राजेन्द्र द्विवेदी
मजदूरों की घर वापसी सबसे अच्छा समाधान है। तो समस्या भी बहुत है। जिस तरह से कोरोना का गांव में भय दहशत पैदा हो गया है। ऐसे में घर वापसी कर रहे मजदूरों को रोजगार देकर उन्हें आवास उपलब्ध करना एक बहुत बड़ी समस्या भी सामने पैदा हो गयी है। मजदूरी करने वाले 10% को छोड़ दे तो 90% के पास जीवन यापन के लिए कृषि योग्य भूमि नहीं है और न ही रोजगार है। 10% प्रतिशत ही ऐसे है जिनके पास जीवन यापन के लिए खेती है और वह बिना सरकारी सहयोग के भी परिवार चला सकते हैं। यह 10% प्रतिशत लोग रोजी रोटी के तलाश में गये वो अकेले गये है जबकि 90% में अधिकांश अपने परिवार के साथ बरसो से घर छोड़ कर देश के विभिन्न शहरों में रोजी रोटी कमा रहे है। यह मजदूरों का वह कमजोर और अशिक्षित वर्ग है जो तमाम कारणों से गाँवों में मजदूरी न करके शहरों की चकाचौंध में पहुंच गया था। कोरोना ने अचानक ऐसा हमला किया है कि इन गरीब, मजदूरों के सामने जीवन यापन को लेकर बहुत बड़ी चुनौती पैदा हो गयी है। कहने के लिए मजदूर जरुर है लेकिन शहरों की चकाचौंध में रहते हुए उनके बच्चे गांव में मनरेगा जैसे कार्य कर पाएंगे यह भी एक परेशानी है। मजदूरों की घर वापसी अंतिम विकल्प है लेकिन साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक तथा आर्थिक समस्या भी होगी। मीडिया ने कोरोना वायरस का एक ऐसा हौवा खड़ा कर दिया है जिससे कम पढ़े लिखे और गांव में गरीब किसान और पूरा का पूरा समाज दहशत में आ गया है। मजदूरों की यह घर वापसी अगर प्रथम लॉकडाउन के शुरू होने के पहले या प्रथम लॉकडाउन के बीच हो गयी होती तो अब तक समस्या इतनी विकराल नहीं होती जिसका अब होने का अन्देशा है।
मनुष्य का स्वभाव है कि वह पहले अपनी जिन्दगी फिर अपने सबसे प्रिये बच्चो व अन्य परिवार के सदस्यों के सुरक्षित जिंदगी के बारे में सोचता है। मीडिया के नकारात्मक प्रचार ने गांव में घर वापसी कर रहे लोगों के प्रति ऐसी आशंका पैदा कर दी है कि उन्हें तत्काल रूप से सहयोग देकर साथ में घुलमिल कर रहना आसान नहीं है। घर वापसी करने वालों के सामने पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, आवास यह चार सबसे बड़ी समस्या है। सबसे पहले तो पारिवारिक समस्या से रूबरू होना पड़ेगा क्योकि तमाम ऐसे मजदुर है जो वर्षों से बाहर थे। माँ बाप रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नाता ही नहीं रखा। ऐसे में जब वह घर वापस आ रहे है तो उनके लिए सबसे बड़ी पारिवारिक चुनौती सामने खड़ी है। यह चुनौती किस तरह की है इसका एक नजीर यह है कि करनैलगंज के नकहरा गांव में घर वापसी करने वाले युवक को माँ बाप ने घर में घुसने नहीं दिया। उनका यह कहना था कि पिछले 12 वर्षों से बुजुर्ग माँ बाप का हाल चाल नहीं लिया। किन परिस्थितियों से हम गुजरे, कैसे पत्नी का इलाज़ किस मज़बूरी में करा रहे है। तुमने और तुम्हारी पत्नी के कभी पूछा तक नहीं, तुम्हे जहाँ जाना है जाओ, हमारे पास तुम्हारे लिए जगह नहीं है।” इसी तरह से अब कई गांव में किसी तरह से लुकछिप कर पहुंचे लोगों के साथ घटनाये घटित हो रही है।विशेषकर पूर्वांचल जहाँ पर आबादी के कारण आवासीय समस्या भी है।
समाज भी ऐसे घर वापसी करने वालों को कोरोना के कारण सरकारी मदद पर ही छोड़ दे रहा है। जिला प्रशासन जबरदस्ती गाव में प्रधान पर दवाब डाल कर कोरंटाइन करा दे रहा है लेकिन उन्हें कोई आवश्यकतानुसार मदद नहीं कर रहा है। इसका दूसरा उदहारण नवाबगंज कसबे में बनाये गया कोरंटाइन स्थल का है जहाँ पर 450 लोगों को कोरंटाइन में रखा गया है और 5 प्रधानों को ज़िम्मेदारी दी गयी थी लेकिन 4 प्रधान मदद नही कर रहे है। एक ही मजबूरीवश फसे हुए है। पारिवारिक समस्या के साथ इन सभी का परिवार अपने साथ तुरंत रखने के लिए तैयार भी नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी समस्या सामाजिक पैदा हो गयी है। कोरोना वायरस को लेकर जिस तरह से मीडिया ने एक वर्ग को लेकर हल्ला मचाया उससे पूरे समाज में एक ऐसी दूरी बढ़ गयी है जो घर वापसी करने वालों के लिए और बड़ी चुनौती साबित हो रही है।
एक वरिष्ठ नेता अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहते है कि कोरोना की लड़ाई में मीडिया का रोल बहुत ही गैर जिम्मेदाराना रहा है। उनकी पीड़ा यह है कि 100 मंदिर आन्दोलन भी ऐसा सामाजिक एवं धार्मिक दूरियां नहीं पैदा कर सकता था जो कोरोना वाइरस को लेकर तब्लीकी जमाती पर किये गये खबर ने किया है। नेता दुखी मन से कहते है कि अब सियासत नहीं। ऐसे गंदे माहौल में संन्यास ही अच्छे नेताओ की मजबूरी बनती जा रही है।
समाज की संरचना एवं आवश्यकताएं गाव में सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय को लेकर पूरी होती है। अगर हम एक किसी धर्म विशेष या जाति विशेष से बहुतमत समाज से दूरिया बनाने लगे तो समाज का पूरा ताना बाना टूट जाता है। जो कोरोना की लड़ाई में मीडिया के दुष्प्रचार ने तोड़ दिया है। हमारी सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताएं एक साथ मिल जुल कर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, दलित, पिछड़े, सवर्ण, व्यापारी सभी को लेकर पूरी होती है। समाज में कोई सब्जी बेचता है, कोई पंचर बनाता है, कोई परचून की दूकान चलाता है, कोई नाई का काम करता है, कोई राजगीर करता है आदि छोटी-छोटी चीज़े जो मिल कर चलती है। कोरोना ने सामाजिक समरसता पर कुठाराघात किया है।
घर वापसी की तीसरी बड़ी समस्या आर्थिक और रोजगार है। तीसरे लॉकडाउन शुरू होते-होते मजदूरों की घर वापसी से सामाजिक एवं पारिवारिक नये तरीका का विवाद शुरू हो गया। वर्षाे से घर छोड़कर बीबी बच्चों के साथ रोजी रोटी कमाने के लिए शहरों में गये लोगों की कोरोना युद्ध में मजबूरी वश घर वापसी, विवाद का कारण बन गयी हैं। यह सही है कि जो बीबी बच्चों के साथ मां बाप, एवं परिवार को छोड़कर गये थे वर्षाे से बाहर है ऐसे लोगों के पास गांव में रहने के आवास नहीं है। राशन कार्ड नही है मनरेगा के लिए जॉबकार्ड नही है और परिवार से दूरियां बनाकर रहें हैं। ऐसे गरीब मजदूर अब अपने घरों में वापस आ रहे है तो भावनावश थोड़े दिनों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था कोरेनटाइन करते हुए किया जा रहा हैं। लेकिन स्थायी रूप से इन गरीबों एवं मजदूरों को रोजगार व रहने की व्यवस्था एक बहुत बड़ी समस्या बनकर विकराल रूप धारण कर लिया है। परिवार के लोग वर्षाे बाद लौटे गरीब और मजदूरों को अपने साथ रखने के लिए तैयार नहीं हैं।
सरकार के पास और ग्राम पंचायतों के पास कोई ऐसी कार्ययोजना नहीं बनी है जिसका जमीनी स्तर पर लागू करते हुए घर वापसी करने वाले मजदूरों की मदद की जा सकती हैं। प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री द्वारा गांव में लौटने वाले मजदूरों को मनरेगा रोजगार देने की बात की जा रही हैं लेकिन मनरेगा के तहत कौन सा कैसा कार्य होगा इसका कोई प्रोजक्ट और कार्ययोजना गांव, ब्लाक व जिला स्तर पर नही हैं। मनरेगा स्कीम भ्रष्टाचार का एक अड्डा बन चुकी है प्रधान से लेकर प्रमुख, जिलापचायत अध्यक्ष और ग्राम पंचायत कर्मचारियों से लेकर जिला स्तरीय अधिकारियों तक मनरेगा में लूट का एक जबरदस्त काकस बना हुआ हैं। गांव स्तर पर केवल सक्रिय कार्ड धारकों की सूची बनी हुई है जिन्हें बिना काम किये हुए प्रधान पंचायत सेक्रेटरी और ब्लाक तथा जिले की अधिकारी भुगतान करते हैं। ट्रैक्टर व अन्य संसाधनों से सस्ते में कार्य कराके सक्रिय कार्ड धारको के नाम पर पैसा निकालते है और बन्दर बॉट करते हैं। ऐसा ही उदाहरण देवरिया जिले के भागलपुर ब्लाक अंतर्गत ग्राम पंचायत गोपवापार के पलिया गांव में दबंग अपूर्वा मल्ल पुत्र शिवाजी मल्ल अपने निजी ज़मीन में जेसीबी मशीन से खुदाई करके मनरेगा के लाखों रूपये प्रधान व पंचायत सेक्रेटरी से मिल कर लुट लिये।
मनरेगा के भ्रष्टाचार का एक और उदाहरण यह है कि मेरे गांव में एक बहु अपने बुढ़िया सासु से इस बात को लेकर लड़ रही थी कि मनरेगा में जो पैसा बिना काम किये मिला है उसमे उसको भी हिस्सा दें। बुढ़िया के दो बच्चों है। वह एक बच्चे के पास रह रही थी। मनरेगा में सक्रिय कार्ड धारक थी और प्रधान उसके नाम पर बिना कार्य कराये मनरेगा से पैसा देते थे और आधा-आधा बन्दर बांट करते थे। दूसरी बहु की बुढ़िया सासु से यह मांग थी कि बिना कार्य किये जो पैसा मिला है उसमे उसको भी हिस्सा दें, नहीं तो शिकायत करेंगे। काफी वाद विवाद के प्रधान ने जांच के डर के कारण दोनों पक्षों में समझौता करा दिया। यह सिलसिला पूरे प्रदेशभर में चल रहा है।
बड़ी घोषणएं मनरेगा के अन्तर्गत रोजगार देने की हो रही है उसकी वास्तविक और जमीनी हकीकत बहुत कठिन और चुनौती पूर्ण है। मुख्यमंत्री जिस भरोसे के साथ मनरेगा में कोरोना में लौटे मजदूरों को रोजगार दिलाने की बात कर रहे है वह मनरेगा का लुटेरा काकस आसानी से करने नही देगा। इस सम्बन्ध में 3 पंचायत सेक्रेटरी, प्रधान, बीडियो और DPRO तथा DDO से बात की। बातचीत में यह निकला कि सरकार की तरफ से ऐसी कोई कार्य योजना या प्रोजेक्ट नही दिया गया है जिसमें घर वापसी आये मजदूर कार्य कर सकें। प्रधान और पंचायत सेक्रेटरी का कहना था कि मुख्यमंत्री का आदेश है, अधिकारियों का दवाब आ रहा है कि घर वापस आने वाले मजदूरों को पंचायतों में काम देना है। काम हो या ना हो, दाम हम जरुर देंगे लेकिन ज्यादा दिनों तक काम भी नहीं दे पाएंगे। काम का तात्पर्य यही है कि बिना कार्य किये ही आर्थिक मदद देदे। सवाल यही उठ रहा कि आखिर इन मजदूरों के लिए स्थाई रोजी रोटी कैसे संभव हो पायेगी जब तक इसके लिए चरणबद्ध तरीके से छोटे लघु उधोग एवं त्री स्तरीय पंचायत, ग्राम पंचायत क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत स्तर कर सयुक्त रूप से रोजगार के लिए को प्रोजेक्ट नहीं बनायेंगे।