस पैंतरे के पीछे सपा प्रमुख अखिलेश यादव की चाल थी जिसके जरिये वो बसपा सुप्रीमों मायावती के चेहरे से नकाब हटाकर उनको जनता के सामने बेनक़ाब करना चाहते थे ! देखा जाए तो मायावती के इस कदम से दलितों के साथ ही अल्पसंख्यकों को भी निराशा हुई है जिसके चलते अब सपा का पलड़ा भारी होता दिख रहा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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