जनतंत्र के संचालन में,जनसाधारण की अरुचि के परिणाम स्वरूप,जनतंत्र असुरक्षित रहा और राजनेताओें ने जनतंत्र का अपहरण बड़ी आसानी से कर लिया है।जनता के प्रतिनिधि अब अपने को जनता का स्वामी समझते हैं तथा जनता का हित साधने के बदले अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं।यह दुर्भाग्यपूर्ण है पर अपेक्षित है,क्योंकि यह जन्मजात मानव स्वभाव है परंतु अपने स्वार्थ के लिये जनता के हितों को पूर्णतः नज़र-अंदाज करना अक्षम्य है।
प्रो. एच सी पांडे
प्रायः २५०० साल पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने,विस्तृत रूप में,जनतांत्रिक शासन प्रणाली की परिकल्पना की थी।इस प्रणाली की सफलता के लिये प्लेटो का मानना था कि राजनेता वे होने चाहिए जो पद को जनता के सम्मान का प्रतीक माने, न कि धन-संपत्ति एकत्र करने का,तथा,सुख-सुविधा भोगने का साधन।आज जनता के प्रतिनिधि,अधिकतर,इस परिकल्पना के ठीक उलट है,और वे जनतंत्र से अधिक स्वार्थ-तंत्र में आस्था रखते हैं,यह सर्वविदित है।
देश के जनतंत्र की ७३ वीं वर्षगाँठ आने को है पर लगता है कि जनता अभी तक जनतंत्र का अर्थ समझने में असमर्थ है।अब्राहम लिंकन के अनुसार जनतंत्र की परिभाषा है,जनता की,जनता द्वारा,जनता के लिये सरकार।स्पष्ट है कि जनता द्वारा ही शासन होना है।तात्पर्य यह है कि सारा काम जनता को करना है,और जनतांत्रिक सरकार,जनसाधारण के संयुक्त प्रयास का,केवल नामकरण है।आजकल की आम चर्चा है कि जनतंत्र बेकार है।बक़ौल वूलकौट, “लोग कहते हैं कि जनतंत्र काम नहीं करता।हॉं,काम नहीं करता ।आपको इस से काम करवाना है”।तात्पर्य यह है जनतंत्र केवल एक इंजन है।इसको आम-जन ने चलाना है और इस से काम लेना है।सही पटरी पर ले जाना और सही स्टेशनों तक पहुँचाना,आम जन का दायित्व है।राजतंत्र में सरकार माई-बाप मानी जा सकती है,पर जनतंत्र में,आम नागरिक ही माई-बाप है,अभिभावक हैं।यह मॉं-बाप की ज़िम्मेदारी है कि बच्चा स्वस्थ रहे,शिक्षित हो और उचित जीवन यापन कर सके।यदि अभिभावक अकर्मण्य हैं तथा अपनी ज़िम्मेदारियों को नहीं सँभालते,तो बच्चा अस्वस्थ,अनपढ़ और बेकार ही रहेगा।जनतंत्र में,जन मुख्य है,तंत्र केवल कार्यप्रणाली है।देश की जनता,अभी भी,सरकार माई-बाप के युग में जीना चाह रही है संभवत: इसलिये कि शतकों तक की ग़ुलामी के बाद स्वयं कुछ करने का आत्मविश्वास नहीं रहा है,और,वैसे भी काम सँभालने में शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम करना पड़ता है, जबकि,शासन-तंत्र को हर बात पर कोसना आसान है,और,प्रशासन को गाली देने का मज़ा कुछ और ही है।
जनतंत्र के संचालन में,जनसाधारण की अरुचि के परिणाम स्वरूप,जनतंत्र असुरक्षित रहा और राजनेताओें ने जनतंत्र का अपहरण बड़ी आसानी से कर लिया है।जनता के प्रतिनिधि अब अपने को जनता का स्वामी समझते हैं तथा जनता का हित साधने के बदले अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं।यह दुर्भाग्यपूर्ण है पर अपेक्षित है,क्योंकि यह जन्मजात मानव स्वभाव है परंतु अपने स्वार्थ के लिये जनता के हितों को पूर्णतः नज़र-अंदाज करना अक्षम्य है।
ऐसे जन-प्रतिनिधि,लोकतंत्र को,अपनी सुविधा अनुसार,विकृत करने में लगे रहते है। सर्वप्रथम,संसद में हर समय,बेवजह,नियम विपरीत,वक्ता को टोकना।यह तो टोक-तंत्र है।फिर,संसद की कार्यवाही को,शोर-शराबे से बाधित करना।यह तो रोक-तंत्र है।फिर,अप्रासंगिक,छिछोरी बहस करना।यह तो जोक-तंत्र है।सत्र में,प्रतिदिन,हल्ला-बोल,विषय से हटकर भाषण,समय-असमय भवन से बहिर्गमन,सर्वसम्मति से स्वीकारित सत्र संचालन के नियमों का जब चाहे उल्लंघन,सरकार की हर नीति,हर योजना का विरोध पर विकल्प नहीं प्रस्तावित करना,आधार-विहीन आरोप लगाना,बिना सिर-पैर की,झूठी-सच्ची,व्यक्तिगत टिप्पणी करना,इत्यादि इत्यादि।यही सब,अधिकतर,विधानसभाऔं व संसद में हो रहा है।गाहे-बगाहे,कोई सकारात्मक कारवाही हो जाती है।स्पष्ट है कि विपक्ष,चाहे किसी भी राजनैतिक दल का हो,उसकी प्राथमिकता है,सरकार के तर्कसंगत और आवश्यक प्रस्तावों और योजनाओं का भी,पुरज़ोर विरोध करना।आज परिस्थिति विकट है,लगता है कि हर समय,सत्ताहीन राजनैतिक दल, देश में,किसी भी विकास कार्यक्रम के उदय के पहले उसके अंत का प्रयत्न करने को तत्पर हैं।
“हवायें चाक के नज़दीक आन बैठी है,
अभी बना भी नहीं है,चिराग़ मिट्टी का।”
जनतंत्र में,किसी भी चुनी हुई सरकार का,इस तरह अकारण विरोध,देश की उन्नति तथा विकास के लिये घातक है,इसकी समझ कोई ब्रह्म-ज्ञान नहीं है।सच यह है कि हर राजनैतिक दल,मुख्यतः, सत्तारूढ़ रहना चाहता है,जनता का हित,देश का विकास उनकी प्राथमिकता नहीं है।इतना ही नहीं,हर दल का सदस्य भी ऐसा ही सोचता है।यही त्रासदी है।जनतंत्र अब दुर्जनतंत्र का स्वरूप ले चुका है।
(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)