कर्नाटक चुनाव के केन्द्र में जाति, धर्म, मुफ्तखोरी

चुनाव लड़ने वाले दलों के चल रहे चुनाव प्रचार में आज और अब भी जाति, धर्म और मुफ्तखोरी ही मुख्य आधार बना हुआ है। अपने घोषणापत्रों में उल्लिखित नीतियों और कार्यक्रमों पर बहस करने और मैदान में उतरी पार्टियों के पिछले प्रदर्शन या गैर-प्रदर्शन पर बहस करने के बजाय, हर पार्टी और उसके नेता एक दूसरे को काला सिद्ध करने की कोशिश करने में जुटे है। कुछ समय बाद, इस तथाकथित ’लोकतंत्र के नृत्य’ से एक विजेता उभरेगा।

विजय शंकर पाण्डेय

कर्नाटक में आज चुनाव का समय है। सभी पार्टियां यहां लगभग विस्फोट के बराबर शोर मचाते हुए अपने-अपने चुनाव प्रचार में लगी हुई हैं। यह एक ऐसा राज्य है, जिसमें कुछ समय को छोड़कर सबसे ज्यादा समय तक देश की सबसे पुरानी पार्टी का शासन था। हालांकि देर से ही सही, दूसरे दलों ने भी इस राज्य में राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त किया और सत्ता पर कब्जा करने में सफल रहे। आगामी चुनावों में सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार अब विभिन्न जातियों के नेताओं को रिझाने में लगे हुए हैं और कोशिश में हैं कि इस के चलते कुछ अतिरिक्त वोट मिल सके । आज सभी राजनीतिक दल चुनावी जीत हासिल करने के लिए किसी भी प्रकार के हथकंडे को आजमाने की होड़ में शामिल हैं। पिछले कई दिनों से हमारे हिन्दू समाज के पूज्य देव हनुमान जी का नाम चुनाव प्रचार में मुख्य स्थान ले चुका है। इसकी शुरुआत देश की सबसे पुरानी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में एक हिन्दूवादी संगठन पर प्रतिबंध लगाने के संकल्प के साथ हुई। उक्त संगठन ने अपने नाम में ’बजरंग’ शब्द को जोड़ रखा है। प्रतिबंध की माँग को एक श्रद्धेय भगवान का अपमान करने के आरोपों के साथ जोड़ कर विरोध की एक लहर बहने लगी है। यह प्रकरण, अतीत की कई घटनाओं की तरह हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति पर सवाल उठाता है।
यह विडंबना है कि एक पार्टी, जिसने दशकों तक कर्नाटक पर शासन किया है उसके पास भारत के उस हिस्से में एक कम प्रभाव वाले संगठन पर प्रतिबंध लगाने के अलावा देने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। इस पार्टी को आधी सदी से भी अधिक समय तक भारत पर शासन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और न केवल कर्नाटक राज्य बल्कि हमारे महान राष्ट्र का चेहरा बदलने का अवसर और अधिकार भी दशकों तक उनके पास था। तार्किक रूप से उन्हें अपनी उपलब्धियों की सूची प्रचारित करने के लिए जनता के पास जाना चाहिए था लेकिन इसके बजाय वे अन्य सभी राजनीतिक दलों की तरह उसी पुराने जातिगत समीकरणों का सहारा ले रहे हैं और उसी घातक सांप्रदायिक कार्ड खेलने के अशांत भंवर में फंस गए हैं। इसी तरह, लगभग एक दशक से केंद्र में शासन कर रही पार्टी को चुनाव जीतने के लिए देवताओं का सहारा लेना पड़ रहा है। वर्तमान में कर्नाटक में जो हो रहा है, वही भारत के अन्य हिस्सों में भी हो रहा है, चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद।
अहम सवाल यह नहीं है कि कौन सी पार्टी कर्नाटक या कहीं और या केंद्र में चुनाव जीतेगी। प्रसिद्ध अमेरिकी राजनीतिक विचारक नोम चॉम्स्की का कहना है कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन शासन करता है लेकिन नागरिकों द्वारा पूछा जाने वाला महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हम पर शासन करने वाले सिद्धांत और मूल्य क्या हैं? यह वह सवाल है जो भारत और हर दूसरे देश के नागरिकों के मन में सबसे पहले होना चाहिए, जो स्वतंत्रता, विशेषाधिकार और समान अवसर की एक असामान्य विरासत का आनंद लेते हैं ।

चुनाव लड़ने वाले दलों के चल रहे चुनाव प्रचार में आज और अब भी जाति, धर्म और मुफ्तखोरी ही मुख्य आधार बना हुआ है। अपने घोषणापत्रों में उल्लिखित नीतियों और कार्यक्रमों पर बहस करने और मैदान में उतरी पार्टियों के पिछले प्रदर्शन या गैर-प्रदर्शन पर बहस करने के बजाय, हर पार्टी और उसके नेता एक दूसरे को काला सिद्ध करने की कोशिश करने में जुटे है। कुछ समय बाद, इस तथाकथित ’लोकतंत्र के नृत्य’ से एक विजेता उभरेगा। लेकिन उन मतदाताओं का क्या जो हमेशा की तरह मूक और उपेक्षित बने रहेंगे? 75 साल के स्वशासन के बाद भी हर जाति-धर्म का शासक वर्ग हमारे लाखों लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बजाय अपने ही लालच को पूरा करने में लगा हुआ है। हमारे लोगों को बार-बार अभाव, भेदभाव, अज्ञानता और अन्याय से रहित, सभ्य जीवन जीने में सक्षम बनाने के लिए शिक्षित और कुशल बनाने में हमारी सरकारों की दुखद विफलता से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता है। हम सभी चुनावों के हो-हल्ले में यह भूल जाते हैं कि चुनाव की यह लोकतांत्रिक कवायद लोगों के कल्याण के लिए है न कि किसी नेता या पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए। भारी मात्रा में जमा किया गया कालाधन, रिश्वतखोरी और कमीशन से कमाई हुई रकम चुनावों में खर्च करके ऐसा शोर मचाया जाता है ताकि लोग नेताओं के चरित्र और ईमानदारी का आकलन किए बिना ही उसे वोट देकर जिता दें। भोले-भाले लोगों का नेतृत्व करने के इच्छुक इन अयोग्य प्रतिनिधियों के कौशल, अनुभव या क्षमताओं के बारे में कभी कोई बहस या चर्चा नहीं होती है। बल्कि हमेशा की तरह उनकी जाति, उनके रसूख/बाहुबल, पैसे की ताकत और उनके राजनीतिक संबंधों को लेकर ही चर्चा होती है। यह सब कब तक चलने दिया जाए, यह लोगों को सोचने की जरूरत है। कोई भी देश या समाज सत्तारूढ़ व्यवस्था में शामिल समावेशी विचार प्रक्रिया के बिना समृद्ध नहीं हो सकता है।
दशकों से राजनीति में सक्रिय राजनेता काले धन की ताकत के साथ आज भी वही पुराने जाति, धर्म के धूर्त औजार उपयोग कर रहे हैं। इस शक्तिशाली कॉकटेल ने गरीबों के दुख को बढ़ाने की कीमत पर बहुत लंबे समय तक राजनीतिक वर्ग के हितों की सेवा की है। जैसा कि जॉन स्टुअर्ट मिल ने ठीक ही कहा था कि ’राज्य का मूल्य, अंत में, इसे बनाने वाले व्यक्तियों का मूल्य है।’

(विजय शंकर पाण्डेय,पूर्व सचिव भारत सरकार)

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