गठबन्धन एवं समर्थन की सियासत से हाशिये पर पहुंची कांग्रेस

राजेन्द्र द्विवेदी

लखनऊ । उत्तर प्रदेश में 1989 से लेकर लगभग तीन दशक हो गए कांग्रेस सत्ता से बाहर है। इस दौरान कांग्रेस 1991 से 1996 और 2004 से 2014 तक केन्द्र में सत्ता में रही । 1991 से 1996 पी.वी. नरसिंम्हाराव और 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे । इन 15 वर्षो तक केन्द्र की सत्ता में रहते हुए कांग्रेस नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने के लिए सार्थक प्रयास नही किया और न ही उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को नेतृत्व की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी। आया राम- गया-राम और कांग्रेस को गाली देने वाले अवसरवादी नेताओं को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौपी जिसका परिणाम यह रहा कि अवसर आते ही अवसरवादी नेता कांग्रेस को धोखा देकर दूसरे दलों में चले गये। ऐसे नेताओं की एक लम्बी सूची है जिसमें रीता बहुगुणा जोशी, जगदम्बिका पाल आदि तमाम प्रमुख चेहरे शामिल है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने रायबरेली और अमेठी संसदीय क्षेत्र को ही पूरा उत्तर प्रदेश मान लिया। केन्द्र में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए समस्त महत्वपूर्ण उद्योग और स्वास्थ्य एवं शिक्षा संबधित सुविधाएं केवल रायबरेली एवं अमेठी तक ही सीमित रही। उत्तर प्रदेश के 78 संसदीय क्षेत्र कांग्रेस के केन्द्र मे रहते हुए उपेक्षा के शिकार रहे। कार्यकत्ताओं एवं जमीनी नेताओं को महत्व न मिलने से आया-राम-गया-राम जैसे नेताओं को प्रदेश की कमान दी और उनके सलाह पर गठबन्धन और समर्थन का ऐसा दौर शुरू हुआ जो तीन दशक से जारी है। भविष्य में जिस तरह से गठबन्धन की सियासत में कांग्रेस जुटी हुई है ऐसे में अगले 50 वर्षो में भी कांग्रेस कभी भी उत्तर प्रदेश में सत्ता में नही आ पायेगी। संसदीय क्षेत्र अमेठी एवं रायबरेली तक सीमित रहेगी । 2019 लोकसभा चुनाव को लेकर राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में जनभावनाओं का अनादर करते हुए जिस तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त एवं जातीय आधार पर बनी राजनीतिक दलों के सहारे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करना चाहते है यह कांग्रेस नेतृत्व की सबसे बड़ी भूल है। प्रदेश की जनता भाजपा सरकार से संतुष्ट नही है। मंहगाई एवं बेरोजगारी को लेकर जबरदस्त आक्रोश है। SC/ST Act एवं प्रमोशन में आरक्षण को लेकर पिछड़े एवं सामान्य वर्ग में भाजपा के खिलाफ नाराजगी है। अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय धार्मिक आधार पर भाजपा से दूर है और पेन्शन बहाली को लेकर कर्मचारी आन्दोलित है। किसानों में डीजल एवं खाद एवं बीज की कीमतों में हो रही बढोत्तरी तथा फसल का उचित मूल्य न मिलने और गन्ना के बकाया का भुगतान न होने से जबरदस्त नाराजगी है। नौजवान रोजगार न मिलने से परेशान है मजदूर जो गुजरात और महाराष्ट्र में मजदूरी कर रहे थे उन्हें भगा दिया गया है। जिससे उत्तर प्रदेश के मजदूरो एवं गरीबों में जो गुजरात में रोजगार जो अवसर तलाश रहे थे, आक्रोशित है। लगातार हो रही हत्याओं से भय का वातावरण बना हुआ है। ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ आक्रामक राजनीति करने के स्थान पर सपा, बसपा की बैशाखी ढूंढ रहा है जिसे 2017 में जनता ने पूरी तरह से नकार दिया। सपा एवं बसपा द्वारा जातीय आधार पर की जा रही सियासत पर जातियों में कई उप-जातियां के नेता पैदा हो गये है जो जाति के नाम पर राजनीति करने से वाले दल के लिए चुनौती बनते जा रहे है। सपा के लिए शिवपाल सिंह यादव चुनौती बने हुए है। बसपा की नेता मायावती द्वारा टिकट देने के नाम पर लिये जा रहे धनराशि के आरोपों तथा भ्रष्टाचार की सी.बी.आई. जांच से बचने के लिए भाजपा के इशारों पर की जा रही राजनीति के आरोपों से जनता में साख गिर रही है। 2014 लोकसभा चुनाव में जिन 34 स्थानों पर बसपा दूसरे स्थान पर थी उसमें से प्रभावशाली 20 से अधिक दूसरे स्थानों पर रहे प्रत्यशाी बसपा छोड़ चुके है। राजभर सहित तमाम 40 से अधिक छोटे-छोटे दल जातीय आधार पर टिकट की मांग कर रहे है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए आक्रामक राजनीति का एक बहुत ही बेहत्तर अवसर है। जनता जानती है कि केन्द्र में भाजपा का मजबूत विकल्प कांग्रेस ही है लेकिन कांग्रेस ही अपना महत्व उत्तर प्रदेश में नही समझ रही है। आत्मविश्वास और कर्मठ ईमानदार नेताओं के अभाव में कांग्रेस वैशाखी का सहारा ढूंढ़ रही है। कांग्रेस निष्पक्ष रूप से समीक्षा करे कि 30 वर्षो से सत्ता से बाहर क्यों है? और 80 में मात्र दो लोकसभा सीटें गांधी परिवार ही क्यों जीती है ? तो जबाव स्वतः मिल जायेगा। 1989 से गठबन्धन एवं समर्थन से ही कांग्रेस की दूर्दशा हुई है। साम्प्रदायिका के नाम पर 1990 में मुलायम सिंह सरकार का समर्थन, 1996 में बसपा के साथ चुनावी गठबन्धन और 2017 में सपा के साथ चुनावी ताल-मेल सबसे बड़ी भूल मानी जायेगी। 1990 में कांग्रेस ने मुलायम सरकार को अगर न बचाया होता तो कांग्रेस ही विकल्प बनती। मुलायम को समर्थन देने से कांग्रेस भी बहुत कमजोर हुई। 1990 में समर्थन के बाद मुलायम सिंह यादव की 45 दिनों की 48 रैलियां, अयोध्या में परिन्दा पर नही मारेगा, कारसेवको को प्रदेश भर के स्कूलों को कारागार में तब्दील कर की गयी गिरफ्तारी से ही 1991 में भाजपा की उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। मुलायम सिंह ने राजनीति और जनभावनाओं को देखते हुए 1993 में काशीराम की बसपा से समझौता करके 06 दिसम्बर 1992 को बर्खास्त की गयी भाजपा सरकार का विकल्प बनकर उभरे और गठबन्धन की सरकार बनायी। 1993 का विधानसभा चुनाव जातीय एवं धार्मिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण है। 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में विवादित मंदिर-मस्जिद का ढ़ाचा टूटा जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंम्हा राव ने उत्तर प्रदेश राजस्थान मध्य प्रदेश सहित 4 भाजपा की सरकारों को बर्खास्त कर दिया था जिससे धार्मिक उन्माद था। सपा बसपा के गठबंधन से जातीय ध्रुवीकरण हुआ इसके बाद भी कांग्रेस को 15 प्रतिशत मत मिले थे । लेकिन काँग्रेस ने गलती करके 1996 में बसपा से चुनावी समझौता किया और मात्र 125 सीटों पर चुनाव लड़ी । जिसका प्रभाव यह रहा कि 15 प्रतिशत से वोट घट कर ७ प्रतिशत रह गया 8 प्रतिशत मत बसपा के साथ जुड़ गई जिसे काँग्रेस आज तक वापस नहीं ला पायी । इससे काँग्रेस ने सबक नहीं सीखा और 2017 में सपा से चुनावी गठबंधन किया और फिर 125 सीटों पर चुनाव लड़ी जिसका हश्र यह रहा कि मात्र 7 प्रतिशत वोट और 7 सीटों पर सिमट गयी। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुत अंतर है 2014 में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त माहौल था वैसा ही माहौल भाजपा सरकार के खिलाफ है लेकिन कांग्रेस उत्तर प्रदेश में डरी एवं सहमी हुई है गठबंधन एवं समर्थन से हाशिये पर पहुंची कांग्रेस कार्यकर्ताओं का आत्मविशवास और मनोबल टूट चूका है। केंद्रीय नेतृत्व राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ आक्रामक राजनीति करने में सपा बसपा की बैशाखी ढूंढ रहे है जो कांग्रेस के भविष्य के लिए दुखद ही रहेगा। देश में जो हालात हैं कांग्रेस आक्रामक होकर भाजपा के खिलाफ अभियान शुरू करे तो आने वाले दिनों में भाजपा का सीधा विकल्प कांग्रेस बन सकती है ? बशर्तें नेता और कार्यकर्त्ता को भरोसे में लें और उनमें यह विश्वास जताये कि जिस तरह से 2017 में 27 साल यूपी बेहाल का नारा देकर सपा के खिलाफ अभियान चलाने के बाद चुनाव के बीच अखिलेश की गोद में बैठ गए थे अब वैसा 2019 में नहीं होगा? अगर कांग्रेस नेतृत्व पर कार्यकर्ताओं और नेताओं ने भरोसा किया तो आने वाले दिनों में कांग्रेस के पास मजबूत प्रत्याशियों की कमी नहीं होगी और 2009 की पुनरावृत्ति हो सकती है ? 2009 में काँग्रेस को 21 सीटें मिली थी ।

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