राजेन्द्र द्विवेदी
राजस्थान राज्यों में एक महत्वपूर्ण राज्य है जिनमें 25 लोकसभा और 200 विधानसभा की सीटें हैं। राजस्थान की सियासत आज़ादी के बाद से ही रियासतों में बँटी हुई है। बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में रियासतों के साथ-साथ जाति और समाज भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के चुनावी रणनीति में रियासत और जाति दोनों प्रमुख्ता से शामिल है। 2018 चुनाव की घोषणा हो चुकी है। चुनाव प्रक्रिया शुरू है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी दोनों की रैलियां हो रही हैं और एक दूसरे पर व्यक्तिगत स्तर पर भी आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं।
चुनाव के माहौल और मतदाताओं की राय तथा राजनीतिक दलों की चुनावी तैयारियों का अध्यन करने के लिए यूरीड मीडिया टीम के साथ 10 दिनों तक दूर दराज़ ग्रामीण अंचलों तथा शहरी क्षेत्रों का दौरा किया। राजनीतिक दलों के नेताओ से मुलाकात की और पुराने चुनाव परिणाम का विश्लेषण किया तो उससे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि राजस्थान की सियासत रियासत और जातीय समीकरण में उलझी हुई है।
परिसीमन के बाद 2008 और 2013 दो विधानसभा चुनाव हुए हैं। दोनों चुनाव में कांग्रेस एवं भाजपा ने टिकट बटवारें में जातीय धार्मिक एवं विभिन्न समाजों को जोड़ने के लिए टिकट का बटवारां किया है। 2018 में जातियों में जातियां विभाजित करके भाजपा और कांग्रेस दोनों प्रत्याशी के चयन करने में जुटी हुई है। कांग्रेस एवं भाजपा के जातीय सियासत की कमजोरी का फ़ायदा जाति एवं समाज से जुड़े विभिन्न जाति एवं समुदाय के नेता समझ गये हैं और वह दोनों दलों से अपने अपने समाज को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने के लिए दवाब बना रहे हैं। राजस्थान में 200 विधानसभा सीटों में 33 SC और 25 ST के लिए आरक्षित है 142 सामान्य सीट है। कांग्रेस और भाजपा दोनों SC एवं ST और पिछड़े वर्ग में जाट, गुर्जर तथा SC में मेघवाल को जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं। सामान्य वर्ग के राजपूत, ब्राहमण, वैश्य मतदाता और इनके नेता दोनों कांग्रेस एवं भाजपा पर दबाव बना रहे हैं कि बिना सामान्य वर्ग के समर्थन से सरकार नहीं बन सकती है। SC/ST एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण का भी प्रभाव सामान्य जातियों में देखा जा रहा है।
भरतपुर से जयपुर बीकानेर से लेकर जैसलमेर तक लगभग 1500 किलोमीटर के 10 दिवसीय यात्रा में राजनीतिक दलों का सियासी चेहरा और रियासतों की वर्चस्व की लड़ाई दूर दराज अंचलों तक दिखाई दे रही है। मतदाता भाजपा सरकार से विशेषकर मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे से बहुत नाराज़ हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अभी भी सहानभूति रखते हैं। यूरीड सर्वे टीम के मतदाताओं से पूछे गए सवालों पर बहुत ही रोचक जवाब भी मिले। मतदाता वसुन्धरा राजे से क्यों नाराज़ है इस सवाल पर विकास से ज्यादा मुख्यमंत्री का व्यवहार बताया। आरक्षण और SC/ST एक्ट, राफेल डील में भ्रष्टाचार के आरोप तथा विकास कार्यों के सवालों के जवाब में मतदाता बटें दिखाई दिए। अगर मतदाताओं की संख्या की राय को प्रतिशत में तब्दील करें तो यह 50 प्रतिशत, 40 प्रतिशत और 10 प्रतिशत में विभाजित होगा। 50 प्रतिशत मतदाता कांग्रेस के साथ तो 40 प्रतिशत भाजपा के समर्थन में और 10 प्रतिशत बसपा सहित अन्य छोटे-छोटे दल व जातीय आधार पर बनी पार्टियों के साथ हैं।
मतदाताओं की जागरूकता से भाजपा और कांग्रेस दोनों में टिकट बटवारे को लेकर बेचैनी दिखी। भाजपा ऐन केन प्रकरेण सत्ता बरकरार रखने के लिए जातीय संतुलन बना करके टिकट बटवारें की कवायत में जुटी हैं। 2008 में भाजपा ने 30 राजपूत, 19 ब्राह्मण, 18 वैश्य, 7 गुर्जर, 4 मुस्लिम, 60 पिछड़ी और 62 दलित प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। जबकि कांग्रेस ने 20 राजपूत, 20 ब्राह्मण, 14 वैश्य, 10 गुर्जर, 17 मुस्लिम, 56 पिछड़ी जाति और 63 SC/ST को टिकट दिया था। 2008 में 96 सीटों के साथ कांग्रेस ने सरकार बनाई जबकि 2013 के चुनाव में भाजपा कांग्रेस से सत्ता छीनने में सफल रही। 2013 में भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ने जातीय एवं धार्मिक समीकरण के अनुसार ही प्रत्याशी मैदान में उताड़े थे लेकिन कांग्रेस के खिलाफ ऐसी हवा चली कि भाजपा तीन चौथाई बहुमत से सरकार बनाई भाजपा को 163 सीट 45 प्रतिशत मत मिले जबकि कांग्रेस की सीटें 96 से घट कर 21 रह गयी और 33 प्रतिशत मत मिले। बसपा जो दलित वोट बैंक की दावं पेच कर रही वह 195 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन उसका मत प्रतिशत 2008 से घट कर आधा हो गया। 2008 में 7.60 प्रतिशत मत बसपा को मिले थे जो 2013 में घट कर 3.48 प्रतिशत रह गया।
2018 में चुनावी सरगर्मियों के बीच बसपा ने 2008, 2013 की तरह 2018 में अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया है। कुछ चुनिंदा विभानसभा क्षेत्रों में जहाँ बसपा ने मजबूत और जातीय समीकरण के अनुसार प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है उन क्षेत्रों में बसपा और मायावती की चर्चा है अन्यथा कांग्रेस और भाजपा ही आमने सामने हैं। टिकट बटवारा के साथ-साथ राजघरानों की भी भूमिका मतदाताओं के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। पुराने राजनीतिक राजघरानो के सियासत को इतिहास की तरह सुनाते हैं जयपुर में फूल सिंह नामक वृद्ध मतदाता जो डिग्री कॉलेज में शिक्षक रहे हैं उन्होने राजघरानो के राजनीतिक इतिहास और वर्तमान में रियासतों के वजूद के मतदाताओं के प्रभाव पर अपनी बेबाक राय दी और बताया कि राजपूतों की सियासत 1948 से भारत में विलय के साथ ही शुरू हो गयी थी। पहले आम चुनाव 1951-52 में राजघराने राजनीति में प्रवेश कर गए। इस चुनाव में बीकानेर के महाराजा करणीं सिंह ने 28 साल के उम्र में चुनाव लड़ा और सांसद चुने गए। राजघरानों का सियासत में शुरू हुआ सिलसिला आज राजस्थान में वर्चस्व स्थापित कर चूका है। राजघराने कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों से जुड़े है लेकिन भाजपा में संख्या अधिक हैं । जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी से शुरू हुआ सिलसिला भाजपा में मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे, दीया कुवारी बीकानेर की पूर्व राजकुमारी जैसे कई प्रमुख नाम शामिल है जबकि कांग्रेस के पास अभी अलवर के जीतेन्द्र सिंह और कोटा के इज्यराज सिंह तथा जोधपुर की चंद्रेश कुवारी का नाम जुड़ा हुआ है। राजघरानों की सियासत का फ़ायदा राजनीतिक दलों को मिलता है। जयपुर के बाद जैसलमेर का राजघराना भी कांग्रेस से सियासत करने के लिए आगे आया है। राजघरानो की सियासत से जुड़ने की बात करें तो एक लम्बी सूची है जिनमें जयपुर से जयपुर राजघराना पूर्व राजमाता गायत्री देवी से लेकर लगातार तीन पीढ़ियों से राजनीति में है। दिया कुवारी सवाई माधवपुर से भाजपा विधायक हैं। धौलपुर राजघराने से जुडी मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे दुसरी बार मुख्यमंत्री बनी है एक बार केंद्रीयमंत्री और पाँच बार सांसद रह चुकी है। बीकानेर राजघराना से जुड़े करणीं सिंह 1952 से लेकर 1977 तक लगातार सांसद रहे और अब उनकी पोती सिद्धि कुवारी भाजपा से विधायक हैं इसी तरह डूगरपुर के राजघराने से जुड़े लक्ष्मण सिंह, अलवर राजपरिवार से भवर जीतेन्द्र सिंह, करौली राजपरिवार से विजेंद्रपाल सिंह, भरतपुर राजपरिवार से विश्वेन्द्र सिंह, भरतपुर राजपरिवार के मान सिंह और झालावाड़ से सांसद रहे बृजराज सिंह तथा जैसलमेर जोधपुर राजघरानो से जुड़े सदस्य राजनीतिक रूप से आज भी सक्रिय है। इन राजघरानों के सदस्य भाजपा और कांग्रेस दोनों से जुड़े हैं। यशवंत सिंह जो भाजपा के बहुत बड़े कद्दावर नेता रहे हैं मोदी से नाराज़ होकर अलग पार्टी बनाई चुनाव लड़े और चुनाव हार गये और उनका प्रभाव अभी भी 4 जनपदों
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