सरकार को किसानों की आशंकाओं को दूर करना उसकी संवैधानिक ही नहीं बल्कि नैतिक जिम्मेदारी है।

सरकार किसानों को अपनी बातों से संतुष्ट कर दे और ऐसा न हो पाने कि स्थिति में उन कानूनों को जिनका कि विरोध हो रहा हैं , उन्हे वापस लेकर तथा सभी सम्बंधित पक्षों के साथ सम्यक विचार विमर्श करके ऐसा नया कानून लाये जो सर्वमान्य हो एवं तार्किक रूप से पुष्ट हो।

वी एस पांडेय
किसान आंदोलन के तीन महीने पूरे होने में अब कुछ दिन ही बाक़ी बचे हैं। कई समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर लगातार उस आशय की खबरें आरही हैं कि किसानों के धरना स्थलों पर भीड़ काफ़ी कम दिखाई पड़ने लगी है। ऐसे मीडिया को ऐसा लगता है कि किसान इस पृथ्वी का जीव ना हो कि उसको अपना घर बार चलाने या खेत जोतने और फसल उगाने की कोई ज़रूरत नहीं है और उसके पास तो शायद तीन कृषि कानूनो के विरोध में सिर्फ़ धरना देने का ही काम बचा है ।इस बात को शायद ही कुछ मीडिया बता रही है कि इतने लम्बे समय तक पूर्णतः शांति पूर्ण ढंग से इस तरह से मौसम की मार को भी झेलते हुए अपनी माँगो के समर्थन में बैठे रहना एक अभूतपूर्व घटना है ।किसानों ने लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात को सत्ता तक पहुचाने के लिए धैर्य पूर्ण ढंग से जो आंदोलन अबतक चलाया है , ऐसा उदाहरण अत्यंत प्रशंसनीय है। मूल बिंदु यह है कि यदि देश की सरकार के किसी कदम से देश के एक वर्ग को विभिन्न कारणों से गहरी आशंका या नुक़सान की सम्भावना दिखती है तो ऐसी स्थिति में वह क्या करे ।
यथार्थ यह है कि हमारी चुनाव व्यवस्था एक प्रकार से जनतंत्र होने के बजाय धनतंत्र होने की दिशा में वर्षों से बढ़ती जा रही है ।सभी को यह पता है कि चुनावों में सभी पार्टी और उसके उम्मीदवार करोड़ों रुपये चोरी छुपे खर्च करके चुनाव जीतने की जुगत में लगे रहते हैं , और फिर चुनाव जीत जाने पर अगले चुनाव के लिए धन करने के लिए तमाम अनाप शनाप ढंग की नीतियाँ बनाते हैं और अवैध धंधों में लिप्त रहते हैं।ऐसे हालात में क्या यह कोई भी कह सकता है कि कोई भी सरकार सारे निर्णय सिर्फ़ जन हित में ही लेती है ।क्या विश्वास से यह कहा जा सकता है कि सरकारों द्वारा तैयार की गई सभी नीतियाँ एवं क़ानून सिर्फ़ आम लोगों के हित के लिए ही होती हैं ? इन हालातों में यह बहुत ज़रूरी है कि देश का प्रत्येक नागरिक सरकार के ऊपर कड़ी दृष्टि रखे और जब कभी भी सरकार द्वारा लिया गया कोई निर्णय शक के घेरे में आए तो ऐसे निर्णय का लोकतांत्रिक ढंग से विरोध किया जाए । कृषि कानूनों के सम्बन्ध में करोना काल के मध्य, केंद्र सरकार द्वारा जब तीन तीन अध्यादेश लाये गए , तो तभी से किसानों ने उनका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने इन कानूनों के प्रति कई प्रकार की आशंकाएं और संदेह व्यक्त किये जिनका समाधान किया जाना जरूरी था। लेकिन ऐसा करने में शायद सरकार को सफलता नहीं मिली और कृषकों का आंदोलन बढ़ता गया और कई राज्यों में फ़ैल गया।
किसी भी सरकार को जो भी कानूनी व्यवस्था करने की जरूरत महसूस हो तो उसके विषय में सभी पक्षों से सम्यक रूप से विचार विमर्श करना और लोगों की आशंकाओं को दूर करना उसकी संवैधानिक ही नहीं बल्कि नैतिक जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में जनहित के लिए ही कानून बनाये जाते हैं इस लिए कोई कानून जनहित ही में है इस को सिद्ध करने का दायित्व सरकार का ही है। सरकारों द्वारा मात्र यह कह देना कि यह कानून जनता के या किसानों के हित में हैं , काफी नहीं है , इससे बात बनाने वाली नहीं है। किसानों की बातों में भी काफी दम है , इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता और उनके मन में जो आशंकाएं है वह भी निर्मूल नहीं कही जा सकती। हमारा देश मुक्त बाजार वाद के रास्ते पर चले या न चले इस पर अभी तक कोई स्पष्ठ नीति तय कर पाने में सभी सरकारें विफल रहीं हैं इसी लिए हर सरकार एक कदम आगे तो दो कदम पीछे चलने की नीति इस मुद्दे को लेकर अपनाती रही हैं ।
किसी भी देश को अपनी आर्थिक नीति को निर्धारित करने से पहले अपनी सभ्यता , इतिहास , नैतिक मूल्यों , भूत और वर्त्तमान की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितिओं पर सम्यक रूप से विचार करते हुए सर्वमान्य रास्ते पर चलने का प्रयास करना चाहिए। किसी दूसरे देश की परिस्थितिओं से हमारी स्थितियां पूर्णतः भिन्न हैं इसलिए दूसरों द्वारा सुझाये गए रास्ते पर चलने से पहले हमे भली भांति सोच विचार कर लेना चाहिए। यही बात कृषि उत्पादों के बाजार में लागू होती हैं। हमारे देश की अधिकांश आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर हैं और उनमे से अधिकांश बहुत छोटे किसान हैं तो क्या ऐसी स्थिति में मुक्त बाजार व्यवस्था उनके हित में होगी , यही प्रश्न आज देश के सामने हैं। किसानों का मानना हैं कि लागू की जाने वाली व्यवस्था उनको नुक्सान पहुंचाएगी जबकि सरकार का मानना हैं कि इन सुधारों से किसानों को अपना माल बेहतर दरों पर बेचने का अवसर मिलेगा। परस्पर विरोधाभासी तर्कों और निष्कर्षों के बीच यह विवाद महीनों से अनिस्तारित पड़ा हुआ हैं जो किसी के भी हित में नहीं हैं।
ऐसा माना जा रहा हैं कि सरकार को यह लगता हैं कि अगर किसानों कि बात मान कर तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया गया तो सुधार कि प्रक्रिया रुक जायेगी और अर्थव्यवस्था में अन्य सुधारों को लागू किया जाना और भी मुश्किल हो जायेगा। इस बात में कितनी सच्चाई हैं यह तो भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन शास्वत सत्य तो यही हैं कि यदि किसी कार्य , कदम या सुधार के पीछे नीयत साफ़ हो तो उसे लागू करने में सरकारें अवश्य ही सफल होती हैं। रास्ता तो बस यही हैं कि या तो सरकार किसानों को अपनी बातों से संतुष्ट कर दे और ऐसा न हो पाने कि स्थिति में उन कानूनों को जिनका कि विरोध हो रहा हैं , उन्हे वापस लेकर तथा सभी सम्बंधित पक्षों के साथ सम्यक विचार विमर्श करके ऐसा नया कानून लाये जो सर्वमान्य हो एवं तार्किक रूप से पुष्ट हो। सरकार और किसानों , दोनों का ही हित इस मार्ग पर सुरक्षित रहे गा और यही मार्ग देश हित को भी सुरक्षित रख सकता हैं। इस विवाद को सुलझाने में होने वाला विलम्ब किसी के भी हित में नहीं हैं।

(विजय शंकर पांडेय पूर्व सचिव भारत सरकार हैं)

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