ग़रीबों को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं को अत्यधिक नुकसान पहुंचा रहा निजी चिकित्सा क्षेत्र

उत्तर प्रदेश राज्य में काम करने के दौरान, मैंने सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके निर्मित किए गये मेडिकल कॉलेजों को खाली पड़े देख और इन मेडिकल कॉलेज भवनों के निर्माण के उपरांत वह आवारा कुत्तों और अन्य अतिक्रमणकारियों की शरणस्थली बन गए थे। जब इन संस्थानों को चलाने के लिए जिम्मेदार लोगों से पूछा गया तो उन्होंने बहुत ही सरल स्पष्टीकरण दिया कि डॉक्टरों, नर्सों, एमडी, एमएस डिग्री धारकों की भारी कमी है! सवाल यह है कि चिकित्सा संस्थानों की स्थापना का निर्णय लेने वाले लोग वर्षों से चिकित्सा क्षेत्र में जनशक्ति की कमी पर ध्यान देने और उसे दूर करने में लगातार विफल क्यों रहे हैं। उन्होंने स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं करने का विकल्प क्यों चुना? दशकों से, चिकित्सा शिक्षा प्रणाली, निजी हाथों में रह कर अत्यधिक धन उगाही का स्रोत बनी रही है।

विजय शंकर पांडेय

चिकित्सा सुविधाओं और सेवाओं का औद्योगिकीकरण भारत में कहर बरपा रहा है लेकिन केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारें असहाय जनता के घोर शोषण की उपेक्षा कर रही हैं। जैसा कि हमारी कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बढ़ती आबादी के भार के नीचे पिस रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि सभी राज्यों और केंद्र की सरकारों ने सबसे आसान तरीका कि ’कमरे में हाथी को जानबूझकर अनदेखा करना’ का विकल्प चुन लिया है। हाल के दिनों में तमाम राज्यों में एम्स और हर जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने को लेकर घोषणाओं की बाढ़ सी आ गई है। सरकारें इन नये निर्माण कार्यों के लिए आवश्यक धन तो आवंटित करती रही है और कई तो पूरे भी हो चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इन परियोजनाओं में अनुभवी फैकल्टी, प्रोफेसरों, डॉक्टरों, आवश्यक क्षमता के हिसाब से पैरामेडिक्स की अपेक्षित संख्या है या नहीं, यह बात सरकारों के लिए शायद कोई मायने नहीं रखती।
उत्तर प्रदेश राज्य में काम करने के दौरान, मैंने सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके निर्मित किए गये मेडिकल कॉलेजों को खाली पड़े देख और इन मेडिकल कॉलेज भवनों के निर्माण के उपरांत वह आवारा कुत्तों और अन्य अतिक्रमणकारियों की शरणस्थली बन गए थे। जब इन संस्थानों को चलाने के लिए जिम्मेदार लोगों से पूछा गया तो उन्होंने बहुत ही सरल स्पष्टीकरण दिया कि डॉक्टरों, नर्सों, एमडी, एमएस डिग्री धारकों की भारी कमी है! सवाल यह है कि चिकित्सा संस्थानों की स्थापना का निर्णय लेने वाले लोग वर्षों से चिकित्सा क्षेत्र में जनशक्ति की कमी पर ध्यान देने और उसे दूर करने में लगातार विफल क्यों रहे हैं। उन्होंने स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं करने का विकल्प क्यों चुना? दशकों से, चिकित्सा शिक्षा प्रणाली, निजी हाथों में रह कर अत्यधिक धन उगाही का स्रोत बनी रही है। मीडिया में नियमित रूप से आने वाली रिपोर्टों के अनुसार, एमबीबीएस की डिग्री के इच्छुक लोगों को प्रवेश पाने के लिए करोड़ों की आवश्यकता होती है और उम्मीदवारों को एमडी, एमएस आदि डिग्री के लिए प्रवेश प्राप्त करने के लिए कई और करोड़ खर्च करने पड़ते हैं।
भ्रष्ट निजी चिकित्सा शिक्षा प्रदाता लॉबियों का हमारी सरकारों और व्यवस्था पर कितना शक्तिशाली कब्ज़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, हर साल दसियों लाख युवा और मेधावी छात्र मेडिकल सीटों के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में शामिल होते हैं, लेकिन एमबीबीएस की सीटों की संख्या दयनीय है, एक अरब 40 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सरकारी और निजी क्षेत्र में एमबीबीएस की कुल सीटों की संख्या महज एक लाख के करीब है। मांग और आपूर्ति के इस बेमेल के लिए कौन जिम्मेदार है? बाजार अर्थव्यवस्था, मुक्त उद्यम, नियंत्रणों को खत्म करने, लोगों के फलने-फूलने के अवसर पैदा करने आदि के सभी पैरोकार इस विकट स्थिति पर वर्षों से चुप क्यों हैं? इस खराब स्थिति पर दशकों तक चुप रहने वाले यह सभी तथाकथित मुक्त बाज़ार के समर्थक जो बाजार तंत्र में छोटे से नियंत्रण पर भी मुखर रूप से विरोध करने के लिए लड़ाई के लिए तो तुरंत तैयार रहते हैं, लेकिन जब इस सबसे महत्वपूर्ण जीवन रक्षक मूलभूत मुद्दे की बात आती है तो मौन रहते हैं और आधी सदी से अधिक समय से चिकित्सा सीटों की भारी कमी की अनुमति देते आ रहे हैं।
इससे ज्यादा भद्दी और नासमझी की बात क्या होगी कि हमारे युवाओं को मेडिकल शिक्षा लेने के लिए चीन, यूक्रेन, उज्बेकिस्तान आदि जैसे दुनिया भर के देशों में भटकने और डॉलर के रूप में भारी शुल्क का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा रहा है और इससे हमारे विदेशी मुद्रा भंडार पर भी अनावश्यक रूप जोड़ पड़ रहा है । शिक्षा माफियाओं और हमारे शासक वर्ग के बीच अवैध गठजोड़ के कारण मेडिकल छात्रों का यह अनैतिक शोषण दशकों से निर्बाध रूप से जारी है। हमारे छात्र पेशेवर डॉक्टर बनने की अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कितने उतावले हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खतरनाक यूक्रेन संघर्ष क्षेत्र और चीन के कोविड लॉकडाउन में फंसने के बाद भी वह एक बार फिर से अपने सपनों को हासिल करने के लिए इन देशों में वापस जाने के लिए बेताब हैं। यह समय है कि हमारी सरकारें विशेष रूप से चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र और सामान्य रूप से स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में व्याप्त खतरनाक स्थिति पर ध्यान दें।
सरकार को इस सहस्राब्दी के प्रारंभिक वर्षों में इंजीनियरिंग शिक्षा क्षेत्र में किए गए सुधारों से प्रेरणा लेनी चाहिए। इंजीनियरिंग शिक्षा क्षेत्र भी कभी सीटों की भारी कमी का सामना कर रहा था और चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र की मौजूदा स्थिति की तरह ही इंजीनियरिंग सीटों की तलाश में विदेशों में हमारे छात्रों की भीड़ लगी रहती थी। व्यवस्था को बेड़ियों से मुक्त करने के लिए उस समय लिए गए सरल निर्णयों के कारण सीटों में वृद्धि हुई। प्रशिक्षित इंजीनियरों की पर्याप्त उपलब्धता के कारण भारत ने सॉफ्टवेयर क्षेत्र में एक बड़ी छलांग लगाई है। इसी तरह, चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित नासमझी, नौकरशाही, लालफीताशाही को खत्म करने की जरूरत है ताकि हमारे उज्ज्वल दिमाग बिना किसी बाधा के डॉक्टर बन सकें और हमारी युवा पीढ़ी को अपने सपनों को पूरा करने के लिए विदेशी भूमि में विषम परिस्थितियों का सामना न करना पड़ा।
प्रशिक्षित चिकित्सा पेशेवरों की अपेक्षित संख्या की उपलब्धता के साथ ही चिकित्सा क्षेत्र की जकड़न समाप्त हो जाएगी। इससे ना केवल आम नागरिकों से धन उगाही ही खत्म होगी और निजी अस्पतालों के माध्यम से केवल लाभ कमाने का नजरिया भी खत्म होगा। क्योंकि इसी के चलते परिणामस्वरूप पेशेवर नैतिकता पूरी तरह से विकृत हो गई है। इन तथाकथित शीर्ष पायदान पर खड़े सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों की डरावनी कहानियां अत्यंत दुखद हैं, जो कॉरपोरेट कल्चर मॉडल पर चलते हैं और बिजनेस मॉडल में प्रॉफिट सेंटर का पालन करते है। यह हास्पिटल लोगों को अपने लाभ के लिए सिर्फ़ दोहन करने के लिए एक ’वस्तु’ की तरह व्यवहार कर रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर सामान्य तौर पर आज के निजी स्वास्थ्य देखभाल उद्योग की यह दुखद सच्चाई है। कई अस्पतालों में इस तरह की प्रचलित बाजारोन्मुख संस्कृति से उत्पन्न कई चौंकाने वाले मामले सार्वजनिक रूप से सामने आने के बावजूद, सरकारें जवाबदेही लागू नहीं कर रही हैं। यह सरकारों के लिए कुछ कठोर कदम उठाने और कुछ करने का समय है। निजी अस्पतालों में लागू प्रबंधन के इस लाभ केंद्रित दृष्टिकोण की जांच की जानी चाहिए। आमतौर पर उपयोग की जाने वाली सुविधाओं के लिए दरें तय करने और स्वास्थ्य सेवा लोकपाल नियुक्त करने जैसे गंभीर कदम उठाकर स्थिति में तुरंत सुधार जाने की आज महती आवश्यकता है । तथाकथित उच्च-गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के नाम पर कुछ बीमा और फार्मा कंपनियों के साथ मिलकर काम करने वाली इन धन उगाही मशीनों के अनैतिक व्यवहार को रोकने के लिए एक नीतिगत ढांचा तुरंत तैयार किया जाना चाहिए। सरकारों को हमारे कमजोर , गरीब बीमार लोगों को चिकित्सा उपचार की आड़ में लूटे जाने और दरिद्र होने से बचाने के लिए शीघ्रता से कार्य करना ही होगा और इसमें और विलंब नहीं होना चाहिए।

(विजय शंकर पांडेय पूर्व सचिव भारत सरकार)

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