अर्बन मिर्रर समवाददाता
लखनऊ, 12 सितम्बर 2018- राजनीतिक दलों को अब एहसास हो गया है कि नीतियों और कार्यक्रमों पर वोट नही मिलते। देश में सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों में बढ़ती गठबंधन की प्रवृति उनकी वादा खिलाफी और कमियां का एहसास करा रहा है। जनता के समक्ष वादों के मुकाम पर सभी दल नाकाम साबित हुए है। गठबंधन में तमाम दलों के पास सभी वर्गो को जोड़ने का मुद्दा नही रह गया है। राजनीतिक दलों की स्थिति जातीय, क्षेत्रीय और धार्मिक भावनाओं को उभारकर सहानुभूति हासिल करने में ही लगा हुआ है। यही वजह है कि बदलते परिवेश के अनुरूप राजनीतिक दल भी चोला बदलने में माहिर हो गये है।
राजनीतिक दलों के इस बदलते तेवर में सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खिसक गया है। भाजपा और बसपा के उभार के कारण ब्राह्मण और दलित पहले ही बिछड़ गये थे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के हिन्दूत्व ने जो कमाल दिखाया है, उससे मुस्लिम परस्त राजनीतिक दलों को अपने पैर पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा है। आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरु के साथ जुड़े पंडित शब्द ने कांग्रेस को दशको तक संजीवनी दी थी। नेहरु परिवार के आधुनिकता और जाती तोड़ो अभियान तथा ब्राह्मणों के खिलाफ अभियाओं ने इस मिथक को तोड़ दिया। इसके बाद राजनीतिक तौर पर हिन्दू्त्व के स्थान पर मुस्लिम वोट बैंक को तरजीह दिये जाने से भी स्थितियां में काफी बदलाव आया। अब जबकि हिन्दू समाज विभिन्न वर्गो में बंटे होने के कारण एक बार फिर से ब्राह्मण के अस्तित्व को नकारने की प्रवृति उनके पक्ष में खड़े होने लगी है। ब्राह्मणों को सर्वाधिक अपशब्दों को प्रयोग करने वाली बहुजन समाज पार्टी को यूपी के विधानसभा चुनाव में 2007 में ब्राह्मण वर्ग के समर्थन से ही पूर्ण सत्ता हासिल हुई। यही वजह रही कि जातीय राजनीति से घिरी पार्टिया भी ब्राह्मण वर्ग के समर्थन के लिए एकजुट होने लगी। कांग्रेस को इसका एहसास 2014 के बाद हुआ। हिन्दूत्व और ब्राह्मण के मर्म को न समझने वाले राहुल गांधी को भी उनके सरपरस्तों ने समझाया कि भारतीय राजनीति में ब्राह्मण के अलावा उनकी नैया कोई पार नही लगा सकता है। ईसाइत से प्रभावित राहुल गांधी का हिन्दूत्व गुजरात विधानसभा के चुनाव में उभर कर आया और मंदिर-मंदिर शुद्धीकरण के बाद राहुल कट्टर “जनेऊधारी” ब्राह्मण हो गये। वैसे जनेऊधारी ब्राह्मण नाम का कही उपयोग नही होता। इससे ही राहुल का मन नही माना और हिन्दूत्व की धारा ने उन्हें ऐसा प्रभावित किया कि हवा में जब जहाज डगमगाने लगा तो भोले बाबा की याद आयी और वह कैलाश मानसरोवर चले गये। अब ऐसे में समाज के सभी वर्गो को आत्मसात करने वाला ब्राह्मण राहुल को अपना ही लेगा, ऐसा कांग्रेस का विश्वास बढ़ा है। वैसे भी हिन्दूत्व की जातीय राजनीति को समेटने में गले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पूरा फोकस अति पिछड़े और अति दलित पर ही केन्द्रित है। वैसे भी भाजपा अध्यक्ष हिन्दू न होकर उसकी शाखा जैन सम्प्रदाय से आते है। मोदी और शाह की नजर में भी ब्राह्मण मुखौटा है। यह जोड़ी हिन्दू समाज के दो प्रखर जातियों ब्राह्मण और क्षत्रिय में विभेद तथा विवाद खड़ा कर साधने में लगे हुए है। अनुसूचित जाति के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संशोधन कर भाजपा ने पूरे सवर्ण समाज को असली आइना दिखा दिया है। हालात यह है कि भाजपा के सवर्ण नेता अब अपनों के बीच जबाव देने की स्थिति में नही रह गये है।
कांग्रेस के बाद पश्चिम बंगाल में ममता की हिन्दूत्व के खिलाफ कट्टरता कम होती नजर आ रही है। पिछले दुर्गा पुजा पर प्रतिबंध लगाने का आदेश देने वाली ममता अब मोहर्रम पर हथियार न लहराने की बात कहने लगी है। इसी प्रकार मुस्लिम परस्ती का राग अलापने वाले दलों सपा, बसपा, वामपंथी आदि के भी तेवर ढीले होने लगे है। हालात यह है कि तेलंगाना जैसे छोटे राज्य में ही कांग्रेस के साथ वामपंथी और टीडीपी जैसे कई दल एकजुट हो रहे है। यूपी में पहले से ही कट्टर विरोधी रहे सपा-बसपा एकजुट होने को तैयार बैठे है। 2017 के चुनाव बाद से सपा-बसपा इतना परेशान है कि वे अपने सभी पुराने गिले-शिकवे भूलकर एकजुट होने को तैयार है। इस एकता के लिए सपा हर तरह का त्याग करने को तैयार है। सपा लोकसभा की 15 से 20 सीटों पर ही चुनाव लड़ने को भी तैयार है और बसपा को साथ लेने के लिए ज्यादातर सीटें उन्हें देना चाहती है। असल में सपा नेता अखिलेश यादव बसपा की मायावती को प्रधानमंत्री का सपना दिखाकर उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने का सपना देख रहे है। वैसे अखिलेश को यह किस आधार पर विश्वास हो रहा है कि अगले विधानसभा चुनाव तक मायावती उनके साथ रहेगी। भाजपा और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बन रहे गठबंधन में परस्पर विरोधी दल क्षेत्रीय आधार पर एकजुट हो रहे है। इन दलों को अपने राज्यों के अलावा अन्य कही कोई आधार ही नही है। इस कड़ी कांग्रेस के साथ वामपंथी, एनसीपी, डीएमके, टीडीपी, तृणमूल, राजेडी, सपा, बसपा, लोकदल आदि है। नीतियों और कार्यक्रमों से इन दलों का आपसी कोई तालमेल नही है। यही नही यह सभी दल कई बार एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोकते रहे है। अब भाजपा और मोदी विरोध के नाम पर इन सभी दलों के आपसी मतभेद खत्म हो गये है। इन दलों के बीच नेतृत्व पर भी कोई बात नही बन रही है। चर्चा यह है कि मोदी के हटने पर सभी नेता चुन लेगे। इस प्रकार विपक्षी गठबंधन नेता विहिन, नीति विहिन और मुद्दा विहिन है