मुजरिम कौन ?

प्रो. एच सी पांडे

मेरी बर्बादी में तू भी है,बराबर का शरीक,
मेरे क़िस्से,औरों को सुनाता क्या है।

हमारा सदियों पुराना रिवाज़ है कि हम,शासक व शासन-प्रशासन,के खोट निकालते रहें,उन पर लम्बे-चौड़े भाषण दें पर और कुछ न करें।दूसरों की बुराइयों को गिनाने में जो मज़ा है वह बुराइयों को दूर करने में थोड़े ही आता है।आज़ादी के बाद से लगातार हम हर राजनैतिक दल,हर शासक,और हर प्रशासन को कोसने से नहीं थकते पर उनके द्वारा किये गये भ्रष्ट कार्यकलापों की सज़ा दिलवाने में कोई भी गंभीर सक्रियता नहीं दिखाते,बस पानी पी-पी कर गाली दे कर,अपने कर्तव्य का पूर्ण निर्वाह समझ लेते हैं।हम मुँह चलाने में विश्व में अग्रणी हैं पर हाथ-पैर हिलाने में हमें लकवा मार जाता है।काम कोई दूसरा करे हमें तो परिणाम चाहिये।
छोटे-मोटे नहीं,अच्छे-खासे घपलों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है।हर घपले पर समाचार-पत्रों ने कड़ी टिप्पणी की है,टीवी पर नाटक-नौटंकी हुवी है,संसद में धुवाँधार भाषण हुवे हैं ओर सार्वजनिक मंचों से भर्त्सना की बारिश की गई है,परंतु किसी भी मामले को,इनमें से किसी भी बातों के शेर ने,सही तरीक़े से उठा कर आख़िरी पढाव तक ले जाने की ज़हमत नहीं उठाई।सन १९४८ में हुवे जीप घोटाले से देश में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों का अशुभारंभ हुवा।भारत सरकार द्वारा २००० जीप की आपूर्ति का ठेका एक ब्रिटिश कंपनी को दिया गया जिसकी शेयर कैपिटल मात्र ४० पाउंड थी।यह सब लंदन में स्थित भारत के हाई कमीशन की अनुशंसा पर किया गया था। उस समय ४० पाउंड में शायद एक जीप के टायर भर आते। संसद में,अंदर बाहर,दॉंये-बायें ख़ूब हो-हल्ला हुवा,जॉंच समिति बैठी,और,शायद बैठी ही रही, जिस से ज़रूरी काग़ज़ात इधर-उधर किये जा सकें और उच्च अधिकारियों की दायित्वहीनता उजागर न हो।लंदन में भारत के हाई कमिश्नर,उस समय,वी के कृष्णा मेनन थे।प्राय ६० वर्ष बाद,राजधानी दिल्ली में,२०१० मे हुवे कॉमनवेल्थ गेम्स में,अंतहीन घोटाले हुवे थे।उस में एक गेम्स की पब्लिसिटी से संबंधित था।लंदन में करोड़ों का ठेका एक ट्रान्सपोर्ट कंपनी को दिया जिसकी शेयर कैपिटल मात्र २ पाउंड थी और जिसकी अनुशंसा वहीं हाई कमीशन ने की थी।यह ग़ौर करने की बात है कि देश के सब से पुराने उच्चायोग में एक ही तरह का मामला दोबारा हुवा जिस से साफ़ ज़ाहिर है कि लापरवाही तथा ग़ैर-ज़िम्मेदारी वहॉं की कार्य शैली रही है।इस मामले का वही हुवा जो होता है……..कुछ नहीं हुवा। बस,कमो-बेश,यही आदि-अंत,सभी घपलों का होता है।
अब सवाल है यह क्यों होता है कि अच्छे-ख़ासे घोटालों में उच्च-स्तरीय,विस्तृत,जॉंच के बाद भी दोषियों का अता-पता नहीं चलता।वजह साफ़ है।जॉंच आयोग,सारे क़ानूनी दाँव-पेच से लैस होकर,अखाड़े में ताल ठोक कर,संभावित दोषियों पर हमला करता हैं,पर अभियुक्त राजनैतिक संरक्षण का तेल लगाकर,हर क़िस्म की गिरफ़्त से फिसल कर बाहर निकल जाता है।यह धारणा जनता के मन में घर कर गयी है कि गंभीरतम अपराध में भी,राजनैतिक संरक्षण,पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है।मिसालें बेशुमार हैं।बोफ़ोर्स मामले में,संसद के अंदर राजनेताऔं ने,और,संसद के बाहर समाचार माध्यम ने,जितने गोले दागे उतने तो बोफ़ोर्स ने कारगिल में भी नहीं दागे होंगे।ऐसी भयंकर गोलीबारी के बाद भी विन चड्डा देश छोड़ कर भाग गये और उनकी चड्डी तक हाथ न आई।क्वातरोची आराम से खिसक गये और कालांतर उनका फ़्रोज़न अकाउंट भी हवा हो गया।अपराधियों का राजनैतिक संरक्षण ,यही ज़मीनी हक़ीक़त है।
यह सब कैसे होता रहा है,क्यों होने दिया जा रहा है,और मुजरिम कौन है,यह बुनियादी सवाल है।जवाब साफ है।आप और मैं ही मुजरिम हैं! अनैतिक राजनैतिक दलों को हम ही समर्थन देते हैं,अपराधियों को राजनेता बना देते हैं,और उनको ही चुन कर विधान सभा व संसद में भेज देते हैं।यही नहीं,हम उनके द्वारा की जा रही बर्बादी का बखान ज़रूर करते हैं,उन पर अपशब्दों की बौछार कर देते हैं,पर सक्रिय विरोध नहीं करते।हम बस इतना कहते रहते हें कि देखो देश पर डाका पड़ रहा है,डाकुओं को पकड़ो,पकड़ो।हमने ही डाकू पकड़ने है,दूसरे तो केवल तमाशा देखना चाहेंगे।अगर हमने डाकू को पकड़ लिया तो वह पलट के कहेगा श्रीमन,आपने शुरू से मेरी छोटी चोरियों नज़रअंदाज़ करके,मुझे सज़ा न देकर,मेरी हौसला-अफ़्जाई की और मुझे डाकू बनने दिया। मेरे सारे अपराधों में आपकी ही ज़िम्मेदारी है,मैं दोषी नहीं हूँ।मुजरिम कौन है क्या यह फिर बताने की ज़रूरत है?

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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