मौजूदा स्थिति को जल्द से जल्द बदलने की जरूरत है और इसकी शुरुआत हमारी मौजूदा आर्थिक नीति में बदलाव के साथ की जानी चाहिए। “रीगनॉमिक्स” और “थैचरवाद” ने कोई परिणाम नहीं दिया है। सरकार को नव उदारवादी आर्थिक नीति ढांचे के मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए और इसे कल्याणकारी अर्थशास्त्र के मॉडल को लागू करना चाहिए।
वी.एस.पांडेय
भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, जो 2027 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है। हमारा देश अपने अद्वितीय सभ्यतागत लोकाचार के लिए प्रशंसित है। अतुल्य भारत 1.4 बिलियन की आबादी के साथ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी है और इसे 8% जीडीपी वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था के रूप में भी सम्मानित किया जाता है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में लगभग सार्वभौमिक मंदी के बीच, भारत उच्च सार्वजनिक व्यय और मजबूत शहरी मांग, इसकी युवा मानव संसाधन , डिजिटल क्रांति, तेजी से बढ़ते चमकदार नए बुनियादी ढांचे और पूंजीगत सामान क्षेत्र, स्थिर रुपये के कारण वैश्विक निवेशकों के लिए वर्तमान हॉटस्पॉट है। दुनिया भर में अग्रणी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेतृत्व करने वाले 30 से अधिक भारतीय मूल के सीईओ, भी इसके वैश्विक प्रभाव में इजाफा कर रहे हैं। अपने भू-रणनीतिक स्थान की सहायता से इन कारकों ने भारत को अभूतपूर्व प्रभाव वाली एक उभरती हुई महाशक्ति बना दिया है। यह सबसे अच्छा समय है- न केवल विश्व नेता बनने के लिए बल्कि शून्य गरीबी के अपने लक्ष्य को पाने का और हमारे संविधान में निहित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता को भी साकार करने के लिए।
हालाँकि भारत को अपने उन लाखों लोगों के लिए बहुत कुछ करना बाकी है जो अभी भी गरीबी और अशिक्षा में डूबे हुए हैं। दुर्भाग्यवश हमारे देश में गरीबों और अमीरों के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है जो दुनिया में सबसे अधिक है। पचीस करोड़ से अधिक लोग आज भी प्रतिदिन 2 डॉलर यानि सौ रुपये से कम पर गुजारा करते हैं। भारत में वैश्विक स्तर पर कुपोषित लोगों का एक चौथाई हिस्सा है- ३५ करोड़ भारतीय अभी भी कुपोषण के शिकार हैं। निरक्षरता अभी भी अधिक है, 2023 के वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक में भारत का स्कोर 100 में से 28.7 है। विसंगति स्पष्ट है-हमारे “अरबपतिओं के राज” में 271 अरबपति हैं और शीर्ष पर बैठे 10% के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57% है और नीचे के 50% के पास बमुश्किल 13% है। इसलिए भले ही यह ‘उछाल’ का समय हो, दुखद रूप से, गरीबों को बढ़ती हुई गरीबी में धकेला जा रहा है। हमने सामाजिक न्याय को आर्थिक दक्षता से बदल दिया है। शीर्ष 10% के पास हर चीज है – विलासिता की चरम सीमा – कुलीन शिक्षा, सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सेवा, गेटेड हवेली और उनकी अधिक से अधिक धन इकठ्ठा करने की “पशु भावना” हमारी अर्थव्यवस्था को ऊर्जा दे रही है, लेकिन शासन यह भूल गया है कि अन्य 50% से अधिक लोग विषम आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप मुश्किल से अपना दयनीय अस्तित्व जी रहे हैं। गुलामी और रंगभेद के विपरीत, हमारी गरीबी प्राकृतिक नहीं है। भारत इस असंतुलन को कत्तई आगे तक बनाये नहीं रख सकता – एक अमीर अल्पसंख्यक और एक बड़ा बहुमत – भूखा, अशिक्षित और वंचित – यह साफ़ तौर पर आने वाली आपदा का नुस्खा है।
कई अन्य राष्ट्र भी अमीर और गरीब के बीच बढ़ते अंतर को देख रहे हैं, लेकिन यहाँ समस्या गंभीर रूप ले रही है क्योंकि मुट्ठी भर लोगों ने आबादी के निचले पचास प्रतिशत से अधिक धन इकठ्ठा करके उसपर कुंडली मार कर बैठे हुए है। धन का कुछ हाथों में जमा हो जाना और उसमें लगातार वृद्धि होते रहना पिछले कई दशकों से सत्ता पर काबिज रही सरकारों द्वारा अपनाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ही परिणाम है। इन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने तेज़ आर्थिक विकास का वादा किया था और दावा किया था कि “ट्रिकल डाउन” प्रभाव से जादुई रूप से सभी को गरीबी से बाहर निकाल देगा और सभी को एक सभ्य और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त प्रदान आर्थिक बल प्रदान करेगा।
नव उदारवादी आर्थिक एजेंडे की बयानबाजी के बावजूद ऐसा नहीं हुआ। इसके बजाय इसने हमारे वंचित लाखों लोगों की कीमत पर कुछ हाथों में धन के बेलगाम संचय की अनुमति दी। यह इस असंतुलित आर्थिक प्रणाली का परिणाम है कि आज हमारी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा निजी हाथों में है, जो हमारे अस्सी करोड़ से अधिक जनता की पहुँच से बाहर है। राज्य द्वारा वित्तपोषित स्वास्थ्य क्षेत्र, जिसे हमारी आबादी के गरीब और वंचित वर्गों की सेवा करनी थी को इन आर्थिक नीतिओं से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है और इसके परिणाम वंचितों के लिए भयानक हैं। हमारे शिक्षा क्षेत्र की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। भारत में 58000 करोड़ रुपये का कोचिंग उद्योग फल-फूल रहा है, जो सरकारी दोष पूर्ण सरकारी नीतिओं का परिणाम हैं और सस्ती और अच्छी शिक्षा प्रदान करने में सरकारों की असमर्थता का परिणाम है – एक ही उदाहरण इस बात को साफ़ करने के लिए काफी है के कि वर्ष 2024 में एक लाख एमबीबीएस सीटों के लिए 24 लाख छात्र प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। आज अधिकांश शिक्षा और स्वास्थ्य प्रदाता बेहद अमीर हो गए हैं और अब इन महत्वपूर्ण स्थानों पर अपना शिकंजा कस कर पूरी तरह से ऐसा जम चुके हैं कि उनका शिकंजा ढीला करना असंभव है।
इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की आवश्यकता न हो ऐसा नहीं है, बल्कि , सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त रूप से खर्च करना चाहिए कि सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित अस्पताल और स्कूल-कॉलेज उन लोगों के लिए उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं प्रदान करें, जिनके पास निजी तौर पर प्रदान की जाने वाली अत्यधिक महंगी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का लाभ उठाने के लिए पर्याप्त संसाधनों की कमी है। भारत में 15 से अधिक वर्षों से रोजगार की कमी है। यह किसी भी तरह से नौकरी हथियाने की हताशा में बदल गया है, जिससे पेपर लीक हो रहे हैं और प्रशासनिक नौकरियों को हासिल करने में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। भारत के कार्यबल में भी भारी बेरोजगारी है-लगभग 65% लोग जो 35 वर्ष से कम आयु के हैं। इसमें से केवल 2% कुशल हैं और 2 में से 1 कॉलेज के बाद रोजगार योग्य नहीं है। बेरोजगारी की समस्या वर्तमान में सरकारों द्वारा लागू की गई आर्थिक नीतियों का प्रत्यक्ष परिणाम है क्योंकि आज कि आर्थिक नीतियां उद्योगपति/व्यवसाय को सौ करोड़ से अधिक सामान्य जनता , जिनके पास अपने कीमती “एक वोट” के अलावा कोई संसाधन नहीं है, की कीमत पर कुछ हितधारकों के हित में भारी मुनाफे के लिए सिर्फ बनाई गई लगती हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसी आर्थिक नीतियों को क्यों अपनाया गया और हमारे जैसे लोकतंत्र में उन्हें क्यों हावी होने दिया गया? लोकतंत्र सरकार का सबसे अच्छा रूप है जो प्रत्येक नागरिक को आवाज़ देता है और उसे अपने कल्याण की देखभाल करने के लिए सरकार के गठन में भाग लेने में सक्षम बनाता है। क्या लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को केवल अमीर अभिजात वर्ग को प्राथमिकता देनी चाहिए या इसकी नीति लगभग सौ करोड़ से अधिक आम नागरिकों को मुक्ति दिलाने के लक्ष्य से प्रेरित होनी चाहिए? देश में उपलब्ध आंकड़े एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करता है जो वर्तमान आर्थिक नीतिओं और कॉर्पोरेट टैक्स और आयकर को कम करने जैसे नुस्खों के समर्थन में दिए गए तर्कों के बिल्कुल विपरीत है। इन वर्त्तमान में लागू मुक्त बाजार की नीतिओं को जादुई गोली की तरह प्रचारित किए गया है कि इस के चलते साड़ी समस्याओं का समाधान हो जाये गा , जो सच्चाई के बिलकुल विपरीत है । भारत में युवा आबादी है, जिसमें चालीस करोड़ से ज़्यादा लोग कामकाजी आयु वर्ग में हैं और अभी भी विकास की कहानी का हिस्सा बनने के लिए निराश होकर इंतज़ार कर रहे हैं। योगदान देने के लिए तैयार करोड़ों युवाओं के बावजूद यह निराशाजनक है कि हम अभी भी जर्मनी, जापान, ब्रिटेन जैसे देशों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, जिनकी आबादी हमसे बमुश्किल कुछ ही फ़ीसदी है। करोड़ों लोगों को नौकरी देने के लिए निजी क्षेत्र का इंतज़ार करना एक निरर्थक काम है, यह उतना ही भ्रामक है जितना यह मानना कि ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट से गरीबी दूर हो जाएगी। आज़ादी के सतहत्तर साल बाद भी, हम दुनिया भर में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले गरीब देशों की सूची में सबसे नीचे हैं। हमें आर्थिक नीति को फिर से तय करने की ज़रूरत है। अवसर की असमानता और स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुँच अभी भी हमारे लाखों लोगों को नहीं मिल पा रही है। तेज़ी से बढ़ते शेयर बाज़ार और शानदार मॉल शहरी परिदृश्य पर हावी हैं, जबकि ८० करोड़ से ज़्यादा लोग मुफ़्त खाद्यान्न और दूसरी सुविधाओं के लिए कतार में खड़े हैं – यह भयावह विरोधाभास है जिसका तुरंत समाधान किया जाना चाहिए। भारत आज इस ग्रह पर सबसे असमानता वाले देशों में से एक है। संपन्न और विपन्न के बीच लगातार बढ़ती खाई इस खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है कि यह निश्चित रूप से हमारे समाज को अस्थिर कर देगी और इसके गंभीर परिणाम होंगे, जैसा कि भारत के आस पास के देशों में हुई घटनाओं से स्पष्ट है।
मौजूदा स्थिति को जल्द से जल्द बदलने की जरूरत है और इसकी शुरुआत हमारी मौजूदा आर्थिक नीति में बदलाव के साथ की जानी चाहिए। “रीगनॉमिक्स” और “थैचरवाद” ने कोई परिणाम नहीं दिया है। सरकार को नव उदारवादी आर्थिक नीति ढांचे के मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए और इसे कल्याणकारी अर्थशास्त्र के मॉडल को लागू करना चाहिए। शासन को आर्थिक विकास के वैकल्पिक मॉडल पर पुनर्विचार करना ही होगा । उदारीकरण उपायों के बाद असमानताएं बढ़ी हैं, हालांकि इसने आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया है। हमें एक ऐसी अर्थ व्यवस्था प्रणाली बनानी होगी जो सबसे निचले स्तर पर रहने वाले लोगों – गरीबों के कल्याण को बढ़ावा दे और उन्हें हमारी शानदार आर्थिक प्रगति में शामिल किया जाना चाहिए। विकास को अब हमारे वंचितों के जीवन को बदलना होगा। तभी भारत सबसे बड़ी लोकतांत्रिक महाशक्ति बन पाएगा।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)