भारतीय राजनीति में कुछ खतरनाक संकेत

क्या सूरत और इंदौर के मतदाता चुनाव के माध्यम से अपने संसद को चुनने के अधिकार को नकारने वाली प्रवृत्ति को चुनौती दे सकते हैं ? भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीयों द्वारा भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने का संकल्प लिए जाने का उल्लेख किया गया है। यदि राजनीतिक पार्टी अथवा उनके प्रतिनिधि लोकतंत्र की मूल भावना को कमजोर करते हुए प्रतीत होते हैं तो क्या यह मतदाता और नागरिक के रूप में हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि हम इस प्रवृत्ति का संवैधानिक तरीके से विरोध करें। एक उपाय हो सकता है उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर करना। ज्यादा प्रभावकारी कदम होगा अपने गांव / मोहल्लों में इस प्रवृत्ति पर खुली चर्चा प्रारम्भ करना। जब लोग राजनीतिक दलों द्वारा योग्यता को नकार कर केवल जाति / संप्रदाय / धन बल के आधार पर उम्मीदवारों के चयन पर सवाल उठाने लगेंगे और धन बल व धर्म /जाति की भावनाओं को बहका कर चुनाव जीतने के मन्त्र को अप्रभावी नहीं बना देंगे तब तक इस समस्या का कोई सरल हल नहीं है।

सुनील कुमार

भारतीय राजनीति में पिछले दिनों की कुछ घटनाएं देश में लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ संदेश देती नहीं प्रतीत होती हैं। राजनीतिक विश्लेषक मुख्य रूप से अभी गुजरात के सूरत और मध्य प्रदेश के इंदौर की घटनाओं के बारे में चिंता व्यक्त कर रहे हैं जहाँ संसदीय चुनाव में सभी विपक्षी उम्मीदवारों ने अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया अथवा उनमें कुछ तकनीकि खराबी छोड़ दी जिनकी वजह से उनका नामांकन पत्र ख़ारिज हो गया । हाल ही में चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में चुनाव अधिकारी की भूमिका भी संदेह के घेरे में आ गयी थी और अंततः माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से लोकतंत्र के चीर हरण का प्रयास विफल हुआ। इसी प्रकार वर्तमान समय में तथाकथित ‘ऑपरेशन लोटस’ की भी व्यापक चर्चा है। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है सत्तारूढ़ दल अब चुनाव के बाद ‘ऑपरेशन लोटस’ चलाने की जगह अब चुनाव पूर्व ही ऐसी स्थिति बना देना चाहती है कि उसकी नौबत ही न आए। कदाचित यह ‘सस्ता और शत प्रतिशत क़ामयाब’ फार्मूला साबित हो। अतः लोगों की चिंता अपनी जगह वाजिब है।

परन्तु शायद सतह पर जो दिखता है और वास्तविकता में जो है उसमें बहुत अंतर है। हमें थोड़ी गहराई में जाकर इस गंभीर विषय का विश्लेषण करना होगा। सबसे पहले किसी पर भी दोषारोपण करने के पूर्व हमें इस पर विचार करना चाहिए कि उपरोक्त उल्लिखित दोनों घटना उन व्यक्तियों के बारे में क्या बतलाता है जो भारतीय लोकतंत्र के उच्चतम स्तर यानि लोकसभा में सांसद चुने जाने हेतु प्रयासरत थे। उनकी हसरत अगर वास्तव में जनता के समर्थन से सांसद चुने जाने की होती तो संभवतः दोनों जगह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। यहाँ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में भी अभी तक लगभग तीसेक संसद सदस्यों के निर्विरोध चुने जाने की मिसाल हैं। क्या उन अवसरों पर भी इसी प्रकार की चिंता व्यक्त की गयी थी अथवा नहीं इस पर हमें सोचने की जरूरत है। शायद उस समय हमने उन्हें उतनी गंभीरता से नहीं लिया हो, जितनी गंभीरता से लिए जाने की जरूरत थी। आजकल राज्य सभा और विधान परिषद् के चुनाव में निर्विरोध चुने जाने की प्रवृत्ति को हमलोग सामान्य घटना मानने लगे हैं। यदि कहीं चुनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो उसे ही असामान्य घटना मान ली जाती है जबकि स्वस्थ लोकतंत्र में चुनाव सामान्य स्थिति होनी चाहिए। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चुनाव जीतना अथवा हारना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना मतदाता के समक्ष विकल्प प्रस्तुत करना।

यहाँ पर मैं एक उदहारण देना चाहूंगा। इसी वर्ष पेरिस में ओलिंपिक खेल आयोजित किये जाने वाले हैं। भारत में भी वर्ष 2036 के ओलिंपिक खेलों की मेजबानी हासिल करने के लिए दावेदारी ठोंकने की बात चल रही है और इस पर किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। परन्तु पेरिस ओलिंपिक खेलों में अगर 100 मीटर की दौड़ में, जिसके विजेता को ‘ दुनिया का सबसे तेज धावक’ के रूप में पहचाना जाता है, अगर एक को छोड़ कर बाकी सभी सात धावक जानबूझ कर शुरुआत में ही disqualify हो जाएँ अथवा बीमारी का बहाना बनाकर प्रतिस्पर्धा से अपना नाम वापस ले लें तो क्या वह दर्शकों के साथ अन्याय नहीं होगा जिन्होंने हजारों डॉलर / यूरो खर्च कर टिकट खरीदा है ? जिस प्रकार खेल में हार जीत लगी रहती है, सबसे महत्वपूर्ण बात होती है भाग लेना – ऐसा हमें बचपन से सिखाया जाता है उसी प्रकार स्वस्थ लोकतंत्र में चुनाव में भाग लेना, विचारों को जनता के समक्ष रखना और मतदाता के सामने विकल्प प्रस्तुत करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे नकारना लोकतंत्र की हत्या करने के सामान है और इसमें जनता की अदालत में सभी कठघरे में खड़े मिलेंगे – चाहे वह निर्विरोध जीता हुआ सांसद हो अथवा चुनाव प्रक्रिया को विफल करने वाले सभी उम्मीदवार जिन्होंने व्यवस्था की कमियों का लाभ उठाते हुए ऐसे समय नामांकन वापस लिया अथवा अपने नामांकन रद्द होने की भूमिका रची जिसका कुल प्रभाव यह हुआ कि मतदाता के साथ ठगी हो गई। इसी प्रकार चुनाव के दौरान नामांकन प्रक्रिया से जुड़े सभी अधिकारियों का यह फ़र्ज़ बनता है कि नामांकन पत्र दाखिल करते समय ही उम्मीदवारों को तकनीकि खामियों को बता कर दूर करने का मौका दें ताकि चुनाव वास्तव में लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व बन सकें और इसमें ज्यादा से ज्यादा लोगो की भागीदारी हो। प्रशासनिक सहूलियत की खातिर नामांकन पत्रों को निरस्त करने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि कानून व नियमों का पालन करते हुए भी संवैधानिक व्यवस्था तार तार हो सकती है और इस प्रकरणों में हो भी गई । यह सभी हितधारकों के लिए खतरे की घंटी बजने का समय है।

अब हम आते हैं विभिन्न दलों के द्वारा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया पर। आंकड़े बताते हैं की चुनाव दर चुनाव में करोड़पति उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। सभी प्रमुख दलों के द्वारा करोड़पति उम्मीदवारों का प्रतिशत 80 से ऊपर बताया जाता है। चुनावी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और अब किसी गरीब प्रत्याशी को पार्टी का टिकट मिलना और चुनाव जीतना लगभग असंभव हो गया है। ऐसे प्रत्याशी, जिनके व्यापारिक हित सर्वोपरि हैं, वे भी उसी प्रकार चुनावी दंगल में हार जीत की संभावना का आंकलन करते हैं जैसा अपने व्यापार में मुनाफ़ा और घाटे का। और अगर उन्हें कहीं से ज्यादा आकर्षक ऑफर मिलता है तो उन्हें अपनी विचारधारा, निष्ठा, दल बदलने में कोई संकोच नहीं होता है। इसे ही विचारधारा का अंत (end of ideology) कहा जाता है। जब तक इसे शीत युद्ध के चश्मे से देखा जाता रहा, 1980-90 के दशक में कई विचारकों ने इस प्रवृत्ति का स्वागत भी किया था। राजनीति का बाज़ारीकरण (marketisation of politics) अब एक गंभीर बीमारी बन चुकी है और अब यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए ही चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। यह चिंता का विषय है।

भारतीय राजनीति में ‘आया राम गया राम’ की संस्कृति, जिसकी शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी और जिसे नियंत्रित करने के लिए 1980 के दशक में ‘Anti Defection Act’ पारित किया गया ताकि चुनी हुई सरकारों को दल -बदल के कारण अपदस्थ होने से बचाया जा सके, अब नया स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। अब यह ‘डाल डाल और पात पात’ का खेल बन चुकी है जिसमे शतरंज के खेल की तरह नित्य नए चाल सभी खिलाड़ियों के द्वारा चले जा रहे हैं जब तक उसे न्यायालय के द्वारा असंवैधानिक न घोषित कर दिया जाए ! जब तक चुनाव में ‘हर कीमत पर जीत मिलनी चाहिए’ की प्रवृत्ति प्रमुख रहेगी तब तक राजनीतिक दल तथा नेता नित्य ‘व्यवस्था की सीमाओं’ (limits of system) की परीक्षा लेते रहेंगे। कई बार संवैधानिक संस्थाएं प्रतिक्रिया देने में विलम्ब कर देती हैं जिसके फलस्वरूप लोकतंत्र की जड़ें कमजोर पड़ती जाती हैं।

ऐसी स्थिति में हमारे सामने क्या विकल्प हैं। क्या सूरत और इंदौर के मतदाता चुनाव के माध्यम से अपने संसद को चुनने के अधिकार को नकारने वाली प्रवृत्ति को चुनौती दे सकते हैं ? भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीयों द्वारा भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने का संकल्प लिए जाने का उल्लेख किया गया है। यदि राजनीतिक पार्टी अथवा उनके प्रतिनिधि लोकतंत्र की मूल भावना को कमजोर करते हुए प्रतीत होते हैं तो क्या यह मतदाता और नागरिक के रूप में हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि हम इस प्रवृत्ति का संवैधानिक तरीके से विरोध करें। एक उपाय हो सकता है उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर करना। ज्यादा प्रभावकारी कदम होगा अपने गांव / मोहल्लों में इस प्रवृत्ति पर खुली चर्चा प्रारम्भ करना। जब लोग राजनीतिक दलों द्वारा योग्यता को नकार कर केवल जाति / संप्रदाय / धन बल के आधार पर उम्मीदवारों के चयन पर सवाल उठाने लगेंगे और धन बल व धर्म /जाति की भावनाओं को बहका कर चुनाव जीतने के मन्त्र को अप्रभावी नहीं बना देंगे तब तक इस समस्या का कोई सरल हल नहीं है।

राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को भी समझना होगा कि राजनीति केवल धन कमाने का साधन नहीं हो सकता है। सांसद के रूप में संसदीय प्रक्रियाओं का उपयोग व्यापारिक हितों को बढ़ाने के लिए अथवा व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को कमजोर करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए और अगर ऐसा किया जाता है तो मतदाता और नागरिक उसे स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें विश्वास होना चाहिए कि सत्ता का उपयोग कर आम नागरिक के हितों की रक्षा की जा सकती है। संविधान की रक्षा का शपथ उनके लिए सर्वोपरि होनी चाहिए। भ्रष्टाचार किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। जनप्रतिनिधियों का स्वच्छ आचरण, विनम्र व्यवहार ही साफ़ सुथरी, प्रभावी शासन /प्रशासन की नींव रखेगा और कानून के शासन को मजबूत बनाएगा।

(लेखक पूर्व IAS अधिकारी हैं )

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