आज के युग में धर्म की परिभाषा

आज के उपलब्ध ज्ञान,विज्ञान,विवेचना तथा तर्क पद्धिति के संदर्भ में प्रचलित धर्म,विसंगतियों से भरा,तथ्यों से परे,अन-उपयोगी तथा तमाम तरह की जटिलताओं में उलझा प्रतीत होता है

प्रो. एच सी पांडे, विजय शंकर पांडे
कल ही कर्नाटक राज्य के उच्च न्यायालय ने स्कूल में हिजाब पहन कर जाने को अड़े विद्यार्थियों के एक समूह द्वारा दाखिल की गई याचिका पर अपना निर्णय देते हुए यह कहा कि हिजाब पहनना मुस्लिम धर्म के मूल सिद्धांतों में शामिल नहीं है और इस लिए विद्यार्थी को स्कूल द्वारा निर्धारित ड्रेस पहन कर आने के लिए कहना वैध आदेश है । हिजाब पहन कर विद्यालय आने को धर्म के साथ जोड़ कर पिछले कई दिनों से विवाद चल रहा था और इस मामले को लेकर पूरे देश में पक्ष और विपक्ष में तमाम दलीलें दी जाती रहीं परंतु धर्म वास्तविक रूप से क्या है इसपर कोई चर्चा सामने नहीं आयी ।ऐसे ही अनावश्यक विवादों , जैसे धर्म के मानने वालों को कैसे रहना चाहिए या क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए , के चलते दुनिया भर में कई युद्ध हो चुके हैं और आज भी जारी हैं और परिणाम स्वरूप लाखों को अपनी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।इसके बाद भी धर्म क्या है , इसको लेकर कभी गम्भीर विचार विमर्श या चर्चा नहीं हुई , जो एक दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है ।
सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव जाति एक संगठित इकाई,समाज,बनने की ओर बढ़ती रही। इस समाज के रूप,स्वरूप के आधार,कुछ कहे,कुछ अनकहे,विचारों तथा भावनाओं से उपजे और अंतत: इसी आधार को धर्म के नाम से स्थापित कर स्थायी स्वरूप दिया गया।देश तथा काल के अनुसार धर्म ने कई रूप लिये।आस्था,अवधारणायें तथा परंपरायें समय के अनुभव तथा उपलब्ध ज्ञान के अनुसार उपजी,तदनुसार,धर्म की व्याख्या होती रही।समय चलता गया और मानव का विकास व उसकी प्रकृति पर पकड़ तथा समझ बढ़ती गयी।ज्ञान के भंडार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई तथा कल का रहस्य आज का साधारण,समझा हुआ,तथ्य बना।आज,समाज का भविष्य वह नहीं है जहाँ समाज परवश जा रहा है वरन वह जिसे समाज स्वयं सृजित कर सकता है।ऐसे युग में धर्म , वह चाहे कोई हो , की परिभाषा,यज्ञ,तप , पूजा पद्धति की भूमिका,तथा,पाप व पुण्य की अवधारणा,सरल तथा युक्ति-संगत ही स्वीकार्य होगी।
आज के उपलब्ध ज्ञान,विज्ञान,विवेचना तथा तर्क पद्धिति के संदर्भ में प्रचलित धर्म,विसंगतियों से भरा,तथ्यों से परे,अन-उपयोगी तथा तमाम तरह की जटिलताओं में उलझा प्रतीत होता है।वास्तव में ऐसा ही है,क्योंकि सदियों से कुछ सरल तथा कुछ स्वार्थी तत्व,धर्म के रूप-स्वरूप को अज्ञानवश अथवा निजी स्वार्थ के लिये,आवश्यकता अनुसार,नये नये आवरण से ढक कर परिवर्तित करते रहे हैं।समग्र,सुखी,स्वस्थ और सम्रद्ध समाज का पोषण,जो धर्म की मूल भावना है,अब व्यर्थ के आवरणों के अंबार से,पूर्णतया ओझल हो गई है।आज का प्रचलित धर्म मुख्यतया शोषण का माध्यम बना हुआ है न कि पोषण का।
मानव,प्रकृति के रहस्य हर दिन खोलता जा रहा है तथा उसका आत्म-विश्वास नित्य नई ऊँचाइयाँ छू रहा है।इस परिस्थिति में मानव दंभी तथा निरंकुश हो कर सर्वनाश की ओर बढ़ सकता है।इसी कारण धर्म की अवधारणा समाज के स्थायित्व के लिये नितांत आवश्यक है,क्योंकि सृष्टि अपार और अनंत है।मानव एक रहस्य समझता है तो दो और रहस्य सामने दिखने लगते हैं अत: मानव का प्रकृति का अध्ययन सदैव चलता रहेगा पर वह
सृष्टि का स्वामी नहीं बन सकता।सभी धर्मों के विकास में श्रुति ,स्मृति, धार्मिक ग्रन्थों का महत्व रहा है लेकिन आज इन सब के साथ प्रचलित परंपराओं को वर्तमान ज्ञान की भट्टी में तपा कर धर्म के स्वर्णिम सार को सर्वसुलभ करना आज की परम आवश्यकता है।
सारा विषय,धर्म क्या है? पुण्य क्या है? पाप क्या है, कर्तव्य कैसा हो , मृत्यु के बाद क्या जैसे प्रश्नों के उत्तर में समाया हुवा है। हिन्दू धर्म के परिपेक्ष में भीष्म पितामह व महर्षि व्यास के वचन कालजयी हैं।
१.महाभारत के महायुद्ध के अंत में,शर-शैय्या से भीष्म पितामह ने युद्धिष्टिर को धर्म-ज्ञान देते हुवे कहा :-
सत्य ही सनातन धर्म है।सत्य ही सनातन ब्रह्म है।सत्य ही परम यज्ञ है।सत्य सर्व प्रतिष्ठित है।
२.धर्मग्रन्थों की जटिल भाषा से हटकर,पाप व पुण्य की,व्याख्या करते हुवे महर्षि वेदव्यास ने कहा :-
उपकार करना ही पुण्य है तथा पीड़ित करना ही पाप है।
संत तुलसीदास ने सारी रामायण का सार,धर्म का मूर्तरूप,विजय रथ वर्णित कर के दर्शाया है।जीवन-संग्राम को जीतने का साधन ही धर्म है।रामायण का वास्तविक उद्देश्य,निम्नलिखित ८ पंक्तियों को आत्मसात करने से पूर्ण हो जाता है।:-
सुनहु सखा कह कृपानिधाना,जेहि जय होइ सो स्यन्दन याना,
सौरज,धीरज तेहि रथ चाका,सत्य, सील द्रढ़ ध्वजा पताका।
बल,विवेक,दम,परहित घोरे,क्षमा,कृपा,समता रजु जोरे,
ईस भजनु,सारथी सुजाना,विरति चर्म,संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा,बर बिग्यान कठिन को दण्डा।
अमल अचल मन त्रोण समाना,सम जम नियम सिली मुख नाना।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा,अहिंसा सम विजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय इस रथ जाके,जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके।
संक्षेप में,यदि मनुष्य में,साहस,धैर्य,सच्चाई,नम्रता,बल के साथ क्षमा,विवेक के साथ कृपा,अनुशासन के साथ समद्रष्टि,स्वच्छंद परहित,परमात्मा- स्मरण,अनासक्ति,संतोष,दानशीलता,ज्ञान-विज्ञान,निर्मल ह्रदय,संयम,गुरु के प्रति आदर हो तो वह संसार में विजयी रहेगा।इन्हीं को अपनाना ही धर्म है।
सिख धर्म का आधार है,सत श्री अकाल,अर्थात सत्य कालजयी है।श्री गुरु महाराज का कथन है,”शुभ करमन ते कबहुँ न टरों”।यह धर्म की सुंदर व्याख्या है।
आज के समय,सत्य आचरण,सतकर्म तथा परोपकार ,यही धर्म को परिभाषित करते है। आज ज़रूरत इस बात की है कि अनावश्यक विवाद पैदा करने के स्थान पर सभी धर्मों के मूल सिद्धांतों के अनुसार , जो कि एक ही है , जीवन व्यतीत किया जाए और समाज में सुख और समरसता क़ायम बनाए रखी जाए । महान संत कबीर दास का निम्न कथन ही ऐसे समाज के लिए मर्गदर्शन कराने में पूर्णतः सक्षम है –
साधु ऐसा जानिये,जाको सूप सुभाय,
सार सार को गहि रखे,थोथा देत उड़ाय।

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं), (विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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