सोचने की बात यह है कि जब इन्हीं मोदी के नाम पर हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड , मध्य प्रदेश , ओड़िसा में शत प्रतिशत सीटें भाजपा को मिलीं तो उत्तर प्रदेश में उसकी चालीस सीटें कम क्यों आयीं । स्पष्टतः प्रदेश का शासन , उसका नेतृत्व और उसकी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली ही इस ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़रूर ही ज़िम्मेदार हैं , ऐसा प्रतीत होता है । उत्तर प्रदेश की जनता विशेष तौर पर घटिया कार्य करने वाली सरकारों को सत्ता से बाहर करने के लिए मशहूर रही है ।
वी यस पाण्डेय
हाल में पूरे हुए लोक सभा चुनाव में कुछ पार्टियों ने अच्छा किया तो कुछ के लिए परिणाम आशा के अनुरूप नहीं रहे । भारतीय जनता पार्टी के लिए यह परिणाम निराशाजनक रहे क्योंकि पार्टी तो वर्ष २०१९ के लोक सभा चुनाव में जीती ३०३ सीटों से कहीं ज़्यादा सीट जीतने की आशा कर रही थी और एनडीए गठबंधन को तो चार सौ पार पहुँचाने का सपना सजो रखा था , जो ना हो सका । एन॰डी॰ए॰ की सरकार तो केंद्र में आसानी से बन गई और प्रधान मंत्री के रूप में मोदी जी ने तीसरी बार शपथ भी ले ली लेकिन भाजपा की लोक सभा सीटों में ६३ सीटों की कमी क्यों हुई , यही अब चर्चा का विषय है । किसी भी चुनाव के बाद परिणामों पर चर्चा एक सामान्य बात है लेकिन उत्तर प्रदेश , राजस्थान , हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को हुए नुक़सान के कारणों की तह तक जाना भाजपा नेतृत्व के लिए बहुत ज़रूरी इस लिए भी है कि इसी पार्टी ने दक्षिण भारत के राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया और उसका वोट का प्रतिशत पहले से काफ़ी बढ़ा । ओड़िसा राज्य में तो भाजपा को भारी सफलता मिली, इस तथ्य के प्रकाश में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उसका ख़राब प्रदर्शन तो सिर्फ़ अकेले मोदी की घटती लोकप्रियता का परिचायक तो नहीं ही कहा जा सकता । आश्चर्य जनक बात तो यह है कि इस तथ्य को सिद्ध करने की आज कल होड़ सी लगी है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की घटी सीटों के लिए सिर्फ़ केन्द्रीय नेतृत्व ही ज़िम्मेदार है और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री और स्थानीय मंत्रियों और नेताओं की इसमें कोई ज़िम्मेदारी नहीं है । जबकि वास्तविकता इससे कहीं अलग ही प्रतीत होती है ।
किसी भी लोकतंत्र में चुनाव ही सरकार के काम काज के मूल्यांकन का सबसे सटीक अवसर होता है और इस दृष्टि से चुनाव में पूर्ण बहुमत ना मिलना स्पष्ट करता है कि मोदी सरकार के काम में ज़रूर कमी रही जिसको जनता ने देखा समझा और वोट के माध्यम से अपना विचार व्यक्त कर दिया । अब किसी भी समझदार नेतृत्व को अपनी कार्यप्रणाली में आ गई कमी को दूर करके जनता का पुनः विश्वास पाने की दिशा में कार्य करना चाहिए । यही तथ्य उन सभी पार्टियों की सरकारों पर भी लागू होता है जिनको जनता ने इन चुनावों में नकार दिया । इस तथ्य में भी कोई दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश में वर्ष २०१४ के चुनाव की तुलना में इस बार ४० सीट कम आयीं और यह सीटें ही काफ़ी होतीं भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाने में । सोचने की बात यह है कि जब इन्हीं मोदी के नाम पर हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड , मध्य प्रदेश , ओड़िसा में शत प्रतिशत सीटें भाजपा को मिलीं तो उत्तर प्रदेश में उसकी चालीस सीटें कम क्यों आयीं । स्पष्टतः प्रदेश का शासन , उसका नेतृत्व और उसकी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली ही इस ख़राब प्रदर्शन के लिए ज़रूर ही ज़िम्मेदार हैं , ऐसा प्रतीत होता है । उत्तर प्रदेश की जनता विशेष तौर पर घटिया कार्य करने वाली सरकारों को सत्ता से बाहर करने के लिए मशहूर रही है । इस तथ्य को कभी भी नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि प्रदेश की जनता बीएसपी, समाजवादी पार्टी , भाजपा आदि सभी को पाँच साल बाद सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा चुकी है और कुशासन देने वाली पार्टियों को सदैव दंडित करती रही है । इस बार के लोक सभा के चुनाव परिणाम साफ़ तौर पर भाजपा की प्रदेश सरकार के ख़राब प्रदर्शन की भावना को साफ़ तौर पर प्रदर्शित करते हैं , ऐसा निष्कर्ष साफ़ दिखता है । मनमाने तौर पर बुल्डोज़र चला कर न्याय करने की जो ग़लत प्रथा उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने रखी है उसका दुष्परिणाम लोक सभा के चुनाव परिणामों में साफ़ झलकता है । उसी तरह भ्रष्टाचार की अबाध गति पर कोई प्रभावी अंकुश ना लगाए जाने का ख़ामियाज़ा भी पार्टी को भुगतना पड़ा । एक आश्चर्य जनक घटनाक्रम जो इस चुनाव के कुछ माह पहले घटित हुई और वह थी एक वर्ग विशेष के द्वारा प्रदेश भर में की गई जन सभाएँ जिसमें उस वर्ग विशेष द्वारा उनके हितों की सरकार द्वारा की जा रही लगातार अनदेखी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गई जबकि उसी वर्ग विशेष से ही प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री आते हैं और उसी वर्ग विशेष का प्रदेश की नौकरशाही और सरकार पर वर्तमान में पूरा वर्चस्व है , ऐसा आम लोगों का मानना है । आख़िर ऐसा किसके कहने पर हुआ और इस रणनीति के सूत्रधार कौन कौन लोग थे और ऐसा करने के पीछे क्या उद्देश्य थे , इसकी गहन जाँच पड़ताल पार्टी को ज़रूर करना चाहिए और सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए ।
जैसा कि कहा जाता है कि लोकतंत्रात्मक प्रणाली में प्रेस और मीडिया की प्रमुख भूमिका होती है और उसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है । इस भावना के मूल में यह तथ्य सदैव रहता है कि मीडिया और प्रेस निष्पक्ष हों और जनता तक सच्चाई ले कर जाएँ और उन्हें जागरूक करें ,लेकिन आज की सच्चाई तो इसके एकदम उल्टी प्रतीत होती है ।आज खबरें पार्टी लाइन पर बनती हैं , पत्रकार किस पार्टी की विचार धारा के पोशक हैं यह सब को पता है , इस लिए निष्पक्ष पत्रकरिता की आज के दौर में बात करना बेमानी ही कहा जाएगा ।ऐसी हालत में लोक सभा के चुनावों के परिणाम की प्रेस के द्वारा निष्पक्ष समीक्षा की अपेक्षा करना भी एक बड़ी गलती होगी ।
किसी भी देश में लोकतंत्र को मज़बूत बनाए रखने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी जनता पर ही रहती है । इसके लिए उसको सदैव सजग रहना होगा कि वह भ्रष्ट राजनीतिज्ञों द्वारा बिछाए गए जाति , धर्म , और काले धन के जाल में ना फँसे । आम जन का यह दायित्व है कि वह जहां तक हो सके बेईमान , धूर्त , झूँठे लोगों को अपना समर्थन कभी ना दे अन्यथा उसकी गलती का सबसे ज़्यादा नुक़सान उसी को होगा जैसा कि आज के हालात हैं ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)