हम सभी जानते हैं कि सतही स्तर पर किए गए बदलाव कभी भी वांछित परिवर्तन और सुधार लाने में सफल नहीं हो सकते । यह भी सर्वविदित है कि नयी शब्दावली से वास्तविकता नहीं बदलती और न अधूरी सिफ़ारिशों को आधे अधूरे मन से लागू करने से कोई चमत्कार होता है।परिणाम स्वरूप समस्या वहीं की वहीं खड़ी रहती है और शायद इसके चलते अगली सरकार को एक और नया शिक्षा आयोग बनाने का औचित्य मिल जाता है।
वी यस पाण्डेय , प्रोफ़ेसर यच सी पांडे
यह तथ्य सर्वमान्य है कि किसी भी देश को आगे जाने के लिए उसको सबसे पहले अपने लोगों को भली भाँति शिक्षित और प्रशिक्षित करना होगा । इतिहास के पन्ने इस बात के गवाह हैं कि वही देश सशक्त और समृद्ध हुआ जहां की शिक्षा प्रणाली उन्नत रही । आज का समय तो तकनीक और कम्प्यूटर का समय है और आगे आने वाले युग में आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स का बोलबाला होगा और इसके लिए देश को कैसे तैयार किया जाए , इसपर गहन विचार करके ज़रूरी कदम जल्दी उठाये जाने होंगे । इसी तरह किसी देश को या उसकी सभ्यता को नष्ट करना हो तो यह काम उस देश की शिक्षा और उसके गौरव को नष्ट करके जल्दी ही पूरा किया जा सकता है , और यही काम मैकाले ने १८३५ में हमारे देश के साथ किया जिसका ख़ामियाज़ा हम आज भी भुगत रहे हैं । उसने हमारी धरोहर और ज्ञान को बेकार बताते हुए पूरी शिक्षा प्रणाली को ईस्ट इंडिया कम्पनी और इंग्लिश साम्राज्य के हितों को पूरा करने के उद्देश मात्र के लिए बदल डाला ।
स्वतंत्रता के बाद शिक्षा प्रणाली को सुधारने के लिए कई रिपोर्ट बनी और न जाने कितने आयोग,शिक्षा नीति पर अपनी अंनुसंशायें दे चुके हैं पर किसी भी आयोग की सिफ़ारिशों को कोई भी सरकार ईमानदारी से पूरी तरह लागू नहीं कर पाई।यह ज़रूर है कि प्रत्येक आयोग और अध्ययन रिपोर्ट्स के साथ रस्में-अयादगी ज़रूर हुईं , उनकी संस्तुतियों को क्रान्तिकारी बताया गया और कहा गया कि अब शिक्षा स्तर आसमान छूने लगेगा । यह ज़रूर है कि नई नीति से नये नामकरण हुए , कई नाम-पट्ट बदले और बस हो गया शिक्षा क्षेत्र का कायाकल्प । हम सभी जानते हैं कि सतही स्तर पर किए गए बदलाव कभी भी वांछित परिवर्तन और सुधार लाने में सफल नहीं हो सकते । यह भी सर्वविदित है कि नयी शब्दावली से वास्तविकता नहीं बदलती और न अधूरी सिफ़ारिशों को आधे अधूरे मन से लागू करने से कोई चमत्कार होता है।परिणाम स्वरूप समस्या वहीं की वहीं खड़ी रहती है और शायद इसके चलते अगली सरकार को एक और नया शिक्षा आयोग बनाने का औचित्य मिल जाता है।
स्पष्टतः किसी भी कार्यक्रम की नियति उसके सूत्रधार की नियत पर निर्भर रहती है।काम करना है,तो काम होगा पर अगर दिखावा है तो फिर कोई भी नीति बेमतलब है। माना कि आज के राजनीतिक जीवन में बने रहने के लिये दिखावा ज़रूरी है,और दिखाने के दाँत भी चाहिये,पर हाथी के खाने के दाँत भी होते हैं तभी तो वह जीवित रहता है।आधुनिक विचारों की टाई लगाने से पहले बुनियादी यथार्थ की धोती कसनी भी ज़रूरी है।
कोई भी नीति,देश की समस्याओं,प्राथमिकताओं तथा उपलब्ध साधनों के परिपेक्ष में ही लागू हो सकती है।विकसित देशों की वर्तमान शिक्षा प्रणाली का अंधानुकरण घातक है क्योंकि ज़मीनी हक़ीक़त बिलकुल अलग है।इस धरती पर बैलगाड़ी भी चलती है और इसी धरती से मंगलयान भी अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाता है अर्थात गुलेल से लेकर राफ़ेल तक की पॉच हज़ार साल की सभ्यता सह-अस्तित्व में विराजमान है।अभी,कई दशकों तक,इस पूरे कालखंड की सभी आवश्यकताओं के संदर्भ में शिक्षा-दीक्षा उपलब्ध करानी है।कंप्यूटर पर,कंप्यूटर द्वारा,कंप्यूटर विज्ञान की शिक्षा,विकासशील देश के लिये पर्याप्त नहीं है।हर एक क्षेत्र में,देश की वर्तमान आवश्यकताओं अनुसार,हर स्तर पर,क्षैशणिक कार्य क्रम उपलब्ध होना आवश्यक हैं।
शिक्षा का मूल उद्देश्य है,आइंस्टाइन के शब्दों में ” स्वतंत्र विचार तथा कार्य करनेवाले व्यक्तियों को दीक्षित करना जो समाज की सेवा को जीवन का उच्चतम लक्ष माने।” आज हम कहॉं भटक रहे हैं यह सर्वविदित है।जब देश के प्रतिष्ठित संस्थान,अपने स्नातकों की सफलता का मापदंड,उनकी तनख़्वाह को माने,न कि उनके कार्य-कलाप को,तो अब क्या कहा जाय।आज देश में शिक्षा संस्थान का मूल्याँकन,परिसर के क्षेत्रफल,रंग-रोगन तथा उपकरणों की उपलब्धता पर होता है न कि वहाँ के अध्यापकों विद्वता,उनके विशिष्ट अनुसंधान कार्य, तथा उनके सामाजिक योगदान से।
सैकड़ों बरसों से उपेक्षित,देश के आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक ताने-बाने के पुनर्जन्म के लिये,शैक्षिक व्यवस्था में गुणवत्ता,उपलब्धता तथा सर्व-सुलभता आवश्यक है।उपलब्ध संसाधनों के आलोक में प्राथमिकताओं का निर्धारण अनिवार्य है तथा प्रत्येक उपकरण का अधिकाधिक उपयोग करना है।इस विशाल देश के हर शिक्षण संस्थान के हर विभाग को अपने आप में पूर्ण उपकरणयुक्त करना,न संभव है,न आवश्यक है। सर्वप्रथम हर उपकरण का,संपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करना आवश्यक है क्योंकि उपयोग ही उपलब्धता की आवश्यकता दर्शाता है।
सम्पन्न देशों में,विश्वविद्यालय स्तर पर भी संसाधन साझा किये जाते हैं।मूल्यवान संसाधनों की खरीद का औचित्य उनके यथासंभव साझा उपयोग द्वारा दर्शित होता है। खेल मैदान, सभागार, मेंहंगे उपकरण इत्यादि का विभिन्न संस्थानों द्वारा काम में लाना आम है।उदाहरणार्थ कम्प्यूटर युग के प्रारंभ में,अमेरिका में भी एक कम्प्यूटर केन्द्र ,कई विश्वविद्यालयों ने, रिमोट जॉब ऐन्ट्री’ प्रणाली द्वारा, वर्षों तक साझा किया। कई संस्थान,जहाँ के छात्र नोबेल पुरस्कार विजेता रहे हैं, उनके न तो लम्बे-चौड़े परिसर हैं ,न बृहत् सभागार ,न विशाल खेल मैदान। प्राथमिकता स्पष्ट है, समर्पित शिक्षक तथा मेधावी छात्र ही शिक्षा के स्तर को उठाते हैं ना कि चमकती दमकती दीवारें या फ़र्श । हमारे देश में शिक्षा को जब तक देश की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल करके पूरी प्रणाली को सशक्त और उन्नत नहीं बनाया जाए गा , तबतक उन्नत देशों का मुक़ाबला हम नहीं कर पाएँगे , यह तय है । देश को स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष २०४७ में पूर्ण विकसित देश बनाने का रास्ता उन्नत शिक्षा प्रणाली के मार्ग से ही गुजरता है । इस में कोई कोताही हुई तो फिर हमारे हाथ सिर्फ़ निराशा आएगी ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं, प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)