जनतंत्र स्वचलित नहीं है,जिसे तंत्र नहीं,आम जन को चलाना है

देश का युवावर्ग,आज़ादी के आठवें दशक में,दिग्भ्रमित हो गया है।एक तरफ़ घोर नैराश्य तथा यह मान लेना कि कुछ भी संभव नहीं है,अत:,दम मारो दम।दूसरी ओर गहराता क्षोभ व भड़कता क्रोध,तथा यह मान लेना कि सशस्त्र क्रान्ति ही एक उपाय है,अत:,बम मारो बम।दोनों ही निष्कर्ष,आज की परिस्थिति के आलोक में व्यर्थ हैं,महत्वहीन हैं।आज ज्ञान,विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के युग में हर समस्या का निदान संभव है इसलिये निराश होकर प्रयत्न न करना,केवल परिश्रम न करने का बहाना है

प्रो. एच सी पांडे

सदियों से,विकास से वंचित देश,तथा,उपेक्षित जनता,आज़ादी मिलने पर यह समझ बैठी थी कि विकास अब अपने आप ही विकसित होगा,जनता को स्वयं कुछ करने की ज़रूरत नहीं है।राजनैतिक दलों ने समझ लिया है कि उनका काम केवल भीड़ इकट्ठा कर के नारे लगवाना ही है,तथा,राजनेता नित नये नारे गढ़ना ही अपना मुख्य कार्य समझ बैठे हैं। ‘आराम हराम है’ के नारे अवश्य लगाये गये पर आज ‘हराम में आराम है’ जीवन का मूल-मंत्र हो गया है।
यह राजनेताऔं की नासमझी थी अथवा सोची समझी चाल,कि जन-तंत्र में,जन की उपेक्षा कर के,तंत्र को महत्ता दी गई।सरकार ने,माई-बाप की मानसिकता को,जो पराधीन काल में विकसित हुवी थी,और पोषित किया।राजनेता तथा अधिकारी की महत्ता बढ़ी तथा उन्हें हर समस्या का निदान समझा गया।इस का विशेष दुष्परिणाम यह हुवा कि जन-साधारण ने समझा,कि उसका काम केवल माँगना है,सारा काम तो सरकार को करना है।इस सोच को नकारने का प्रयत्न, वर्ग-विशेष ने,संभवत:अपने अहमवश,नहीं किया,क्योंकि कोई सदैव उनसे माँगता रहे,इस में ही उन्होंने अपनी शान समझी तथा सत्ता में पकड़ का साधन समझा।विशाल देश की,विशाल समस्यायें, बिना जन-भागेदारी के सुलझ नहीं सकती।भागेदारी केवल कार्यावन स्तर ही नहीं पर नेत्रत्व स्तर पर भी।सच यह है कि,जनतंत्र में सरकार तो एक व्यवस्था है,जिसका सक्रिय तत्व जनता स्वयं है।जनता स्वयं ही स्वामी है और स्वयं ही सेवक है।तात्पर्य यह है कि जनता को,अपने ही बल-बूते पर,अपने ही श्रम से,देश की समस्याओं का निराकरण करना है।
देश का युवावर्ग,आज़ादी के आठवें दशक में,दिग्भ्रमित हो गया है।एक तरफ़ घोर नैराश्य तथा यह मान लेना कि कुछ भी संभव नहीं है,अत:,दम मारो दम।दूसरी ओर गहराता क्षोभ व भड़कता क्रोध,तथा यह मान लेना कि सशस्त्र क्रान्ति ही एक उपाय है,अत:,बम मारो बम।दोनों ही निष्कर्ष,आज की परिस्थिति के आलोक में व्यर्थ हैं,महत्वहीन हैं।आज ज्ञान,विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के युग में हर समस्या का निदान संभव है इसलिये निराश होकर प्रयत्न न करना,केवल परिश्रम न करने का बहाना है अथवा पराजयवादी मानसिकता है।देश की सभ्यता,संस्कृति व इतिहास की हज़ारों वर्ष की अविच्छिन्नता के कारण,हर स्तर पर,हर प्रकार की रीतियाँ-कुरीतियाँ जमा होती रही और विविधता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भरमार रही।इसे विशेषता कहा जाय या विचित्रता,समाज में टूटने-जुड़ने की क्रिया अनवरत रही है,अत:,किसी भी प्रकार की संगठित क्रान्ति का विचार भर तक देश की मौलिक विचार-धारा के विपरीत है।सदियों से पनपते,अनगिनित,छोटे,बड़े,निहित-स्वार्थ समूह,संपूर्ण क्रान्ति को असंभव बना चुके हैं।हॉं,आंदोलन के रूप में,इधर-उधर उवद्रव अवश्य किये जा सकते हैं।कतिपय भवन तोड़े जाते है,कुछ गाड़ियां जलती हैं तथा कुछ निर्दोष मारे जाते हैं तथा आंदोलन का अंत हो जाता है।यही वास्तविकता है जिसे स्वीकारना चाहिये और मानना चाहिये कि इस देश के लिये सबल,सक्रिय,जंनत्रांतिक व्यवस्था ही विकास का एकमात्र राजपथ है।
युवा वर्ग का दोष नहीं है उनको,यह समझाने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया,कि देश को आज़ाद कराना तो लड़ाई का आग़ाज़ था क्योंकि असली लड़ाई तो आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से करनी है,जो अनुशासन तथा कड़ी मेहनत द्वारा ही संभव है तथा वह लड़ाई युवा वर्ग को ही करनी है।इतना ही नहीं,वांछित लड़ाई,कई दशकों तक करते रहनी होगी और उस दौरान अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं,आकांक्षाऔं,पर लगाम लगानी होगी,यह भी,युवा वर्ग को स्पष्ट नहीं किया गया।विकास-युद्ध में,वीरता से मरना नहीं,वरन वीरता से लड़ते रहना ही आवश्यक है क्योंकि यह युद्ध दशकों तक चलेगा।अनुशासन व धैर्य सर्वोपरि हैं।सदियों से जमा होती रही समस्याओं का कोई जादुई हल नहीं है।
समय में बहुत बदलाव आ चुका है,सारे वातावरण में उपभोगवाद व्याप्त है,तथा,आध्यात्मवाद,वातानुकूलित गोल-कमरों में प्रवचन मात्र रह गया है।जीवन निर्वाह हेतु उपलब्ध सुविधाओं तथा साधनों का उपभोग सर्वथा उचित है परंतु यह समझना भी आवश्यक है कि यह साधन/सुविधायें मानव के निरंतर परिश्रम द्वारा ही उपलब्ध हुवी हैं,आसमान से नहीं उतरी है। सुविधा एवं साधन उपहार में नहीं मिलते,इनका सृजन करना होता है।समाज को,आज की सीमित उपलब्धियों का उपभोग,कल के विकसित समाज को ध्यान में रख कर,प्राथमिकताओं के आधार पर करना है।युवा-वर्ग को यह सब समझने के लिये,व्यक्ति,तंत्र,तथा कार्यशैली के जीते-जागते आदर्श चाहिये।विशाल चीन,लघु वियतनाम तथा अति-लघु सिंगापुर इसके उदाहरण हैं।माओ-त्से-तुंग,हो-चीं-मिन तथा ली-क्वान यू का सरल व्यक्तिगत जीवन,सरकारी तंत्र की आडंबर रहित कार्य शैली तथा राजनैतिक दल का अनुशासित आचरण वहाँ के युवा वर्ग का मुख्य प्रेरणा श्रोत रहा।स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमने राजशाही के तौर-तरीक़े अपनाये अत: देश के विकास तथा सामाजिक उत्थान हेतु,त्याग,कठिन परिश्रम,समर्पित जीवन की अनिवार्यता का संदेश/संकेत,युवा वर्ग को कहीं नहीं मिला उलटे उनके यह समझ में आया,कि उपलब्ध संसाधनों द्वारा अपने लिये सुख-संपत्ति उपार्जित करना ही जीवन का ध्येय है।प्राथमिकताऔं के अनुसार,संसाधनों के न्यायोचित दोहन के साथ साथ,संसाधनों की उत्तरोत्तर वृद्धि हेतु अनवरत श्रम की आवश्यकता,युवावर्ग को समझाई ही नहीं गयी।
देश के अग्रज तथा शासन/प्रशासन द्वारा,उच्च विचार,सरल जीवन और न्यायोचित व्यवस्था,प्रत्यक्ष रूप में अपनाने पर ही,युवाशक्ति प्रज्ज्वलित होकर विकास-यज्ञ में पूर्ण सहभागी बनेगी।अन्यथा देश का युवा दम या बम की ही सोचता रहेगा।

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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