यूपीपीएससी ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी विश्वसनीयता खो दी है, सुधारात्मक कदमों की तत्काल आवश्यकता है
लोक सेवा आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाएँ लम्बे समय से कई कई बार विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं को ईमानदारी एवं निष्पक्ष रूप से सम्पन्न करा पाने में विफल होती रही हैं । कई बार पूर्व में परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होने के कारण परीक्षाओं को निरस्त करना पड़ा और कई बार तो परीक्षा और उसके परिणाम दोनों ही सन्देह के घेरे में आये ।ऐसी स्थिति लोक सेवा आयोग जैसी किसी भी महत्वपूर्ण संस्था के ऊपर आम जन का विश्वास घटना किसी भी सरकार के लिए गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए ।
वी यस पाण्डेय
हाल ही में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग प्रयागराज मुख्यालय पर हज़ारों प्रतियोगी छात्रों द्वारा कई दिनों तक पी॰सी॰एस॰ की परीक्षा प्रणाली में किये गए बदलाव को लेकर प्रदर्शन और घेराव किया गया । प्रतियोगी छात्रों की माँग को पहले तो अधिकारियों ने नकारने का प्रयास किया लेकिन कुछ ही दिन बाद परीक्षा प्रणाली में किए गए बदलाव को निरस्त कर के पूर्व की भाँति एक ही दिन में सभी परीक्षार्थियों की परीक्षा लेने की व्यवस्था बहाल कर दी गई । जनमत के सामने सरकार और उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग को नतमस्तक होना पड़ा , यह सन्तोष की बात है । लेकिन चिंता की बात तो यह है कि लोक सेवा आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाएँ लम्बे समय से कई कई बार विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं को ईमानदारी एवं निष्पक्ष रूप से सम्पन्न करा पाने में विफल होती रही हैं । कई बार पूर्व में परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होने के कारण परीक्षाओं को निरस्त करना पड़ा और कई बार तो परीक्षा और उसके परिणाम दोनों ही सन्देह के घेरे में आये ।ऐसी स्थिति लोक सेवा आयोग जैसी किसी भी महत्वपूर्ण संस्था के ऊपर आम जन का विश्वास घटना किसी भी सरकार के लिए गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए ।
दुर्भाग्य की बात तो यह है कि प्रदेश लोक सेवा आयोग की कार्य प्रणाली वर्षों से ठीक नहीं रही । पिछले दशक के दौरान पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में ऐसे एक व्यक्ति को उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया जिनका आपराधिक इतिहास रहा और वह अध्यक्ष पद की अर्हता को भी पूरा नहीं करते थे । उस समय लोक सेवा आयोग द्वारा कराई गई कई परीक्षाएँ संदेह के घेरे में आ गई और तत्कालीन लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पर पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाने के तरह तरह के आरोप भी लगे । स्थिति इतनी बिगड़ गई कि प्रतियोगी छात्रों को सड़क पर उतर कर आंदोलन करने की नौबत तक आ गई , लेकिन तब भी तत्कालीन सरकार और उसके मुखिया के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी । अंततः लोगों को न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा और इलाहबाद उच्च न्यायालय की पीठ द्वारा सभी तथ्यों को देखते हुए मामले में गम्भीर रुख़ अपनाया गया और तत्कालीन लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को बाहर का रास्ता दिखाया । लेकिन यह मामला अपवाद स्वरूप नहीं था , दशकों से सभी सरकारों द्वारा आयोग के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति को अपना विशेषाधिकार मानते हुए केवल सिफ़ारिशी और अपने लोगों को इन अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने का जो सिलसिला सत्तर के दशक से शुरू हुआ वह आज तक चला आ रहा है । सरकारों की इन कुकृत्यों की सजा जनता और आम जन आज तक भुगत रहे हैं । विडम्बना तो यह है कि यह प्रथा देश के लगभग सभी राज्यों में चली आ रही है और पिछले कुछ सालों में कई राज्यों के लोक सेवा आयोगों में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार के चलते कई अध्यक्ष और सदस्य जेल की हवा भी खा चुके हैं ।
लोक सेवाओं में अभ्यर्थियों के चयन में व्याप्त भ्रष्टाचार केवल लोक सेवा आयोगों तक ही सीमित रहा हो , ऐसा भी नहीं है । राज्यों द्वारा लोक सेवाओं में नियुक्तियों के लिए जितने भी आयोग या संस्थाएँ बनाई गई वह सभी भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई । मध्य प्रदेश का व्यापम घोटा जिसमें ना जाने कितने लोगों की जान भी चली गई , एक ऐसा उदाहरण है जो साफ़ करता है कि यह बीमारी देश की व्यवस्था की जड़ को भी चाट चुकी है । तमाम जाँचों के बाद और एक दशक का समय व्यतीत होने को आया लेकिन वास्तविक अपराधी अभी भी क़ानून की पकड़ से दूर हैं ।
अभी कुछ दिन पूर्व मशहूर समाचार पत्र इंडीयन इक्स्प्रेस के मुख्य पृष्ट पर उत्तर प्रदेश विधान सभा और विधान परिषद में बड़ी संख्या में की गई नियुक्तियों में की गई गड़बड़ी, घोटाले और पद के खुले आम दुरुपयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसको देख कर कोई भी सामान्य व्यक्ति व्यवस्था की सड़न की इस स्थिति को देख कर सिहर उठेगा । इन संस्थाओं के प्रमुख पदों पर बैठे लोगों द्वारा क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए जिस बेशर्मी से चयन प्रक्रिया का मखौल उड़ाया गया वह अकल्पनीय है । प्रमुख सचिव के पद पर कई दशकों से क़ाबिज़ व्यक्ति के द्वारा अपने कई सगे सम्बन्धियों को अपनी ही कलम से नियुक्ति प्रदान करने की कहानी अख़बार ने साफ़ तौर पर प्रकाशित किया लेकिन तब भी निष्ठा की शपथ खाकर सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों पर आज तक कोई असर नहीं पड़ा और दोषी आज भी अपने पदों पर क़ाबिज़ बने हुए है । इस मामले की गम्भीरता को देखते हुए इलाहबाद उच्च न्यायालय द्वारा पूरे मामले की सी॰बी॰आई॰ द्वारा जाँच कराए जाने के आदेश भी दिए गए लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि क़ानून के हाथ की जगह अब भ्रष्ट लोगों के हाथ अब कहीं और लम्बे हो गए हैं , उच्च न्यायालय द्वारा इस भ्रष्टाचार के मामले की जाँच को उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थगित कर दिया गया ।
प्रश्न यह है कि यह सब अंधेरगर्दी आख़िर कब तक निरीह जनता को भुगतना पड़ेगा ? इसका उत्तर स्पष्ट और सीधा है – जब तक आम जन भ्रष्ट और अकर्मण्य लोगों को जाति , धर्म और पैसे के बल पर चुनते रहेंगे । लोगों को यह समझना होगा कि उनके सर पर सवार यह भ्रष्ट शासक उनकी स्वयं की देन हैं । आख़िरकार हम सब ने ही अपनी आँख कान बंद करके इन भ्रष्ट नेताओं के झूट और फ़रेब में फँस कर जाति , धर्म के नाम पर और पैसे और पौव्वा लेकर अपने ऊपर शासन करने के लिए इन सब को बैठाया है , तो हम सब को ही अब आँख कान खोल कर जाति , धर्म , पैसे और पौव्वे का मोह त्याग कर वोट दे कर साफ़ सुथरे लोगों को चुनना होगा तभी देश और प्रदेश इस भ्रष्टाचार की त्रासदी और अंधेर से मुक्ति पा सकेगा ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)