इन्साफ़ का इंतज़ार

सबसे दुखदाई है न्यायिक प्रक्रिया में घोर विलंब।निर्णय तो दूर की बात है पहली सुनवाई में भी महीनों लग जाते हैं और वो भी तब जब आपके वकील की पहचान पेशकार से हो।वर्तमान में अदालतों में पाँच करोड़ से अधिक मुक़दमे लंबित है जिसमें कइयों को वर्षों हो गये हैं,निर्णय की आस में।एक प्रबुद्ध न्यायाधीश ने कहा था कि न्याय में देरी का अर्थ है
प्रो. एच सी पांडे

“पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा,
लो आज हम भी साहिब-ऐ-औलाद हो गये।”

जनतांत्रिक शासन व्यवस्था को मुख्यतः ३ स्तम्भों में आधारित माना जाता है,विधायिका,प्रशासन और न्यायपालिका ।अधिनियम,नियम तथा परिनियम,विधायिका व प्राधिकरण द्वारा रचित होते हैं,प्रशासन इनके अंतर्गत कार्यवाही करता है और न्यायपालिका सुनिश्चित करती है कि किसी भी स्तर पर,किसी भी रूप में,संविधान का उल्लंघन न हो।
मूलतः देश में सुव्यवस्था एवं समाज में ख़ुशहाली व स्थिरता,स्थापित न्याय की सुबोध,स्पष्ट एवं त्वरित कार्यशैली पर निर्भर रहती है ।देश में क़ानून-व्यवस्था के संदर्भ में आज की स्थिति चिंताजनक है और आम लोगों की राय में इसके तीनों मापदंड अति शोचनीय हैं।
सबसे दुखदाई है न्यायिक प्रक्रिया में घोर विलंब।निर्णय तो दूर की बात है पहली सुनवाई में भी महीनों लग जाते हैं और वो भी तब जब आपके वकील की पहचान पेशकार से हो।वर्तमान में अदालतों में पाँच करोड़ से अधिक मुक़दमे लंबित है जिसमें कइयों को वर्षों हो गये हैं,निर्णय की आस में।एक प्रबुद्ध न्यायाधीश ने कहा था कि न्याय में देरी का अर्थ है न्याय से वंचित करना।आज के संदर्भ में यह एक बेकार कथन है,जहां निर्णय आने तक ,वादी और प्रतिवादी की पीढ़ियॉं गुज़र जाती हैं। न्यायालय का मुक़दमों में तारीख़ पर तारीख़ पर तारीख़ देते रहना एक नियमित,सामान्य प्रक्रिया बन गई है,और ऐसा लगने लगा है कि माननीय न्यायाधीश निर्णय देने के बदले अगली तारीख़ देने में अधिक रुचि रखते हैं,बस कुछ बहाना चाहिए ।वादी,प्रतिवादी दोनों ही वर्षों कचहरी के चक्कर लगाते लगाते थक जाते हैं पर न्यायिक प्रक्रिया का अंतिम छोर दिखाई नहीं देता ।
एक ही प्रकार के तथ्यों पर आधारित मुक़दमों मैं,एक ही न्यायालय के अलग अलग निर्णय भ्रामक स्थिति उत्पन्न करते रहे हैं भी और जनता का विश्वास न्यायालय पर कम होता जा रहा है।न्यायाधीशों द्वारा मूल विषय पर मनचाही टिप्पणी करना और उसका उल्लेख लिखित निर्णय में न करना सामान्य जन की समझ से बाहर है और केवल संदेह पैदा करता है।ऐसे निर्णयों में स्पष्टता का अभाव झलकता है और संदेश जाता है कि या तो माननीय को विवाद का मुद्दा समझ ही नहीं आया है या किसी मजबूरी के कारण ऐसा किया है।
किसी भी व्यवस्था के लिये नियम,क़ानून बनाने के संदर्भ में टामस जैफरसन ने कहा था ‘Laws are written
for the ordinary people and so they must be based on ordinary rules of common sense.’
वास्तविकता यह है कि दंड संहिता को,हर प्रकार से अभेद बनाने के लिये, धाराओं में इतने खंड,उपखण्ड आदि बना दिये गये हैं कि सामान्य जन के लिये तो क्या,सामान्य अधिवक्ता के लिये भी किसी धारा को पूर्ण रूप से समझना कठिन है ।यही कारण है कि धारा का वास्तविक प्रयोजन किसी निपुण अधिवक्ता द्वारा निष्फल किया जा सकता है ।विद्वान न्यायाधीशों को भी दलीलें के मायाजाल को काटना सहल नहीं होता और निर्णय प्रभावित हो जाता है।
कहा जा सकता है कि पूरी न्यायिक व्यवस्था में ‘Structural defects’ हैं परंतु इनका उपयोग न्याय की पराजय के लिये करना निंदनीय ही नहीं आपराधिक कृत्य भी है।दुर्भाग्यवश देश में नामी- गिरामी वकीलों का एक वर्ग इसी मानसिकता का है और वे न्याय नहीं वैयक्तिक लाभ के लिये वकालत करते हैं ।
मानवीय कमज़ोरियाँ हर वर्ग में विद्यमान हैं और अनुशासन की लगाम से नियंत्रित रहती हैं ।प्रलोभन ही इस सामान्य स्थिति को डगमगाता है।न्यायिक प्रक्रिया में अधिवक्ता की अनिवार्य भूमिका है और उसके कदम डगमगाना किसी भी स्वस्थ समाज के लिये एक घातक संकेत है।

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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