राजनीति का कलियुग

प्रो. एच सी पांडे

जब समाज ऐसे स्तर पर पहुँचता है,जहां ज़मीन-जायदाद,प्रतिष्ठा निश्चित करे,सद्गुणों का आधार,केवल सम्पत्ति हो,दाम्पत्य-सूत्र,केवल वासना हो,जीवन में सफलता का आधार,केवल फ़रेब हो,विषय-भोग ही,केवल आनंद का साधन हो,आडम्बर,तथा,वास्तविक धर्म में भ्रम हो, तब हम कलियुग में आ गये हैं,अंधकार काल।
— विष्णु पुराण।

जब जनतंत्र ऐसी स्थिति में आजाता है कि जनता के प्रतिनिधि की पात्रता,उसकी संपन्नता निश्चित करे,उसके चयन का आधार धन-बल हो,सत्तासीन होना ही राजनैतिक दल,तथा,प्रतिनिधि का एकमात्र ध्येय हो,राजनैतिक जीवन में सफलता मिथ्यात्व पर आधारित हो,केवल सत्ता-सुख भोग ही संतुष्टि का साधन हो,राजनैतिक विचारधारा,तथा,राजनैतिक आडम्बर में अंतर न लगे,तब हम अनैतिक काल में आ गये है,धृतराष्ट्र युग।
—आधुनिक स्थिति

सन १९७० में,बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन उबल रहा था और कलकत्ता नगर में अव्यवस्था का अंत नहीं था।उस समय हावड़ा स्टेशन में,एक वृद्ध टैक्सी ड्राइवर से जब पूछा की बताइये क्या किया जा सकता है ,तो उसका उत्तर था ‘सा’ब जी,आसमान फट रहा है आप कहाँ,कहॉं,सियोगे’।अर्ध-शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है,और,देश की समस्याओं के आकाश में,रफू का,अंतहीन,काम चल रहा है।सच यह है कि समस्याएँ अंतहीन नहीं हैं बल्कि देश के राजनैतिक दलों की नासमझी,उनका स्वार्थ,अंतहीन है।
जनतांत्रिक शासन प्रणाली के दो ध्रुव,सत्तासीन दल,व,सत्ताहीन दल होते है,और,प्रणाली के सफल संचालन के लिये,पक्ष तथा विपक्ष,दोनों का सकारात्मक सहयोग नितांत आवश्यक है।विपक्ष का कर्तव्य है कि शासन द्वारा प्रस्तावित नीतियों तथा योजनाओं की कमियों इंगित करें तथा सुधार के सुझाव दे,और सरकार का काम है,कि वह सकारात्मक सुझावों को समझें तथा कार्यान्वित कर।सत्ताहीन दलों द्वारा,केवल विरोध ,तथा,सदन में कार्यवाही का अवरोध,नकारात्मक क्रिया है।जनतांत्रिक शासन में,यदि पक्ष-विपक्ष का वांछित सहयोग न हुआ तो सारी प्रणाली अर्थहीन तथा असफल रहती है,और,सुशासन कभी भी संभव नहीं होता।

यह देश की त्रासदी है कि जनतांत्रिक शासन प्रणाली का,वास्तविक व्यवहारिक रूप,स्वरूप,राजनैतिक दल न समझ पाये हैं,न समझना चाहते हैं।संभवत: सारे राजनैतिक दल समझ के भी नासमझ बने हुए हैं ताकि उनकी स्वार्थ सिद्धि में,सही समझ,बाधा न बन सके।कहने को हर राजनैतिक दल की विशिष्ट विचार-धारा है, अपनी आस्था और अपना विश्वास है,परंतु सच यह है कि सबकी विचार-धारा,आस्था,तथा विश्वास केवल एक ही शब्द में समाहित है,वह है,सत्तासीन होना।ऐसी राजनीति में सकारात्मक,देशहित का सोच बहुत कठिनाई से उपजता है और यदि उपजा तो उसका पोषण आसान नहीं होता।

जब सत्ता-स्वार्थ ही राजनैतिक दल की आधारशिला हो,तब सत्तासीन दल के लिये,अथवा,सत्ताहीन दल के लिये,देश का हित नहीं,अपने दल का हित सर्वोपरि होता है अत: उनकी बला से किसी भी नीति अथवा कार्यक्रम से देश की हानि हो तो कोई बात नहीं पर अपने को व अपने दल को लाभ होना चाहिये।मुट्ठी भर अपवाद छोड़ कर,आज के राजनेता को सत्ता का सकारात्मक उपयोग की नहीं,वरन,नकारात्मक उपभोग ही की समझ है।आज के समय यह आम अवधारणा है कि देश के सत्ताहीन राजनैतिक दल,अपने अस्तित्व को,देश में समस्याओं के विद्यमान होने पर ही टिका समझते है।यदि समस्या सुलझती दिखे तो उसको उलझाना सत्ताहीन दल के लिये ज़रूरी है।उनकी समझ में यदि समस्या ही न रही तो उनकी पूछ कहाँ है।कई वर्ष पहले एक जाने-माने उद्योगपति का मानना था कि देश की विकास गति में,सबसे बड़ी बाधा
राजनेता-उद्योगपति-प्रशासन की तिकड़ी है।राजनेता को समस्या,उद्योगपति को बाज़ार में माल की कमी तथा प्रशासक को अपूर्ण व्यवस्था,अस्तित्व में रखती है।इस पर एक समकक्ष उद्योगपति ने उनसे कहा कि मज़दूर नेता भी कहाँ समस्याओं का समाधान चाहते हैं उनको भी ज़िन्दा रहना है ।यदि यह सब सही हो जायेगा तो जनता में इनकी पैठ,तथा,इनकी रोज़ी-रोटी,सब संकट में पड़ जायेंगीं।
देश का सब से बड़ा संकट यह है कि केवल यह तिकड़ी,या,चौकड़ी ही समस्या नहीं है।यदि इतना ही होता तो समाधान की कुछ उम्मीद तो रहती।वास्तविकता यह है कि सारी प्रजा छोटे-बड़े समूहों में बंट गयी है और हर झुंड के अपने नेता हैं।ज़ाहिर है कि हर एक की नज़र अपने स्वार्थ तक सीमित है,देश की ओर कोई देखता ही नहीं।यही है अंधा-युग।
उन वृद्ध सरदार जी का कथन सही था…….कहाँ-कहाँ सिया जा सकता है?

किस रावण की भुजा उखाड़ूँ,किस लंका को आग लगाऊँ,
घर-घर रावण,पग-पग लंका ,इतने राम कहाँ से लाऊँ ।

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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