समय आ चुका है,कि जाली जगतगुरु,बोगस बाबा,और,फ़र्ज़ी फ़क़ीर चिन्हित किये जॉंये

साधु का अपना जीवन सरल,आडंबरहीन,व मायामोह रहित हो तभी वह प्रभावी होगा अन्यथा नहीं। धूर्तता तथा पाखण्ड के कृत्य,समाज का,साधु-संतों में,विश्वास तोड़ देते हैं,और,संत-समाज,अपने आप मे निरर्थक हो जाता है।धूर्त,पाखण्डी तथा दुष्ट तत्वों का संत-समाज से निष्कासन अत्यावश्यक है।

प्रो. एच सी पांडे

हमारे देश की परिस्थिति अतुलनीय है क्योंकि यहाँ युगों की सभ्यतायें एक साथ चल रही है।बैलगाड़ी से लेकर जंबोजेट,दिये से लेकर एलईडी,झोपड़ी से लेकर गगनचुम्बी अट्टालिकायें,सभी विद्यमान है।यहाँ जादू-टोने,मंत्र-तंत्र,झाड़-फूँक,से लेकर एक्स-रे,अल्ट्रासाउंड ,एमआरआइ आदि,उपचार के सभी संसाधन,सर्वसुलभ और सर्वव्यापी है।अब यह आपकी अपनी पसंद है कि आप कैसे सफ़र करें, कहाँ रहना चाहें और किस से इलाज करवायें।इसी प्रकार,आपको,सार्थक से लेकर निरर्थक,सारी साहित्य श्रंखला उपलब्ध है,आप जो जी चाहें पढ़ें। बंगाले का जादू से लेकर बंकिम चन्द्र,भूत-साधना से लेकर भौतिक शास्त्र,जो भी आपकी मर्ज़ी हो।ऐसे विकल्प,संसार में,केवल भारत में उपलब्ध हैं। भारत की जनता महान है,जो आज के सजग,व,सक्रिय युग में भी,यह सब स्वीकार करती है।यह अपने आप में,देश की विलक्षण सहिष्णुता दर्शाता है। इसे चाहे शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व कहा जाये अथवा वैचारिक उदासीनता,पर यह तय है कि यह मानसिकता,आधुनिक,प्रगतिशील ,व विकसित समाज का आधार नहीं हो सकती।
ऐसी व्यापक विभिन्नताऔ के देश में,जहाँ राजनैतिक,सामाजिक,तथा,प्रशासनिक व्यवस्था,सात दशकों से,हर तरह के वायदे करने के बाद,देश के नागरिकों के लिये,सर्व-सुलभ सुरक्षा,न्याय, रोज़ी-रोटी की व्यवस्था नहीं कर पा रही हो,वहाँ जनता का विश्वास,अपनी मेहनत पर कम,और,भगवान की कृपा पर अधिक हो जाता है।ऐसी परिस्थिति मे आस्था का,अंधविश्वास में परिणित हो जाना,स्वाभाविक है।जब लगन तथा वर्षों की मेहनत के सच्चे प्रयासों से कुछ भी हासिल न हो तब,चमत्कार की आशा,ही सहारा बनती है।
जहाँ भी जनता का चमत्कार में विश्वास होगा वहाँ,अटलनीय नियम से,चमत्कारी बहुरूपिये प्रकट होंगे।वाल्तेयर का कथन रहा है कि पहला चमत्कारी,पहला धूर्त था,जिसे पहला मूर्ख मिला। देश में चमत्कारियों की फ़ौज है,जो तरह,तरह के रूप धारण कर,जगह-जगह,नाटक-नौटंकी के द्वारा,जनता को गुमराह कर के अपनी स्वार्थ सिद्धि करती रहती है। मंत्र…..प्राय: अशुद्ध ,तंत्र….अर्थहीन कर्मकांड तथा यंत्र….संचार माध्यम,सभी का सहारा लेकर,आमजन को भ्रमित कर,विज्ञान से अज्ञान की ओर धकेला ज़ा रहा है। ज्योतिर्मा तमसोगमय ,यही मूलमंत्र प्रतीत होता है।डूबनेवाले को,तैरते हुवे तिनके तक से,सहारे की उम्मीद रहती है,ऐसे में,थके हुवे,निरुत्साह व आशाहीन व्यक्ति को,कोई भी ठग,साधु अथवा साध्वी के वेश में,आसानी से बरगला सकता है।आज के समय संत-समाज प्रदूषित हो गया है,तथा,सिद्ध,फ़क़ीर,बाबा,औलिया,गुरु इत्यादि शब्दों के मायने ही बदल गये हैं।तथाकथित आध्यात्मिक व धार्मिक अनुष्ठान,तेज़ी से व्यवसायिक गोरखधंधों के नये स्वरूप बनते जा रहे हैं,जिन पर आस्था व विश्वास,तथा,इनके लिये आदर,सम्मान,बड़ा मंहंगा ही नहीं,वरन देश के लिये,घातक हो रहा है।

हर रोज़,स्वर्णाभूषणयुक्त नये बाबा,प्रकट हो कर,स्वर्ण-जटित सिंहासनों से,भौतिकवाद की निरर्थकता पर प्रवचन दे रहे हैं।स्पष्टतया,भौतिकवाद,श्रोता के लिये निरर्थक है ,और,वही वाचक के लिये सार्थक है।बाबा,दक्षिणा चढ़ाने पर ,हर रोग का निदान बता रहे है, जबकि,उन्हें न तो रोग की पहचान है,न उसके कारण का ज्ञान है,बस उपचार को सिर-पैर से जानते हैं।उनके हाथ रोगी के सर पर और रोगी के हाथ उनके पैर पर।बस,उपचार प्रक्रिया का आदि-अंत हो गया।
भौतिकवाद की अंधी दौड़ में,आध्यात्म के अस्तित्व का आभास ही,मनुष्य की बद-हवास चाल को,कुछ हद तक,नियंत्रित करता है।संत समाज की यही भूमिका है।जीवन में सत्य व मिथ्या को,अपने आचरण से,इंगित करना ही उनका सामाजिक योगदान है ,जिसे संत कबीर ने परिभाषित किया है :
साधु ऐसा चाहिये,जाको सूप सुभाय,
सार सार को गहि रहे,थोथा देत उड़ाय।
साधु का अपना जीवन सरल,आडंबरहीन,व मायामोह रहित हो तभी वह प्रभावी होगा अन्यथा नहीं।
धूर्तता तथा पाखण्ड के कृत्य,समाज का,साधु-संतों में,विश्वास तोड़ देते हैं,और,संत-समाज,अपने आप मे निरर्थक हो जाता है।धूर्त,पाखण्डी तथा दुष्ट तत्वों का संत-समाज से निष्कासन अत्यावश्यक है।
इस परिस्थिति से निपटने के लिये व्यापक जन जागरण अभियान अनिवार्य है।समय कभी का आ चुका है,कि
जाली जगतगुरु,बोगस बाबा,और,फ़र्ज़ी फ़क़ीर चिन्हित किये जॉंये तथा उन पर,दंडसंहिता के अनुसार ,त्वरित दंडनीय कारवाही की जाय। इस प्रक्रिया में समाज का पूरा सहयोग अनिवार्य है।क्या समाज अभी भी जागेगा या किसी चमत्कार का इंतज़ार किया जाय?

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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