सरकार किसानों की भावनाओं का आदर करते हुए पास किए गए तीनों क़ानूनों को रद्द कर दे

कोई भी आंदोलन सत्ता के विरुद्ध ही होता है और यदि सत्ता के सभी नियम मान लिए जाएँ तो सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ऐसा इतिहास के पन्नों की लिखावट बताती है और शायद इसीलिए अंगरेजों के नमक क़ानून को तोड़ने के लिए गांधी जी को बाध्य होना पड़ा।

वी एस पांडेय

कल गणतंत्र दिवस के अवसर पर जहाँ परंपरागत परेड राजपथ पर सम्पन्न हुई वहीं दिल्ली की सीमाओं पर ६० दिन से तीन कृषि कानूनोको समाप्त कराने के लिए आंदोलनरत किसानों के द्वारा दिल्ली की बाहरी सीमाओं पर वृहत ट्रैक्टर रैली का आयोजन भी किया गया जिसके दौरान पूर्व में निर्धारित कार्यक्रम एवं रूट को नकारते हुए हज़ारों किसान दिल्ली पुलिस द्वारा लगाए गए बैरिकेडिंग को तोड़ एवं हटा कर आइटीओ पहुँच गए और वहाँ से होते हुए लाल क़िले भी अपने ट्रैक्टर के साथ गए जहाँ उन में से कुछ ने अपने किसान संघटन के झंडे को भी फहराया । यह सब कार्यक्रम घंटो तक चलता रहा और पुलिस को इन प्रदर्शनकारियों को लाल क़िले से बाहर करने में काफ़ी मशक़्क़त भी करनी पड़ी। इस रैली के दौरान कई जगहों पर पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच तना तनी भी हुई और कई जगहों पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले भी दागे और लाठी चार्ज भी किया जिसने किसानों के अलावा कई पुलिस कर्मियों को भी चोट आई। इसी बीच एक दुर्घटना में एक कृषक की मृत्यु होने की ख़बर भी आई।
इस पूरे घटना क्रम के बाद सभी पक्षों की ओर से बयानबाज़ी का दौर प्रारम्भ हुआ। जहाँ किसान समन्व समिति ने इस पूरे घटना क्रम के लिए कुछ बाहरी शरारती तत्वों को ज़िम्मेदार ठहराया और दिल्ली में जबरन घुसने वालों से अपना पल्ला झाड़ लिया वहीं मीडिया ने पूरे किसान आंदोलन को ही कठघरे में खड़ा कर दिया और कहना शुरू कर दिया कि किसान नेताओं का पूरे आंदोलन पर से नियंत्रण समाप्त हो गया है और आंदोलन अपने रास्ते से भटक गया और अब प्रभावी नहीं रहा । सरकार एवं अन्य नेताओं ने रैली के दौरान हुई हिंसा की निंदा की और इसके लिए किसानों के नेतृत्व को सीधे सीधे ज़िम्मेदार बताते हुई सभी दोषी लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज करके कठोर कार्यवाही किए जाने की माँग कर डाली ।
कल की घटना के सही ढंग से विश्लेषण के लिए ज़रूरी है कि किसानों के वर्तमान आंदोलन और धरने के कारणों और देश में आज कल धरना , प्रदर्शन एवं आंदोलन किए जाने को लेकर इधर कुछ वर्षों मैं लागू किए गए उन नियमों क़ानूनों के बारे में भी गम्भीरता से परीक्षण किया जाना ज़रूरी है । यह हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है और उसे अपनी बात कहने का पूरा हक़ है। जनता अपने इस अधिकार का प्रयोग लिख कर, प्रार्थनपत्र देकर, प्रदर्शन करके, धरना देकर और कभी बंद का आयोजन करके करती है और यह सभी माध्यम अपनी बात सत्ता तक पहुँचाने और अपनी माँग के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए किए जाते हैं। अब सोंचने वाली बात यह है कि अगर धरना ऐसी जगह किया जाय जहाँ कोई आता जाता ना हो तो ऐसे धरने का कोई असर जनमानस और सत्ता पर नहीं पड़े गा और धरना देने का उद्देश्य ही विफल हो जाए गा । उसी प्रकार अगर प्रदर्शन या रैली को ऐसी जगह किया जाए जिसकी जानकारी ही आम जनको ना हो या लोग उसको देख भी ना पाएँ तो ऐसे प्रदर्शन का क्या लाभ। पिछले दशकों से सत्ताधारियों ने लोकतंत्र की भावनाओं के विपरीत जाकर सभी प्रदेशों और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन स्थल जो मुख्य स्थानों पर पचासों सालों से चले आरहे थे उन्हें बदल कर ऐसी जगह कर दिया जहाँ धरना या प्रदर्शन करने करने से ना तो सत्ता में बैठे लोगों की सेहत पर फ़र्क़ पड़ता है और ना ही आम जनता पर। जब जंतर मंतर पर लोग इकट्ठा होकर अपनी बात कहते थे तो सभी को वह दिखता और सुनाई पड़ता है और अगर आप दिल्ली से चालीस किलोमीटर दूर धरने पर हैं तो बैठे रहिए सालों तक और किसी की सेहत पर असर नहीं पड़ेगा और ना ही सत्ता पर।ज़रा सोंचिए कि क्या कोई राजनीतिक दल अपना रोड शो चालीस पचास किलोमीटर दूर करने पर तैयार होता है ? वह तो बीच शहर से होकर अपनी रैली सदैव निकलता है और तब रास्ता रुकने और भीड़ से जनता को क्या कोई परेशानी नहीं होती?
वर्तमान किसान आंदोलन के साथ यही हो रहा है। तीन कृषि क़ानूनों को समाप्त करने के उद्देश्य से जब किसानों द्वारा दिल्ली आकर जब धरना देने की बात उठी तो उन्हें दिल्ली से चालीस किलोमीटर दूर मैदान धरना करने के लिए आवंटित कर दिया गया। चूँकि किसानों ने बात नहीं मानी और हाइवे पर बैठ गए तो शायद वह कुछ दिखे भी नहीं तो जीवनभर उस मैदान में धरना देने पर भी सत्ता पर कोई असर ना पड़ता। यही बात ट्रैक्टर रैली के साथ हुई , उन्हें भी दिल्ली के बाहर सांकेतिक रूप से ट्रैक्टर चला कर संतोष करने का आदेश दिल्ली पुलिस ने दे दिया जबकि किसान आउटर रिंग रोड पर रैली करना चाह रहे थे। यह बात सही है कि गणतंत्र दिवस पर सुरक्षा की स्थिति को देखते हुए ऐसा करना अत्यंत मुश्किल था लेकिन सोचने की बात तो यह है कि हालात यहाँ तक किसके हठ के चलते पहुँचे।रैली में कुछ अव्यवस्था तो अवश्य हुई और आंदोलनकारी लाल क़िले तक पहुँच गए तथा पुलिस मुख्यालय और लाल क़िले के बीच काफ़ी समय तक अव्यवस्था रही जहाँ दिल्ली पूलिस ने अत्यंत धैर्य और समझदारी का परिचय देते हुए कभी भी स्थिति को नियंत्रण से बाहर नहीं जाने दिया और अंततः बिना किसी जान माल के नुक़सान के शांति बहाल करने में सफल हुई।लेकिन इस बात को भी देखा जाना चाहिए कि कोई भी आंदोलन सत्ता के विरुद्ध ही होता है और यदि सत्ता के सभी नियम मान लिए जाएँ तो सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ऐसा इतिहास के पन्नों की लिखावट बताती है और शायद इसीलिए अंगरेजों के नमक क़ानून को तोड़ने के लिए गांधी जी को बाध्य होना पड़ा।
किसान संघटनों ने शांति पूर्ण ढंग से आंदोलन जारी रखने का निर्णय लिया है और यह भी निश्चय किया है कि एक फ़रवरी को वह संसद तक मार्च करेंगे। सरकार को चाहिए कि वह देशभर के किसानों की भावनाओं का आदर करते हुए अब पास किए गए तीनों क़ानूनों को रद्द कर दे और किसानों के साथ विचार विमर्श करके कृषि के विकास की रूपरेखा तय करे। इस से जहाँ सरकार अपनी संवेदनशीलता और उदारता का परिचय देकर सभी का दिल जीत लेने में सफल होगी वहीं यह भी तथ्य दुनिया के सामने प्रस्तुत हो गा कि देश का लोकतंत्र ना केवल मज़बूत है बल्कि पूर्णतः जीवंत है।

(विजय शंकर पांडेय पूर्व सचिव भारत सरकार हैं}

Share via

Get Newsletter

Most Shared

Advertisement