जब जनतंत्र को शासन प्रणाली के रूप में जनता ने स्वीकार किया है तब जनता को इस प्रणाली की वास्तविकता को नकारने से कोई लाभ नहीं होगा वरन प्रणाली के दोषों को प्रभावहीन करना होगा।स्पष्टतया,आज की राजनीति में केवल दो ही बिंदु पर केंद्रित रहना होगा और वह हैं,एक,ऐसे ही संदिग्ध,परंतु व्यवहार-कुशल,व्यक्ति से सही कार्य करवाना,तथा,दो,उसके ग़लत कार्यों की योजनाओं को सफल न होने देना।
प्रो. एच सी पांडे
मत बुरा उसको कहो,गरचे वह अच्छा भी नहीं। जब वह साथ नहीं हो,तो काम बनता ही नहीं,
गर वो हाथ बढ़ा दे,तो काम बिगड़ता भी नहीं।
आदमी वो अच्छा है,मगर इतना अच्छा भी नहीं।……….कलीम आजिज़ माफ़ करेंगे।
मानव जीवन में व्यक्तिगत समीकरण की सदैव ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है।सामंतवाद हो,तानाशाही हो अथवा जनतन्त्र,सभी में जान-पहचान का अपना विशेष प्रभाव है।क़ायदे,क़ानून,व्यक्ति-विशेष की पहुंच के अनुसार ही परिभाषित किये जाते हैं,लागू किये जाते हैं।संविधान में ऐसे भेद-भाव का कोई प्रावधान नहीं है परंतु यही धरातल की सच्चाई है।जनतंत्र में,चुने हुवे राजनेता की समझ,उसका आचरण,तथा,उसकी व्यवहार कुशलता ही,शासन-व्यवस्था को सफल,अथवा,असफल बनाती है।जनतंत्र में राजनेता ही जनप्रतिनिधि माना जाता है,और,वही शासन तथा जनता के बीच की कड़ी है। जनतांत्रिक प्रणाली में जन-प्रतिनिधि, जनतांत्रिक व्यवस्था का अनिवार्य अंग है।
जनतांत्रिक शासन व्यवस्था एक त्रुटि-रहित व्यवस्था तो नहीं है,परंतु,अन्य शासन-व्यवस्थायें उस से भी अधिक, त्रुटि-पूर्ण हैं।आज की जनता सजग है,और,अपने अधिकारों को जन्मसिद्ध मानती है,अत: अन्य किसी व्यवस्था को स्वेच्छा से स्वीकार ही नहीं करेगी।ऐसी परिस्थिति में यह स्पष्ट है कि किसी भी,स्वत्तंत्र समाज,में जनतंत्र का कोई भी विकल्प नहीं है,अत: जनता को राजनेता के माध्यम से ही राज करना है।हर राजनेता में अच्छा-बुराई दोनों ही समाहित हैं अत: केवल बुराई को ही देख कर,उसे अछूत मानकर, उसका निरंतर बहिष्कार करना संतुलित द्रष्टिकोण नहीं कहा जा सकता।उसकी बुराई सर्वथा अस्वीकार्य है,परंतु उसकी सही कार्य करने की योग्यता का उपयोग न करना उचित नहीं है।कलियुग में,द्विविधा स्पष्ट है:
अब रहीम मुसकिल पड़ी,गाढ़े दोउ काम,
साँचे से तो जग नहीं,झूठे मिले न राम।
प्रथम द्रष्टया लगता है कि कहॉं है समस्या,जनता को केवल चरित्रवान,कर्मठ तथा सज्जन को चुनना है,और कुछ नहीं करना।बस यहीं पर है,सब से बड़ी ग़लतफ़हमी।आज के युग में नैतिकता,स्वार्थ-शास्त्र,पर आधारित है।राजा हो,अथवा,रंक,शासक हो,अथवा,शासित सभी निजी स्वार्थ को युग धर्म मानते हैं।
आज जनता भोली-भाली नहीं रही है,उसे,देश के हित की समझ हो न हो,अपने हित की खासी समझ है।आज के युग में अपना स्वार्थ ही परमार्थ है अत: केवल परिणाम सर्वोपरि है,साधन के गुण-दोष पर विचार करना व्यर्थ है।जन-प्रतिनिधि की योग्यता उसकी कार्य-कुशलता पर है चाहे वह कितनी भी टेढ़ी-मेढ़ी हो।गाय का शुद्ध घी भी सीधी उँगली से नहीं निकलता,इस कारण जनता को अपने प्रतिनिधि से,सही कार्य के लिये भी,आदर्श नहीं ,वरन, चतुरता की अपेक्षा होती है।अंग्रेज़ी की कहावत है कि चोर को ही चोर के पीछे लगाना चाहिये अत: आज के उलझाये हुवे शासन-तंत्र में सुलझा हुवा जन-नेता समस्या तक नहीं समझ सकता,और,कहॉं शठता है,यह केवल दूसरा शठ ही जान सकता है।जनता अंतत: ऐसे ही व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनती है।जब गोचर भूमि में चारे के लिये मारा-मारी हो तो,स्वाभाविक है,कि ग्वाला सींग-रहित गाय को नही चुनता है।वैसे भी ध्यान रहे कि कलियुग में दूध के धुले नेता का चुनना भी कोई विशेष अर्थ नहीं रखता,क्योंकि आजकल दूध भी मिलावट का होता है।कभी-क़भार,कारण -अकारण जनता,धोके से किसी सज्जन को यदि चुन लेती है तो वह केवल अपवाद ही नहीं वरन असफल भी रहता है,
जब जनतंत्र को शासन प्रणाली के रूप में जनता ने स्वीकार किया है तब जनता को इस प्रणाली की वास्तविकता को नकारने से कोई लाभ नहीं होगा वरन प्रणाली के दोषों को प्रभावहीन करना होगा।स्पष्टतया,आज की राजनीति में केवल दो ही बिंदु पर केंद्रित रहना होगा और वह हैं,एक,ऐसे ही संदिग्ध,परंतु व्यवहार-कुशल,व्यक्ति से सही कार्य करवाना,तथा,दो,उसके ग़लत कार्यों की योजनाओं को सफल न होने देना।
(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)