गैरभाजपावाद विपक्ष की एकजुटता में अहम की लड़ाई

राजेन्द्र द्विवेदी

देश में पहली बार गैर भाजपावाद पर 2019 लोकसभा चुनाव होने जा रहा है। इस चुनाव में विपक्षीय एकता सभी दल चाहते है लेकिन आपस में अहम की लड़ाई बाधक बनी हुई है। अभी तक चुनाव गैर कांग्रेस वाद पर लड़े जाते थे। लेकिन उसमे किसी न किसी बड़े नेता के नाम पर प्रधानमंत्री के पद को लेकर सहमति बनती रही है। 1977 जयप्रकाश नारायन के नेतृत्व में गैर कांग्रेस वाद पर आंदोलन में मोरार जी देसाई जैसे कद्दावर नेता की अगुवाई में केन्द्र में सरकार बनी। 1989 में वी पी सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन हुआ और जनता दल की सरकार बनी। इसके बाद अटल विहारी वाजपेयी जैसे नेता के अगुवाई में विपक्षी एक जुटता होती रही। अटल विहारी वाजपेयी ऐसे सर्वमान्य नेता थे । जिनके नेतृत्व में महागठबन्धन होता रहा। 2014 में मिली अप्रत्याशी सफलता से पहली बार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। भाजपा की सरकार बनने के बाद 2014 से अभी तक जितने भी चुनाव हुए मोदी की लोकप्रियता बढ़ती गयी आैर सभी राज्यों के चुनाव में भाजपा की सरकार बनी। भाजपा के बढ़ते ग्राफ से कांग्रेस सहित विपक्षी दलों में जबरदस्त अकुलाहट है लेकिन अहम के टकराव में महागठबन्धन के नेतृत्व पर फैसला नही हो पा रहा है। कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में सभी विपक्षी दलों को एक जुट कर पायेगी इसमें संदेह दिखायी दे रहा है। इसका उदाहरण यही है कि दो दिन पहले कार्य समिति की बैठक में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करने वाली कांग्रेस दो दिन बाद ही किसी दूसरे नेता के नाम पर भी प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के लिए तैयार हो गयी है। क्योंकि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनाये जाने पर केवल देवगौडा ने ही अपनी सहमति दी थी। दूसरे विपक्ष दल शांत रहे। कांग्रेस का यह कहना कि गैर संघी पृष्टि भूमि वाले नेता को प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनाया जा सकता हैं। कांग्रेस की इस बयान से मायावती आैर ममता के साथ शरदपवार जैसे नामों पर भी चर्चा शुरू हो गयी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक ऐसा ब्राण्ड बन चुके है जिनके खिलाफ विपक्ष में एैसा कोई कद्दावर नेता नही बचा है जिस पर जनता भरोसा करें। विपक्ष की यह पीड़ा है कि मायावती, ममता, चद्रबाबू नायडू, अखिलेश यादव, शरद पवार, जैसे नेताओं की एक लम्बी कतार है जो प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है। इन सभी नेताओं के पास एक- क राज्य है जिनमें सर्वाधिक 80 सीटें उत्तर प्रदेश में अगर सपा बसपा का गठबन्धन होता है आैर जातीय समीकरण के आधार पर सर्वाधिक सीटे विपक्षी दलों में कांग्रेस को छोड़कर गठबन्धन को मिलती है तो निश्चित रूप से मायावती प्रधानमंत्री पद की प्रबल दावे दार होगी। मायावती विपक्ष में दलित होना भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं। 2014 लोकसभा चुनाव में शून्य सीट पाने के बाद भी बसपा को उत्तर प्रदेश में 19 प्रतिशत और पूरे देश में 4 प्रतिशत मत मिले थे। भाजपा एवं कांग्रेस को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे स्थान पर सर्वाधिक मत पाने वाली बसपा ही है। विपक्ष में ऐसा कोई सर्वमान्य नेता नही दिखायी दे रहा है जिसके नेतृत्व में गैर भाजपावाद पर 2019 का चुनाव लड़ा जाय। राज्य स्तरीय नेता अहम के कारण अपने बीच किसी भी नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाने के पक्ष में सहमति नही हो पा रही है। जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा क्योंकि तमाम खामियों के बाद भी आज भी नरेन्द्र मोदी जैसा कद्दावर नेता विपक्ष के पास नही है।

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