समय आ गया है कि सरकार कृषि संकट के मुद्दे को समग्र रूप से देखे और सुधारात्मक कदम उठाए। सरकार को अपनी कृषि उत्पादन को खरीद करने वाली मशीनरी को सुधारना होगा जो कि भ्रष्टाचार में डूबी है।
वी एस पांडेय
किसान आंदोलन अपने दूसरे महीने में प्रवेश कर चुका है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ओर जाने वाले सभी प्रमुख राजमार्गों के आसपास का दृश्य अभूतपूर्व है, जिसमें हजारों किसान दिन और रात पिछले चालीस दिनों से सर्दी के इस मौसम मैं जबकि रात का तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक लुढ़क जाते हैं ,धरने पर बैठे है। इस तरह का आंदोलन हमारे हाल के इतिहास में अद्वितीय है जो दर्शाता है कि हमारा लोकतंत्र अभी भी पूर्णतः न केवल जीवंत है बल्कि उसमें बहुत दम है। लेकिन इस आंदोलन को अब जल्द से जल्द अपने तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचना जरूरी है। कोई भी लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार अपने राजमार्गों पर महीनों तक हजारों लाखों नागरिकों का सरकार द्वारा लाये गए कृषि कानूनों के विरोध में धरने पर बैठे रहने देने का जोखिम नहीं उठा सकती है। अब तक सरकार और किसान नेताओं के बीच हुई करीब आधा दर्जन बैठकें नाकाम साबित हुई हैं। दोनों पक्षों की ओर से जारी बयानों से ऐसा लगता है कि दोनों पक्ष कानूनों की वापसी के प्रश्न पर अड़े हुए हैं और कोई भी पक्ष अपनी घोषित स्थिति से पीछे हटने को तैयार नहीं है और यही गतिरोध का मुख्य कारण है।
यह बहुत अच्छी तरह से सरकार और कृषि व्यवसाय से जुड़े लोग जानते हैं कि कई दशकों से खेती एक घाटे का सौदा बन गई है , इसीलिए लाखों लोग खेती छोड़ कर दूसरे व्यवसाय की ओर भाग रहे हैं। इस बिंदु को इस तथ्य से आसानी से समझा जा सकता है कि 1960 के दशक में जब 10 ग्राम सोने की कीमत 120 रुपये मात्र थी, उस समय एक क्विंटल गेहूं की कीमत लगभग 45 रुपये थी। अब इसकी तुलना आज के सोने के मूल्य से करें, जो लगभग रु .40,000 प्रति दस ग्राम है, जबकि एक क्विंटल गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य रु 1840 है । इस मुद्दे को इस तथ्य से और स्पष्ट किया जा सकता है कि एक प्रथम श्रेणी का अधिकारी तब अपने मासिक वेतन रु 300 / से छह क्विंटल से अधिक गेहूं खरीद सकता है, जबकि आज उसी वर्ग का एक सरकारी अधिकारी अपने एक महीने के वेतन से लगभग तीस क्विंटल गेहूं खरीद सकता है। निस्संदेह केंद्र और राज्यों में शासन करने वाली विभिन्न सरकारों द्वारा किसानों के हितैषी होने सम्बन्धी किए गए लंबे दावों के बावजूद पिछले कई दशकों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में वृद्धि हुई है। कृषि आय में आरही लगातार गिरावट, बढ़ती जनसंख्या के कारण जोतों का बटना, उत्पादन की बढ़ती लागत, न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के खराब और भ्रष्ट क्रियान्वयन ने कृषक समुदाय के लिए गंभीर संकट पैदा कर दिया है जो वैसे भी अच्छी शिक्षा प्रणाली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी नागरिक सुविधाओं से पूरी तरह से पहले से ही वंचित था। इसके अलावा गाओं में पीने के पानी एवं अन्य नागरिक सुविधाओं का भी पूरी तरह से आभाव बना हुआ है जबकि यह सभी सुविधाएं शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आबादी के लिए उपलब्ध है। इन सभी कारणों ने मिलकर कृषकों को सामूहिक रूप से सोचने और सरकारों को जगाने के लिए आंदोलन के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया।
सरकार में बैठे लोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि जब तक खेती और किसानों से सम्बंधित समस्याओं को जल्द से जल्द दूर नहीं किया जाता है, तब तक हमारे देश में गरीबी उन्मूलन हमेशा एक दूर का सपना रहेगा। इसी सब को लेकर वर्ष 2004 में किसान आयोग का गठन इस अहसास की परिणति था। लेकिन हमेशा की तरह ज्यादातर सिफारिशें अभी भी फाइलों में धूल फांक रही हैं और कुछ मामूली कदमों के अलावा और सरकारों द्वारा इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई । सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो यही है कि किसानों को उनके खेत से उपजी फसल का वाजिब मूल्य मिले ताकि वे न केवल सुखी रहें बल्कि नियमित अंतराल पर ऋणग्रस्त हुए बिना समृद्ध हो सकें। इसे हर कीमत पर सुनिश्चित करने की जरूरत है।
वर्तमान मोदी सरकार ने तीन कृषि बिल लाए, जिसमें दावा किया गया कि निजी व्यापारिओं के लिए कृषि उपज बाजार खोलने से किसानों को उचित मूल्य प्राप्त करने का लक्ष्य हासिल हो सकेगा । लेकिन सरकार, ऐसा लगता है की यह बात भूल गई है कि हमारे देश में कृषि पूरी तरह से निजी हाथों में है और कृषि बाजार अधिकांशतः निजी व्यापारिओं द्वारा चलाए और नियंत्रित किए जाते हैं। कृषि उपज का केवल एक छोटा सा भाग जो कुल उपज का केवल ६ प्रतिशत है को ही सरकार खरीदती है , और उसमे भी मुख्यतः गेहूं और चावल शामिल हैं जो केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदे जाते हैं । कृषि मंत्रालय के नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, गेहूं और चावल की खरीद बड़े पैमाने पर पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और कुछ हद तक उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में केंद्रित है। अन्य फसलों के लिए, एमएसपी केवल कागज पर ही है, शायद ही कहीं भी कोई खरीद होती हो । गेहूं और चावल की खरीद भी वर्ष के इन फसलों के कुल उत्पादन का एक छोटा सा हिस्सा है। इसलिए अब तक के सभी सरकारी हस्तक्षेपों ने केवल कृषक समुदाय के बहुत कम हिस्से को ही लाभान्वित किया है ऐसा स्पष्ट है। दूसरे, कृषि बाजार को किसी अन्य उत्पाद बाजार की तरह मानना एक बड़ी गलती है जो अक्सर इस विषय के विशेषज्ञों द्वारा की जाती है। जहां सामान्य बाजार संचालन में मांग और किसी भी उत्पाद की आपूर्ति उत्पाद की कीमत निर्धारित करती है और उस उत्पाद के निर्माता आपूर्ति की स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए बाजार में आपूर्ति बढ़ाने या घटाने की स्थिति में होते हैं और इसलिए उत्पाद की कीमत को बना कर रखा जा सकता है । लेकिन कृषि में किसी फसल की सभी उपज एक महीने में आती हैं या जबकि खपत साल भर में होती है, जिसके परिणामस्वरूप मांग और आपूर्ति के बीच की पूरी विकृति उत्पन्न होती है, जिससे कीमत में गिरावट आती है, और इसी लिए दुनिया भर में सभी सरकारें कई तरीकों से हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित करते हैं की किसानों को इस स्थिति में बाजारी ताकतों से बचाया जा सके और कृषि उत्पादों का मूल्य गिरने न पाए और किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य मिल सके ।
समय आ गया है कि सरकार कृषि संकट के मुद्दे को समग्र रूप से देखे और सुधारात्मक कदम उठाए। सरकार को अपनी कृषि उत्पादन को खरीद करने वाली मशीनरी को सुधारना होगा जो कि भ्रष्टाचार में डूबी है। वर्तमान किसानों का आंदोलन सभी सरकारों द्वारा किसानों की समस्याओं के प्रति वर्षों से दिखाई गई उपेक्षा और उदासीनता की परिणति है। वर्तमान संकट से निपटने के बजाय सरकार अपने रवैये में कठोरता दिखा कर खुद को ही नुकसान पहुँचा रही है । इस बार आंदोलनकारी किसान बिल्कुल सही हैं और उनकी आवाज़ सुनी जानी चाहिए।
(विजय शंकर पांडेय पूर्व सचिव भारत सरकार हैं)