News Updates

(Update 12 minutes ago)

कोरोना युद्ध, चेहरे बेनकाब

राजेन्द्र द्विवेदी,

कोरोना वायरस को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युद्ध घोषित किया है। देश के राजनीतिक दल नौकरशाह एवं राष्ट्रभक्त तथा मीडिया और कुछ प्रतिशत जनता इसे गंभीरता से नहीं ले रही हैं। युद्ध घोषित करते समय प्रधानमंत्री को युद्ध के समय लागू किये जाने वाले सभी नियमों को भी पारदर्शिता के साथ देश को बताना चाहिए। युद्ध कह देने से ही युद्ध की लड़ाई को बिना संवाद और तैयारी के मुकबला नही किया जा सकता। कोरोना युद्ध का अगर हम सिल-सिलेवार विश्लेषण करे तो राजनीतिक दल, नौकरशाह एवं तथा राष्ट्र भक्त और मीडिया के चेहरे बेनकाब होते जा रहे है। युद्ध जैसी आपात स्थिति के लिए किसी का भी सहयोग चाहे वो राजनीतिक दल या नौकरशाह अथवा राष्ट्रभक्त और मीडिया हो, सभी के कथनी और करनी में विरोधाभास दिखायी दे रहा हैं। युद्ध के लड़ाई में एकजुटता, भरोसा, सहयोग और संवाद बहुत जरूरी हैं। लड़ाई का नेतृत्व करने वाले कमांडर को देश के साथ संवाद करके भरोसा जीतकर, सहयोग लेकर एकजुटता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसा नही हो रहा है।

कोरोना वायरस दुनिया में कहर बरपा रहा है। इसकी शुरूआत नवम्बर 2019 में चीन के वुहान शहर से शुरू हुई थी जिसका विस्तार आज दुनिया के 220 देशों तक हो चुका हैं। सवा दो लाख से अधिक लोग मारे जा चुके है और 32 लाख से अधिक पीड़ित है। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह तीसरा ऐसा विश्व युद्ध है जो हथियारों से नही वायरस से लड़ा जा रहा है। इस युद्ध की शरूआत चीन से हुई। 6 महीने होने जा रहे है। 200 से अधिक गरीब, अमीर सभी देश प्रभावित है। युद्ध का अंत कब और कैसे होगा इसको दुनिया के ताकतवर देश, भविष्य वक्ता भी नही बता पा रहे हैं। विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका कोरोना वायरस से त्राहिमाम कर रहा हैं। यूरोपीय देश जिनकी स्वास्थ्य सेवाएं दुनिया में बहुत ही बेहतर मानी जाती थी। कोरोना ने ऐसी तबाही मचायी कि पूरे यूरोप में हाहाकार मचा हुआ हैं। स्थिति ऐसी हो गयी है कि यूरोप के मित्र देश भी कोरोना से लड़ाई में स्वार्थवश अपने-अपने बचाव में आपस में ही लड़ने लगे। चीन के खिलाफ वायरस फैलाने का आरोप अमेरिका लगा रहा है और चीन अमेरिका को दोषी बता रहा हैं। पूरी दुनिया में यह ऐसा तीसरा विश्व युद्ध है जिसमें आक्रमण करने वाला वायरस अदृश्य है और सभी देश अपने-अपने तरीके से लड़ रहे हैं। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध में दो गुट आमने-सामने होते थे लेकिन यह कोरोना युद्ध ऐसा है जिसमें वायरस अमीर-गरीब विकसित-अविकसित सभी पर एक साथ एक तरह का बिना भेदभाव के हमला कर रहा हैं। हमले से बचने के लिए विज्ञान फेल है और केवल एक ही रास्ता बचा है कि मानव आपस में दूरिया बनाकर रहे, घरो मे रहे तथा बचाव में हाथों की निरन्तर साबुन से धुलाई करे, चेहरे पर मास्क तथा आदमी से आदमी के बीच दूरियां बनाकर रहना शामिल हैं। अमेरिका ने इसे गंभीरता से नही लिया जिसका खामियाजा भुगत रहा हैं। हिन्दुस्तान को भी इससे सबक लेना चाहिए।

भारत में कोरोना का पहला मरीज 31 जनवरी 2020 को सामने आया था लेकिन इसे गंभीरता से नही लिया गया। 25 फरवरी को नमस्ते ट्रम्प के कार्यक्रम का आयोजन गुजरात के अहमदाबाद और उत्तर प्रदेश के आगरा तक हुआ। मार्च तक वायरस का फैलाव बढ़ता गया जिसकी गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देर से ही सही 25 मार्च को चार घंटे का समय देकर 21 दिनों का लाकडाउन घोषित कर दिया। मेरा मानना है कि मोदी का निर्णय साहसिक और उचित था लेकिन बिना भरोसे में लिए हुए निर्णय लोगों को एकतरफा अव्यवहारिक लग रहा है। प्रधानमंत्री का 50 वर्ष से अधिक राजनीतिक अनुभव हैं पूरे देश को अच्छी तरह से जानते है लेकिन लाकडाउन करते समय यह भूल गये कि देश में हमेशा एक करोड़ से अधिक लोग एक राज्यों से दूसरे राज्यों में ट्रेन, बस, निजी वाहन व अन्य तमाम साधनों से व्यावसायिक, सामाजिक तथा निजी कार्यवश यात्रा करते रहते हैं। अब आप सोचे जो व्यक्ति अपने कार्य हेतु लखनऊ से बंगलौर, कोलकत्ता से चेन्नई और पटना से दिल्ली तथा ऐसे ही देश भर में गया था जिसकी ट्रेन और हवाई जहाज आदि की यात्रा थी। इनमें से कोई भी यह सोचकर नही गया था कि दो-चार दिन की यात्रा के बजाय 40 दिन रूकना पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने लांकडाउन घोषित किया है उसका अनुपालन करना मजबूरी बन गया लेकिन सोचे दो चार दिन के लिए निकला व्यक्ति क्या इतनी तैयारी से गया था कि 40 दिनों तक रूकेगा। मजबूरी में जो रूके है उनकी मनोदशा क्या होगी आप स्वयं उस स्थिति में जाकर सोचेगें तो महसूस होगा। चार घंटे के समय देकर पहले 21 दिन और बाद में 19 दिन दो चरणों में बिना लोगों को भरोसे मे लिए अचानक लाकडाउन करने का निर्णय व्यवहारिक नही कहा जा सकता। निर्णय लेने के पहले लगभग एक करोड़ से अधिक लोग देशभर में दो चार दिनों के लिए यात्रा में गये लोगों को अपने घर वापस आने तक अवसर जरूर देना चाहिए था। लांकडाउन करना ही बेहतर और एक मात्र विकल्प है जिसे कोरोना की लड़ाई जीती जा सकती है। लेकिन कोई भी लड़ाई बिना संवाद, भरोसे, सहयोग और एकजुटता के बिना नही जीती जा सकती हैं। लड़ाईया दो तरह के होती है एक अचानक और दूसरा समय देकर। कोरोना वायरस समय देकर छिड़ी लड़ाई है। समय देकर होने वाली लड़ायी के लिए कार्ययोजना बनाने का अवसर होता हैं। प्रधानमंत्री के सामने जनवरी से लेकर 25 मार्च तक काफी समय था जिसमें विपक्षी दलों से संवाद करके सहयोग लेते जनता का भरोसा जीतते हुए एकजुट होते तो कोरोना युद्ध को पराजित करने में बहुत आसानी से सफलता मिलती। लेकिन ऐसा नही हुआ। लांकडाउन के बीच जिस तरह से देश भर में 10 करोड़ से अधिक लोग चाहे मजदूर हो व अन्य किसी कार्यवश गये हो, वो फसे है उनमें बेचैनी है। जिनके पास आर्थिक संपन्नता है वह मानसिक तनाव में होते हुए भी मजबूरीवश लाकडाउन का पूरा समर्थन और सहयोग कर रहे हैं। जिन मजदूरों के पास खाने तक की व्यवस्था नहीं है आखिर वह जान जोखिम में डालकर सैकड़ो किलोमीटर पैदल चलकर घर जाने के लिए मजबूर हो गये।

लेकिन जिन मजदूरों के पास खाने तक व्यवस्था नहीं है आखिर वह जान जोखिम में डालकर सैकड़ो किलोमीटर पैदल चलकर घर जाने के लिए मजबूर हो गये। लाखों मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा करके अपने-अपने राज्यो व घरों में पहुंचे है। जहां पर उन्हे कोरेनटाइन में रखा गया है। मजदूरो के बेचैनी और भूख-प्यास ने सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है। कहना आसान है घरों में रहो लेकिन जब मजदूरों जैसी स्थिति हो तो उनकी मनोदशा मे रहकर सोचे बिना सुरक्षा, खाना-पानी और बिना रोजगार के एक छोटे से कमरों में 8 से 10 लोगों का रहना कितना कष्टदायी है। लॉकडाउन लागू करने के पहले मुख्यमंत्रियों एवं विपक्षी दलों को भरोसे में न लेना, बिना किसी चरणबद्ध कार्ययोजना के चार घंटे के अन्तराल में 40 दिनों का लॉकडाउन कोरोना लड़ाई के लिए एक मात्र मजबूरी हो सकती है लेकिन आपसी सहयोग और संवाद के साथ केन्द्र सरकार और बेहतर तरीके से लॉकडाउन को सफल बना सकती थी। लेकिन ऐसा नही हुआ। आज भी लाखों मजदूर देश भर में फसे हुए है। एक करोड़ से अधिक छात्र एवं अन्य लोग अपने कार्याे से गये थे वह फसे पड़े हैं। बिना कार्ययोजना के लॉकडाउन के बीच में ही राज्यों को अपने-अपने मजदूरो, छात्रों और तीर्थ यात्रियों को जनता के दबाव में वापस लाना पड़ा। सरकार की भूमिका लॉकडाउन को लेकर बेनकाब हो चुकी है। डाक्टरों, पुलिस व कोरोना युद्ध में लगे सैनिको के लिए पर्याप्त सुरक्षा और हथियार मुहैया नही करायी गयी। कोरोना की जांच के लिए मंगायी गयी किट अधोमानक और खराब पायी गयी। सोचे प्रधानमंत्री कोरोना को युद्ध घोषित किया है युद्ध के लड़ाई के लिए किट जैसे हथियार मंगाये जा रहे और यह हथियार जब लड़ाई लड़ रहे सैनिक रूपी डाक्टर के हाथों में जाते है तो बताया जाता है कि किट खराब है यह वैसे हुआ कि बन्दूक खरीदी गयी और जब बार्डर पर दुश्मनों पर हमला करने के लिए सैनिकों ने हथियार, बन्दूक उठाया तो पता चला कि बन्दूक खराब है या चल ही नही सकती। जंग के मैदान में लड़ रहे सैनिको बताता है कि हथियार ख़राब है तब किट खरीदने वाले राजनेता और नौकरशाह बेशर्मी से सामने आते है और कहते है कि वापस किया जायेगा इसका भुगतान नही हुआ है और किसी तरह से देश को आर्थिक नुकसान नही पंहुचा। इन नौकरशाहो और नेताओं से यह पूछा जाय कि खराब किट आने से जांच में जो देरी हो रही उससे कोरोना वायरस फैला और लोग प्रभावित हुए और उनका निधन हुआ, आखिर इन लापरवाही से मौतों का जिम्मेदार कौन होगा? कोरोना युद्ध की लड़ाई कमजोर करने की जिम्मेदारी क्या नौकरशाह और नेताओं पर होगी? मेरा तो यह मानना है कि कोरोना युद्ध में किट की खरीद में हुई गलतियों के जिम्मेदार है नेता हो या अधिकारी सभी पर देशद्रोह का मुकदमा करते हुए उन्हें जेल भेज देना चाहिए।

कांग्रेस एवं गैर भाजपा दलों की भूमिका-
सरकार की तरह कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी, राहुल गांधी एवं गैर भाजपा के अन्य नेताओं ने भी कोरोना युद्ध में अपेक्षित सहयोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नही दिया। गैर भाजपा सरकारें और नेता केवल मोदी की कमियां ढूढंते रहे। 50 वर्षाे से अधिक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की मुखिया श्रीमती सोनिया गांधी ने कोरोना युद्ध में आगे बढ़कर पहल नही की और न ही कांग्रेस की अनुभवी नेताओं के टीम को अंहकार भुलकर देशहित में कोरोना के लड़ाई में सुझाव या सहयोग देेने के लिए प्रधानमंत्री के पास कार्ययोजना बनाकर भेजा। सोनिया गांधी देश की सबसे पुरानी पार्टी की नेता है उनकी जिम्मेदारी मोदी से कम नही हैं। सोनिया गांधी यह कहकर पल्ला नही झाड़ सकती कि कोरोन युद्ध से लड़ना केवल मोदी की जिम्मेदारी है। देश के अन्य बड़े नेता शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती, चंद्रबाबू नायडू, तेज प्रताप, प्रियंका गाँधी, उद्धव ठाकरे सभी का आचरण मोदी का विरोध ज्यादा कोरोना लड़ाई में कम देखा गया।

नौकरशाही-
नौकरशाहों का तो कोरोना युद्ध में असली चेहरा ही सामने आ गया। नौकरशाह किस तरह से कोरोना युद्ध में राजनीतिक दलों को गुमराह करके अमान्वीकृत किया है। यह देश की जनता देख रही है। निर्णय लेना नेता का कार्य होता है लेकिन निर्णय को व्यवहारिक तरीके से जनता में कैसे लागू किया जाये इसकी जिम्मेदारी नौकरशाही की होती हैं। दुर्भाग्य है कि जनता की गाढ़ी कमायी पर ऐश करने वाले नौकरशाह इतने संवेदनहीन हो गये है कि कोरोना युद्ध में देश को बचाने के बजाय लूटने में लगे हैं। अधोमानक कीट खरीदना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

लॉकडाउन में फसे मजदूरो और उनकी वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिलती तो मजदूरों को सैकड़ो किलोमीटर पैदल नही चलना पड़ता और न ही सड़क पर आना पड़ता। मोदी ने राज्यों में फसे मजदूरों को अपने घर जाने का जो निर्णय लाँकडाउन के दूसरे चरण में 35 दिन बाद लिया है शायद ऐसा निर्णय वह प्रथम लॉकडाउन के समय ही ले सकते थे। खाद्यान्न आपूर्ति से लेकर दवाई, किट और हर तरह की सुरक्षा नौकरशाही के देख-रेख में जनता को दी जाती है लेकिन नौकरशाह चाहे वह राज्य से जुड़े हो या केन्द्र से दोनों अपने-अपने राजनीतिक आकाओं मुख्यमंत्री हो प्रधानमंत्री किसी को भी जमीनी हकीकत की जानकरी नही दे रहे है। परिणाम यह रहा कि आधी अधूरी तैयारी में कोरोना युद्ध की लड़ाई कठिन होती जा रही है।

मीडिया-
मीडिया ने कोरोना युद्ध में ऐसा आचरण किया है जिसे माफ नही किया जा सकता। मीडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करने के लिए उनके निर्णयों की वाहवाही करते रहे। मजदूरों, छात्रो, किसानो और देश भर में फसे लोगों की वास्तविक जानकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक नही पहुंचाया। कोरोना युद्ध कैसे लड़ा जाये? कैसी तैयारी है? युद्ध कैसे जीता जाय? जमीनी हकीकत क्या है? जनभावनायें क्या है? जनता क्या सोच रही ? क्या-क्या आवश्यकतायें कोरोना युद्ध लड़ाई जीतने के लिए हो सकती है?

इन सभी पर सार्थक पहल और विषय विशेषज्ञों से डिबेट करा के जनता को जानकारी और कोरोना युद्द की लड़ाई में सरकार को सहयोग करने बजाय हिन्दु- मुस्लिम और डराने वाले नकारात्मक दुष्प्रचार मीडिया करती रही। मीडिया ने कभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, मायावती, अखिलेश यादव, शरद पवार, ममता बनर्जी, प्रियंका गाँधी, तेज प्रताप यादव, उद्धव ठाकरे व आंध्रप्रदेश, तेलगांना, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीगंढ़ के मुख्यमंत्रियों से यह सवाल नही किया कि आखिर युद्ध के लड़ाई कैसे जीतेगें? आपकी कार्ययोजना क्या है? उसे जनता के सामने लाये। मीडिया तब्लीग़ी जमात को लेकर भाजपा और गैर भाजपा दो विचारधारा के बीच हिन्दु-मुस्लिम का ही डिबेट कराती रही। राजनीतिक दल और उनके प्रवक्ता संवेदनहीन और चेतनाशून्य हो चुके है। उन लोगों ने भी अपने राजनीतिक लाभ के लिए मीडिया के एजेन्डे पर बहस करते रहे। कभी भी कोरोना युद्ध की जीत कैसे होगी इसमें एकजुट होकर आपसी संवाद और सहयोग के साथ जनता का भरोसा नही जीत सके। जनता नेता, नौकरशाह मीडिया सभी का असलियत देख रही है।

राष्ट्र भक्त-
राष्ट्र भक्तों और दिन-रात देशहित की बात करने वाले बाबा रामदेव तथा सभी बड़े बड़े मंदिरों के मठादिशों और दान वीरों के चेहरे भी बेनाकाब हो गये। अरबों-खरबों की जायदातों के मालिक मंदिरों ने कोरोना युद्ध में दिल खोलकर राष्ट्र भक्ती का उदाहरण प्रस्तुत भी नहीं किया है। महाराष्ट्र, हैदराबाद, चेनई, गुजरात, आंध्रप्रदेश, सहित देश भर में फैले मंदिरों के प्रबंन्धतंत्र ने अपने-अपने शहरों में फसे मजदूरो, गरीबों की मदद नही किया। आजादी के लड़ाई के समय यही मठ और मंदिर क्रांतिकारियों की मदद करके आजादी के लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। गुरुद्वारों को छोड़ दे तो किसी भी बड़े मंदिर ने बहुत सार्थक पहल नही किया। अल्पसंख्यकों के संस्थान भी बड़ी-बड़ी मस्जिदें और मजार भी कोरोना युद्ध में मदद के लिए आगे बढ़कर नही आये। केवल बयानों तक ही सीमित रहे।

उद्योगपति-
बड़े उद्योगपति चाहे अंबानी हो या अंडानी। इन्होंने ने भी अपने आथिर्क ताकत का कोरोना के लड़ाई में गरीबों, मजदूरों और मोदी सरकार की मदद नही किया। यह भी सवाल उठ रहा है कि अगर टाटाग्रुप 1500 करोड़ रूपयेे दे सकते है तो देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी ऐसा क्यों नही कर सकते। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर मुकेश अंबानी और अंडानी का कौन सा उद्योग-धंधा है जो कोरोना लड़ाई शुरू होते ही घाटे में हो गया। लॉकडाउन के बीच प्रधानमंत्री ने मदद के लिए पीएम केयर्स फण्ड बनाया, इसी बीच खबर छप गयी अडानी 37 प्रतिशत और अंबानी का 28 प्रतिशत घाटा हो गया। आखिर यह दोनों उद्योगपति है या कोई गोरखधंधा करते है। इनका इतना कम समय में 37 प्रतिशत और 28 प्रतिशत नुकसान कैसे हो गया। आखिर अन्य उद्योगपति तुलनात्मक रूप से अडानी, अंबानी की तरह नुकसान क्यों नही हुआ। यह सवाल उठ रहे है कि कोरोना युद्ध में मदद के लिए आगे न आना पड़े इसके लिए घाटे की खबर प्रकाशित करा दी। कुल मिलाकर यह कह सकते है कि देश महान है देश की जनता महान है। हमारे आर्थिक संसधानों में प्रकृति का बहुत बड़ा योगदान है। इसी लिए नेताओं, नौकरशाहों, मीडिया, उद्योगपतियों तथा कुछ समाज के कुछ सिरफिरों के द्वारा कोरोना युद्ध में अपनाये गये आचरण, व्यवहार के बाद भी भारत एक सशक्त राष्ट्र बन कर मजबूती के साथ कोरोना वायरस से लड़ाई लड़ रहा है। इस लड़ाई में डाक्टरोें पैरामेडिकल स्टाफ, पुलिस, सफाई कर्मी तथा आवश्यक सेवाओं में लगे हुए युद्ध के सिपाहियों और 130 करोड़ जनता के बदौलत कोरोना युद्ध जीतेंगे।

Share via

Get Newsletter

Most Shared

Advertisement