विकास और भ्रष्टाचार का परस्पर विपरीत संबंध है और सिर्फ एक ईमानदार देश ही विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने की उम्मीद कर सकता है।
वी.एस.पांडे
उन्नत ज्ञान को जानने और उसका उपयोग करने का साहस ही सभ्यता के विकास को परिभाषित करता है। जैसे-जैसे हम उम्र की दहलीज पर बढ़ते हैं ,हम दिन प्रतिदिन सीखते हैं और जीवन के अंत तक सीखते रहते हैं। जैसा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था, “मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में ज्यादा नहीं सोचता जो आज, कल की तुलना में अधिक बुद्धिमान नहीं है।” सीखने का एक महत्वपूर्ण घटक है – नैतिक रूप से परिस्थितियों का आकलन करना और उसके अनुसार स्वयं की कार्रवाई को संरेखित करना। ऐसी स्थितियां हो सकती हैं जिनके बारे में कोई आसान जवाब न हो लेकिन ऐसी स्थितयां बहुत कम ही होती हैं। आम तौर पर हर कोई यह स्पष्ट रूप से जानता है कि कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए और कौन सा नहीं , लेकिन यह उसकी पसंद है कि वह अपने भीतर की अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करे या इसे अनदेखा कर एक अलग रास्ता अपनाए। दार्शनिक विचारों और सभ्यता के विकास के साथ, सही और गलत कार्यों के बारे में प्रश्न काफी हद तक हल हो गए हैं । कानून के शासन द्वारा शासित सभी समाजों ने अपने लोगों के लिए स्वयं ही मार्ग निर्धारण करने के बहुत कम ही विकल्प छोड़े हैं क्योंकि देश के कानूनों ने क्या करें और क्या न करें के बीच की सीमाओं का सीमांकन कर दिया है और सीमाओं का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड निर्दिष्ट किया है।
मानव सभ्यता द्वारा की गई प्रगति तथा देश की स्वतंत्रता के सात दशकों बीत जाने के बावजूद, अधिकांश भारतीयों को अन्याय और दुख पूर्ण परिस्थितिओं से आज भी गुजरना पड़रहा है । एक बहुत अच्छी तरह से लिखित संविधान और ढेर सारे कानूनों के बावजूद, हमारी अधिकांश आबादी अभी भी हर तरह के अभाव के साथ जी रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनी सरकारों को चुनने में सभी को समानता दी, लेकिन इन बीते कई दशकों में जिन लोगों ने हम पर शासन किया, उन्होंने लंबे-चौड़े दावे करने के अलावा गरीबी, अशिक्षा, आय असमानता, जीवन स्तर में असमानता को कम करने के लिए कुछ भी खास नहीं किया। अब हमारा देश दुनिया भर में आय असमानता की दृस्टि से बहुत ऊपर है। हमारी कामकाजी आबादी की शिक्षा प्राप्तियों, रहने की स्थिति, स्वास्थ्य प्रणालियों या रोजगार के अवसरों में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। दूसरी तरफ, हालांकि, इस समय के दौरान कुछ कॉरपोरेट घरानों की जेबें इतनी गहरी हो गई हैं कि जिनके चलते हमारे देश और समाज के लिए गंभीर चिंताएं पैदा हो गई हैं।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि बुद्धिमान लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं, अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं और उन्हें सुधारने के लिए उचित कार्रवाई करते हैं। हमें, एक देश के रूप में अतीत में की गई गलतियों से सीखने की जरूरत है। यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण एवं शर्मनाक स्थिति है कि हमारे देश का नाम भ्रष्ट देशों की सूची में लगभग शीर्ष पर है। यह हमारी अपनी बनाई हुई परिस्थिति है और हम सभी इस शर्मनाक स्थिति और नैतिक मूल्यों में निरंतर होने वाली गिरावट के मूक दर्शक बने रहे हैं। हमने अपने सार्वजनिक जीवन के हर कोने पर और हर जगह ‘चलता है’ के दृष्टिकोण को स्वीकार किया है और हमारा यह आचरण एक देश के रूप में हमें महंगा पड़ा है। अलग-अलग देशों के लोग साफ़ तौर पर कहते हैं कि भारत में काम करना बहुत मुश्किल है, और हम भी यही त्रासदी वर्षों से झेलते चले आ रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि किसी का भी कोई भी काम तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसके पास ‘सिफरिश’ न हो या वह रिश्वत देने को तैयार न हो। आज हम सभी के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा है कि इतने सालों तक देश में रिश्वतखोरी की यह संस्कृति क्यों बर्दाश्त की जाती रही है? इस दुखद स्थिति के लिए मुख्य रूप से कौन कौन लोग जिम्मेदार हैं? इसका उत्तर भी देना कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि सभी को यह पता है कि इन स्थितिओं के लिए भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था, ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट नौकरशाही और भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाही के बीच गठजोड़ जिम्मेदार है, जो भ्रष्टाचार की इस संस्कृति को हमारे देश के जीवन में व्याप्त करने में अपना सक्रिय योगदान वर्षों से देते रहे है। इस दलदल से बाहर निकलने के लिए कर्तव्यनिष्ठ लोगों के द्वारा ठोस प्रयासों की आवश्यकता होगी, जो व्यवस्था में व्याप्त इन तमाम गड़बड़ियों से अवगत हैं, और जो इन परिस्थितिओं का सामना करने के लिए अपेक्षित ईमानदारी और नैतिक साहस रखते हैं।
लेकिन स्थिति को सुधारने के लिए पहले हमें सबसे पहले पूर्व में कि गई गलतिओं को स्वीकार करना होगा और फिर सुधार की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। इसके लिए जब तक हम अपने देश में राजनीति ,जो पूरी तरह से काले धन, बाहुबल, जातिगत समीकरणों और धर्म के उपयोग पर निर्भर है , के संचालन के तरीके को बदलने की दिशा में काम नहीं करेंगे, तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा, । ऐसा करना यद्यपि आसान नहीं है, लेकिन एक देश के रूप में हमारे पास समस्याओं का मुहतोड़ ढंग से सामना करने के अलावा कोई विकल्प भी अब नहीं बचा है।
पिछले दो सौ वर्षों का अनुभव हमें बताता है कि विकास और भ्रष्टाचार का परस्पर विपरीत संबंध है और सिर्फ एक ईमानदार देश ही विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने की उम्मीद कर सकता है। अनुभव यह भी बताता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे चलता है और जब तक हम देश और राज्यों पर शासन करने के लिए भ्रष्टाचारियों को चुनते रहेंगे, तब तक हम ऐसे ही विपन्न रहेंगे और इस बात पर बहस करते रहेंगे कि अगली बार किस भ्रष्ट नेता को चुनना है। हमारा बुद्धिजीवी वर्ग ,कुछ अपवादों को छोड़कर, राजनीति के इन भ्रस्ट एवं अनैतिक व्यवहार करने वालों के कथनों , बयानों , आचरण में किसी भी तरह से राजनीतिक दर्शन के झुकाव का पता लगाते रहने में व्यस्त रहते है। जब भी चुनाव निकट होते हैं, इन लोगों के बीच राजनीतिक परिवर्तन और जाति और धर्म को लेकर जनता के रुझानों को लेकर बहस होती रहती है, लेकिन इन राजनेताओं के भ्रस्टाचार , अकर्मण्यता ,अनैतिक आचरण और चरित्र के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा जाता है। यह सब बदलना होगा। यह उन सभी की जिम्मेदारी है जो हमारे देश के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। लोगों को जाति, धर्म, धन और अन्य प्रलोभनों के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए तैयार करने का समय आ गया है।
जिन लोगों ने अपना जीवन ईमानदारी से जिया है और जो राष्ट्र के समक्ष उपस्थित चुनौतिओं को समझते हैं , ऐसे लोगों को एक जुट होकर लोगों के सामने एक साफ़ सुथरा राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत करना आज कि महती आवश्यकता बन गई है। देर से ही सही, इस मुद्दे को लोगों तक ले जाने और हमारे देश में प्रचलित गैर-सैद्धांतिक राजनीति की संस्कृति को बदलने का समय आ गया है। जैसा कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने कहा था, ” ईमानदारी से व्यवसाय या कोई काम करना मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं है।”
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)