News Updates

(Update 12 minutes ago)

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाना हानिकाकरक

ईमानदार और सैद्धांतिक शासन ही बेहतर भविष्य की ओर ले जाएगा ना कि हमारे अतीत का पुनर्लेखन ।हम आज जो बोएंगे, वही भविष्य में काटेंगे। अतीत में हमारे इतिहास की पुस्तकों में की गई विकृतियां वर्तमान में विकृतियों को न्यायोचित या दोषमुक्त नहीं करती हैं। अतीत में घटी घटनाओं को सच्चाई से दर्ज करने और उनसे सीखे गए सही पाठों को रिकॉर्ड करने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए।

डॉ. स्मिता पाण्डेय, विजय शंकर पाण्डेय

इतिहास के पुनर्लेखन की होड़ हमारे समय का एक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा और यह भी साफ़ है कि यह किसी भी तरह से राष्ट्र के हित में नहीं है। सच्चे इतिहास को नज़रअंदाज करना और अपने राजनीतिक स्वार्थ के संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों और एजेंडे को पूरा करने के लिए इसे तोड़-मरोड़ कर पेश करना हमारे देश के लिए हानिकारक है। हमें अपने पथभ्रष्ट पड़ोसी के उदाहरण से सीख लेने की जरूरत है जहां शासन के हर बदलाव के साथ इतिहास को फिर से लिखने की परंपरा है।
प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक, उद्यमी, प्रकाशक और व्याख्याता मार्क ट्वेन ने लगभग 200 वर्ष पूर्व लिखा था कि इतिहास जिस स्याही से लिखा जाता है वह केवल तरल पूर्वाग्रह है। आज के युग में मार्क ट्वेन का यह कथन अधिक प्रासंगिक हो गया है। इतिहासकार भी मनुष्य होते हैं और अन्य की तरह वह भी पूर्वाग्रहों से पीड़ित होते हैं। मनुष्य केवल पक्षपाती ही नहीं बल्कि प्रायः असत्य भी होता है। तो हम इतिहासकारों से सुपर ह्यूमन होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि सभी इतिहासकार पूर्वाग्रहों से पूरी तरह मुक्त और मूल रूप से सत्यवादी होंगे । ऐसा मानना ही उनके साथ अन्याय करने जैसा होगा ।इसलिए यह अंतर्निहित मानवीय कमजोरी एक दृष्टि से इतिहास के लेखन की ओर ले जाती है।यद्यपि मानवता सत्य को प्राप्त करने के लिए सदा से आकांक्षी रही है, लेकिन उसके वास्तविक कदम तो सदियों से असत्य की ओर ही बढ़ते रहे हैं ।
इतिहास का प्रत्येक छात्र इस मूल सोंच के साथ अपना अध्ययन शुरू करता है कि इतिहास अतीत का अध्ययन है जो हमें अपने वर्तमान को समझने में मदद करता है और हमें अपना भविष्य बनाने में सक्षम बनाता है। इतिहास, एक अनुशासन के रूप में, केवल तभी प्रासंगिक है जब यह मानवता को अतीत में की गई गलतियों को न दोहराने में मदद करता है और बेहतर समाज, राष्ट्र और एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए अतीत के ज्ञान और अनुभवों के आधार पर भविष्य निर्माण में मदद करता है। जब हमारे पास अशोक और अकबर जैसे महान शासक होते हैं, तो राष्ट्र विशाल प्रगति करता है और न्याय, सहिष्णुता, नैतिकता और करुणा शासन को परिभाषित करती है। भारत सदियों से एक समृद्ध राष्ट्र रहा था और विश्व मंच पर वह अतीत में एक आर्थिक महाशक्ति बन गया था ।ऐसा कहा जाता था कि दुनिया का सारा सोना भारत में ही आ कर समा गया। ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन ने अनुमान लगाया था कि 1700 ईस्वी में भारत की जीडीपी विश्व अर्थव्यवस्था का लगभग 27 प्रतिशत थी और 1950 में भयानक रूप से घटकर तीन प्रतिशत रह गई थी।

साम्राज्यवादी इतिहासलेखन इसके विपरीत चित्रण करता है, उसके अनुसार भारतीय गरीब जंगली थे जिनके जीवन को प्रबुद्ध ब्रिटिश शासन द्वारा सुधारा गया। अब प्रचारक ’गोरा अंग्रेज’ नहीं बल्कि हमारे अपने ’धरतीपुत्र’ नेता हैं-जो अपने स्वयं के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं, जबकि देश अविकसितता में डूबा हुआ है। गरीबी हटाओ और सामाजिक न्याय के नारे मूलतः जनता को भ्रमित करने के लिए केवल नारे बनकर रह गए हैं। इस सच्चाई को छिपाने के लिए इतिहास को फिर से लिखना होगा।
अधिकांश लोकतंत्रों में, राजनेताओं में अपेक्षित नैतिकता और सदाचार की कमी होती है और उन्हें अपनी राजनीतिक पकड़ को मजबूत करने और अपने शासन को बनाए रखने के लिए मैकियावेलियन उपकरणों का उपयोग करना पड़ता है। इस आधिपत्य कथा को बनाने के लिए इतिहास एक महत्वपूर्ण और प्रभावी उपकरण है।
ऐसा पहले भी हमारे सहित अन्य देश में हुआ है। आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में वामपंथी झुकाव वाले इतिहासकारों का बोलबाला रहा और उन्होंने उस मौके का इस्तेमाल एक पक्षपाती इतिहास रचने में किया। कई प्रमुख विश्वविद्यालयों और संबंधित संस्थानों में इतिहास विभागों पर उनकी मजबूत पकड़ ने अधिक तथ्यात्मक ऐतिहासिक आख्यानों के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा। अब, राजनीतिक सत्ता समीकरणों में बदलाव के साथ, इतिहासकारों का एक नया समूह, वैचारिक रूप से दक्षिणपंथी लोगों का बोलबाला है। इसलिए उनके हिंदूकृत इतिहास के संस्करण को प्रस्तुत करने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। पहरेदारी में इस परिवर्तन से इतिहास ’सही’ होगा या नहीं, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर भविष्य ही देगा।
विचार प्रक्रिया, पृष्ठभूमि, विचारधारा और जीवन के अनुभव को यदि लिया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अलग है, इसलिए वह किसी घटित घटनाओं के बारे में अलग-अलग राय बनाने के लिए बाध्य है जो अतीत में हुई थीं या वर्तमान में हो रही हैं। तदनुसार वह घटनाओं के बारे में अपने व्यक्तिपरक विचारों को ही दर्ज करेगा। सच कौन और झूठ क्या है, यह बहस का मुद्दा बन जाता है। एक विशेष समुदाय व राष्ट्रीयता के लोगों के द्वारा उनके समुदाय/राष्ट्रीयता के नेता के शासन को जहां एक स्वर्ण काल करार दिया जाता है वहीं अन्य के लिए ऐसा नहीं है। यूरोप के सभ्यता मिशन की सराहना करने वाले और भूरे आदमी का बोझ ढोने वाले ’साम्राज्यवादी’ इतिहासकारो के द्वारा गढ़े गये इतिहास का खंडन बाद में किया गया और ऐसे इतिहासकारों ने उपनिवेशवाद की क्रूरता और शोषण का खुलासा किया। वर्तमान में भी, महाशक्तिशाली राष्ट्र अपने नापाक एजेंडे को पूरा करने के लिए अन्य देशों पर आक्रमण करते हैं और खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनका कदम सिर्फ़ लोकतंत्र को बहाल करने के लिए है।
आजादी के बाद इतिहास को नए सिरे से लिखना पड़ा। लगभग 200 वर्षों के ब्रिटिश शासन के बाद यह आवश्यक था जिसने अपने साम्राज्यवादी एजेंडे का प्रचार किया था। लेकिन आजादी के बाद, चुनाव के बाद हर सरकार बदलने के बाद इतिहास का संशोधन किया जाना क्या यह जरूरी है, यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर हम देशवासियों को जल्द से जल्द खोजना होगा । एनसीईआरटी के इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के पुनर्लेखन का वर्तमान प्रकरण आश्चर्यजनक नहीं है। दशकों से हमारे देश में इसे आदर्श बना दिया गया है। जब वामपंथी इतिहासकारों ने अपने आख्यान के अनुसार इतिहास लिखा, तो उस समय कुछ ही दक्षिणपंथी इतिहासकार थे जो उनकी विकृतियों को चुनौती देने की ताकत रखते थे। हमारे इतिहासकारों ने संविधान सभा में वामपंथी नेताओं द्वारा की गई मांग का कभी जिक्र क्यों नहीं किया , इसका उत्तर भी उन सभी को देना चाहिए ।25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ’कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है।’ वे संविधान की निंदा करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। उन्होंने जनवादी गणराज्य के स्थान पर सर्वहारा अधिनायकत्व की माँग की! हमारी कोई भी राजनीतिक पार्टी झूठा बयान लिखकर अपनी नैतिक कमी को पूरा नहीं कर सकती है।
अंततः ईमानदार और सैद्धांतिक शासन ही बेहतर भविष्य की ओर ले जाएगा ना कि हमारे अतीत का पुनर्लेखन ।हम आज जो बोएंगे, वही भविष्य में काटेंगे। अतीत में हमारे इतिहास की पुस्तकों में की गई विकृतियां वर्तमान में विकृतियों को न्यायोचित या दोषमुक्त नहीं करती हैं। अतीत में घटी घटनाओं को सच्चाई से दर्ज करने और उनसे सीखे गए सही पाठों को रिकॉर्ड करने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए।
इतिहास को हमारे निर्वाचित लोकतंत्र के विजेताओं द्वारा निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। इतिहास के साथ अनावश्यक जोड़ तोड़ करने के बजाय हमारे शासकों को महात्मा गांधी द्वारा दी गई सीख पर ध्यान देना चाहिए कि सिर्फ़ सदाचार ही नेताओं और राष्ट्र को परिभाषित करना चाहिए और फलस्वरूप उनका इतिहास महान होना चाहिए। तब हमारी संस्कृति का मिला-जुला इतिहास, उसका समकालिक लोकाचार, अनेकता में उसकी एकता मुख्य रूप से प्रबल होगी और इतिहास-लेखन का प्रचार-प्रसार और संशोधनवाद अनावश्यक हो जाएगा।

(डॉ. स्मिता पाण्डेय ऐतिहासिक और सामाजिक मुद्दों की जानी-मानी लेखिका हैं, विजय शंकर पाण्डेय भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

Share via

Get Newsletter

Most Shared

Advertisement