दुनिया की दृष्टि में हमारा देश वाहन की उपलब्धताओं की दृष्टि से सबसे पीछे है यहाँ तक कि अपने गरीब पड़ोसी देशों से भी । इसके बाद भी हमारे देश में दिल्ली की प्रदूषण की समस्या का तूफ़ान उठा कर लाखों वाहनों को नष्ट करने का जो अभियान चलाया जा रहा है उसका सानी शायद ही किसी और देश में देखने को मिलेगा । ऐसा लगता है कि देश के सामने सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली ,जहां देश की सत्ता चलाने वाले बैठे हैं, के प्रदूषण के ख़ात्मे के अलावा अन्य कुछ तो समस्या है ही नहीं , हालाँकि IIT समूह के द्वारा की गई विस्तृत जाँच में वाहन प्रदूषण का कुल व्याप्त प्रदूषण का सिर्फ़ बीस प्रतिशत के आस पास का योगदान पाया गया ।
वी यस पाण्डेय
देश में पन्द्रह साल से पुराने वाहन जैसे मोटर गाड़ी , ट्रक , बस , जीप गाड़ी आदि को स्क्रैप करने की नीति लागू की गई है । यह सब प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए सर्वोच्च न्यायालय सहित अन्य उच्च न्यायालयों , नैशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल आदि में दिल्ली में व्याप्त प्रदूषण को लेकर दाखिल की गई जनहित याचिकाओं में पारित विभिन्न न्यायालयों द्वारा पारित आदेशों के प्रकाश में लिए गए निर्णयों के परिणाम हैं ।
सबसे बड़ा सवाल यहाँ यह उठता है कि देश की राजधानी ही क्या “देश” है और दूसरा सवाल यह कि एक छोटे से क्षेत्र की समस्या के समाधान का फ़ॉर्म्युला क्या पूरे देश पर थोपा जाना चाहिए और तीसरा सवाल यह कि क्या इस पन्द्रह साल के पेट्रोल वाहन और दस साल के पुराने डीज़ल वाहनों को स्क्रैप किए जाने के निर्णय लिए जाने से पहले सभी तथ्यों पर गम्भीरता से विचार किया गया या नहीं ? यह सभी प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है और इनके उत्तर आज हमारे देश की पूरी प्रणाली के सच को उजागर करने के लिए काफ़ी होंगे । ।हमें यह याद रखना चाहिए कि इस देश के निर्माता उन लोगों में से थे जो किसी भी काग़ज़ को फेंकने या नष्ट करने से पहले उसमें लगी पिन को निकाल लेते थे ताकि उसका आगे सदुपयोग किया जा सके उसके विपरीत आज लाखों मूल्य के अच्छे भले लाखों वाहनों को कथित प्रदूषण के चलते स्क्रैप करने के लिए सरकारें उतारू हैं ।
सबसे पहला और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमारा देश अभी भी गरीब देशों की क़तार की शोभा बढ़ा रहा है और हम देशवासी चाहे जितना भी अपनी उपलब्धियों , जो कई मायनों में उल्लेखनीय भी है , का ढिंढोरा पीट लें फिर भी इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड सकते कि हमारी करोड़ों की जनसंख्या अभी भी ग़रीबी की त्रासदी झेल रही है और उसके लिए जीवन प्रति दिन का एक संघर्ष मात्र है । चूँकि वर्तमान में हम वाहनों के स्क्रैप किए जाने की वर्तमान नीति का परीक्षण कर रहे हैं तो सबसे पहले यह देखना ज़रूरी होगा कि हम दुनिया के अन्य देशों की तुलना में वाहनों के मामले में कहाँ खड़े हैं ।
सार्वजनिक रूप से प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार प्रति एक हज़ार जनसंख्या पर जहां अमेरिका में ९००, कनाडा में ८७०, ऑस्ट्रेल्या में ८४०, जापान में ८१०, इटली में ७५५, जर्मनी में ६५५, ब्रिटेन में ५६०, ब्राज़ील में ४०० , रूस में ३६१, थाईलैंड में ३३०, बोत्स्वाना में २६०, चीन में २३१, साउथ अफ़्रीका में १८८, ईरान में १८३, श्रीलंका में १५७, भूटान में १५० , नेपाल में ११३, इंडोनेशिया में ८२ ,पाकिस्तान में ६९, बांग्लादेश में ६०, वाहन ( इसमें कार , वैन, बस , भाड़े वाले वाहन ट्रक आदि , दो पहिया वाहन छोड़ कर शामिल हैं )हैं वहीं हमारे देश में प्रति एक हज़ार जनसंख्या पर मात्र ५७ वाहन हैं ।
दुनिया की दृष्टि में हमारा देश वाहन की उपलब्धताओं की दृष्टि से सबसे पीछे है यहाँ तक कि अपने गरीब पड़ोसी देशों से भी । इसके बाद भी हमारे देश में दिल्ली की प्रदूषण की समस्या का तूफ़ान उठा कर लाखों वाहनों को नष्ट करने का जो अभियान चलाया जा रहा है उसका सानी शायद ही किसी और देश में देखने को मिलेगा । ऐसा लगता है कि देश के सामने सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली ,जहां देश की सत्ता चलाने वाले बैठे हैं, के प्रदूषण के ख़ात्मे के अलावा अन्य कुछ तो समस्या है ही नहीं , हालाँकि IIT समूह के द्वारा की गई विस्तृत जाँच में वाहन प्रदूषण का कुल व्याप्त प्रदूषण का सिर्फ़ बीस प्रतिशत के आस पास का योगदान पाया गया ।
हमारे देश की व्यवस्था में एक ऐसा घटक भी पिछले कुछ दशकों में शामिल हो गया है जो जनता से जुड़े मुद्दों पर निर्णय लेने की शक्ति तो पा गया है लेकिन वह जनता के प्रति जवाब देह बिल्कुल नहीं है ।सम्विधान निर्माताओं ने सरकार के तीन अंगों न्यायपालिका , विधायिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट बँटवारा तो ज़रूर किया था लेकिन धीरे धीरे कार्य बँटवारे की लकीरें धूमिल हो गई और न्यायिक आदेशों से नीतियाँ बनने लगीं जैसा कि दिल्ली में वाहनों का सी. यन. जी गैस चालित करने के अभियान के समय हुआ । देश अन्य पेट्रोलियम पदार्थों की तरह सी .यन. जी विदेशों से ही आयात करता है , फिर भी प्रदूषण कम करने के नाम पर यह जद्दोजहद आज भी जारी है और किसी भी सी. यन. जी फ़िलिंग स्टेशन पर ,सत्ता में बैठ कर इस प्रकार के निर्णय लेने वालों के लिए, दिन रात वाहन चालकों का घंटो लाइन में लगे रहने की त्रासदी जैसे कुछ हो ही ना।
इससे भी ज़्यादा अविवेकपूर्ण निर्णय दस साल के डीज़ेल वाहन और पन्द्रह साल से ऊपर के पेट्रोल वाहनों का दिल्ली में चलने पर प्रतिबंध सम्बन्धी आदेश है जो किसी भी तरह से तार्किक नहीं लगता । यदि प्रदूषण रोकना है तो प्रदूषण के मानक पूरा ना करने वाले वाहनों को तब तक चलने से रोकना विवेक पूर्ण कदम होगा जब तक कि वह प्रदूषण सम्बन्धी टेस्ट को पास ना कर लें । ज़रा सोंचे कि अगर कोई वाहन पन्द्रह साल तक प्रदूषण का मानक पूरा करता रहा तो क्या वह वाहन सोलहवें वर्ष में जान बूझ कर मानक तोड़ने लगेगा ? नए वाहन और पुराने वाहन , सभी को ही प्रत्येक छह महीने बाद प्रदूषण नियंत्रण सम्बन्धी प्रमाण पत्र प्राप्त करना होता है तो कोई भी वाहन की सिर्फ़ और सिर्फ़ आयु के अनुसार कैसे किसी वाहन को नष्ट करने का आदेश देकर राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुक़सान कराने की ज़िद कर सकता है , यह बात समझ के बाहर है ।
देश वैसे ही विश्व भर में वाहनों की संख्या की दृष्टि से सबसे पीछे है और इस हालत में ठीक ठाक ढंग से काम करने वाले वाहनों को भी एक बेवक़ूफ़ी भरे तर्क के चलते नष्ट कराने की नीति के चलते स्क्रैप करा देना दुर्भागपूर्ण ही कहा जाएगा । होना तो यह चाहिए कि वाहनों से निकलने वाले धुएँ में प्रदूषण के स्तर की नियमित एवं कठोर जाँच की व्यवस्था कराई जाए और सभी वाहनों को तब तक चलने दिया जाए जब तक वह प्रदूषण के मानको को पूरा करता रहे ।
हमारे देश में बहुसंख्यक लोगों की चाहत अन्य लोगों की तरह ही एक चार पहिया वाहन कर पर चढ़ने की है जो पुरानी कार या वाहन ख़रीद कर पूरी होती रही है। देश के सौ करोड़ लोग आज भी नए वाहनों को ख़रीदने का सामर्थ नहीं रखते लेकिन पुराने वाहन उनकी सामर्थ की सीमा के तहत जरूर आते है । इस दृष्टि से पुराने वाहनों को अनावश्यक रूप से नष्ट करने की नीति देश के हित में बिल्कुल ही प्रतीत नहीं होती । ऐसा लगता है कि हमारे देश में निर्णय लेने वाले लोग अपने ही देश को ठीक से नहीं जानते जहां तीस- चालीस से भी अधिक पुरानी स्कूटर एवं अन्य वाहन को जुगाड़ के माध्यम से माल ढोने का वाहन बना कर आज भी प्रयोग किया जाता है जिनको दिल्ली के आस पास भी किसी भी समय चलते हुए देखा जा सकता है ।
देश के नीति निर्धारकों को सिर्फ़ नए मोटर , वाहन , ट्रक निर्माणकर्ताओं के ही हित को नहीं देखना चाहिए बल्कि उन सौ करोड़ लोगों की तरफ़ देख कर भी नीतियों का निर्धारण करना चाहिए जिनके लिए नई साइकल और दो पहिए वाहन ख़रीदना भी दिवास्वप्न ही है । यह देश १४० करोड़ लोगों का देश है ना कि बीस- तीस करोड़ सम्पन्न लोगों का । इस लिए सिर्फ़ प्रदूषण का बहाना लेकर बिना मतलब आम जनता को परेशान करना ठीक नहीं कहा जा सकता । सरकार को शीघ्र ही प्रदूषण को लेकर पुराने वाहनों को स्क्रैप करने की नीति को वापस लेकर वाहनों द्वारा प्रदूषण के मानक का सख़्ती से पालन करने पर कार्य करना चाहिए ।कोई भी सरकार आम जनों द्वारा ही चुनी होती है नाकि ख़ास जनों द्वारा ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)