नए साल से आम लोगों को राहत मिलने के आसार नहीं

नए साल में कुछ ख़ास बदलाव हो पाए गा , इसकी सम्भावना अत्यंत न्यून लगती है। आज के हालातों पर अगर गौर किया जाये तो निराशा ही हाथ लगती दिखती है। आज मॅहगाई की मार से आम जनता परेशान है, बेरोजगारी की दर लगभग ८ प्रतिशत के पास पहुँच रही है , रुपया ८० प्रति डॉलर के पार हो चूका है

वी.एस.पांडे

नए साल की शुरुवात हो गई है और स्वाभाविक रूप से देश के लोग पहले की तरह ही अब भी बेहतर भविष्य की तलाश में हैं। आम जनता तो सिर्फ एक सुकून भरी जिंदगी की तलाश में वर्षों से भटक रही है , लेकिन कोई भी राजनैतिक दल इतना भी जनता के लिए कर पाने में अभी तक तो सफल नहीं हो पाया , यह एक कड़वी सच्चाई है। नए साल में कुछ ख़ास बदलाव हो पाए गा , इसकी सम्भावना अत्यंत न्यून लगती है। आज के हालातों पर अगर गौर किया जाये तो निराशा ही हाथ लगती दिखती है। आज मॅहगाई की मार से आम जनता परेशान है , बेरोजगारी की दर लगभग ८ प्रतिशत के पास पहुँच रही है , रुपया ८० प्रति डॉलर के पार हो चूका है , भारत सरकार पर कर्ज पिछले एक दशक में दो गुना हो चुका है , और पिछले कुछ वर्षों में विदेश व्यापार का घाटा डेढ़ गुना हो गया। कुछ समय पूर्व ही हमारे देश के जीडीपी विकास अनुमानों को लगभग सभी रेटिंग एजेंसियों, विश्व बैंक, आरबीआई और अन्य द्वारा नीचे की ओर संशोधित किया गया है। ये संख्या कई लोगों के लिए बहुत मायने रखती है लेकिन हमारे देश के करोड़ों लोगों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे वर्षों की तथाकथित तीव्र विकास दर के बावजूद घोर गरीबी में रहते हैं। बेरोजगारी आज भी एक गंभीर समस्या बनी हुई है, जिसे दोहरे अंकों की विकास दर वृद्धि अवधि के सभी दशकों के दौरान जान-बूझकर नजरअंदाज किया गया, ऐसा लगता है, । तथाकथित “ट्रिकल डाउन ग्रोथ” सिद्धांत में अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों और शासक वर्ग द्वारा दिखाए गए अंध विश्वास को जानबूझकर बनाये रखा गया जिसके दुष्परिणाम आज हम सब के सामने हैं। इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण आर्थिक मॉडलों पर फिर से विचार करने की मांग भारत सहित दुनिया भर के नेताओं और योजनाकारों द्वारा वर्षों की जारही है लेकिन वर्तमान आर्थिक ढाँचे , जिसने अरबपतियों की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि देखी है, को बदलने या इसपर पुनर्विचार करने का कोई भी प्रयास होता नहीं दिख रहा। आज आर्थिक असमानता भारत और विश्वभर में अपने चरम पर है।

स्पष्ट रूप से वर्तमान निराशाजनक आर्थिक परिदृश्य दशकों से चली आ रही त्रुटिपूर्ण आर्थिक नीतियों के कारण है। आजादी के बाद नेहरूवादी समाजवादी नीतियों को आवर्ती सभी व्यापक गरीबी के लिए दोषी ठहराया गया था। 1991 के बाद उदार आर्थिक नीति का ढांचा, लाइसेंस राज का अंत और उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण मंत्र ने देश के जीवन पर अपनी छाप डालनी शुरू किया, और इसी के साथ यह वादा भी किया गया था कि गरीबी दूर हो जाएगी और देश जल्द ही विकासशील अर्थव्यवस्था टैग को पीछे छोड़कर आगे बढ़ेगा। बत्तीस साल बाद, हमारे पास दिखाने के लिए कुछ विकास दर संख्याएं, अरबपतियों की सूची, निजी तौर पर संचालित हवाई अड्डे, बंदरगाह, दर्जनों कार मॉडल , मोबाइल, कॉस्मेटिक निर्माण कंपनियां आदि हैं। हम इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था अब पांचवीं सबसे बड़ी है, पर हम यह भूल जाते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था 1947 में ही दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। पिछली कुछ सहस्राब्दी के दौरान देश के आर्थिक कौशल पर एक नज़र वर्तमान पीढ़ी के देशवासियों को चौंका देने के लिए पर्याप्त है।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार, पहली ईसवी से लगभग 1700 वर्षों की निरंतर अवधि के लिए, भारत दुनिया की जीडीपी का 35 से 40% के साथ शीर्ष अर्थव्यवस्था वाला देश था। इससे बहुत पहले सिंधु घाटी सभ्यता के नागरिक, जो 2800 ईसा पूर्व और 1800 ईसा पूर्व के बीच फले-फूले , खेती करते थे, पालतू जानवर रखते थे, एक समान वजन और माप का इस्तेमाल करते थे, औजार और हथियार बनाते थे और दूसरे शहरों के साथ व्यापार करते थे। सुनियोजित सड़कों, एक सक्षम जल निकासी प्रणाली और जल आपूर्ति के उपलब्ध सबूतों से शहरी नियोजन के बारे में उनके ज्ञान का पता चलता है, जिसमें पहली ज्ञात शहरी स्वच्छता प्रणाली और नगरपालिका सरकार के एक रूप का अस्तित्व शामिल है। 18वीं शताब्दी तक भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी और समृद्ध थी। विश्वसनीय अनुमानों के मुताबिक, चीन और भारत के पास 17वीं शताब्दी में विश्व सकल घरेलू उत्पाद का 60 से 70 प्रतिशत हिस्सा था , भारत 1750 तक दुनिया के औद्योगिक उत्पादन का लगभग 25% उत्पादन करता था, जिससे यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ब्रिटिश शासन के तहत विश्व आय में भारत का हिस्सा 1700 में 22.6% था जो उस समय यूरोप की 23.3% हिस्सेदारी के लगभग बराबर था, से काफी गिर कर 1952 में 3.8% हो गया। वर्तमान में भी विश्व जीडीपी में भारत का योगदान 3.8% के बराबर है जैसा कि 1952 में था। तो वर्षों का विकास कहाँ है? प्रगति कहाँ है? एक देश जो हजारों साल तक दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक था, उसका विश्व जीडीपी में योगदान 22.6% था , उसकी आज यह हालत क्यों ? विचारणीय मुद्दा यह है कि आजादी के 75 साल और देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के तीन दशकों के बाद भी विश्व जीडीपी में हमारा योगदान उतना ही कम क्यों है जितना 1952 में था? द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान पूरी तरह से तबाह हो गए थे लेकिन एक या दो दशक में वे एक धमाके के साथ विकास के रास्ते पर वापस आ गए थे और वे सबसे उन्नत देशों के समूह G7 के सदस्य हैं। हम कहाँ है? हम अभी तक पूरी तरह से विकसित क्यों नहीं हुए हैं? हजारों सालों से दुनिया का सबसे अमीर देश 75 साल के स्वशासन के बाद क्यों नहीं उठ पा रहा है?
हमारे नेताओं और राजनेताओं को इन सवालों के जवाब देने की जरूरत है। दशकों या कई वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद, उन्होंने नारेबाजी करने और लोगों को जाति और धर्म के आधार पर बेवकूफ बनाने के अलावा कुछ नहीं किया है। कब तक हम लोग, काला धन, झूठ, जाति, धर्म के आधार पर राजनीती को अपना समर्थन देते रहेंगे ?
इस देश में हमेशा आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में विश्व नेता बनने की क्षमता थी, इसलिए यह सदियों से दूसरों से आगे था। यह तो दशकों का सड़ा हुआ नेतृत्व है जिसने इस महान देश को भ्रष्टाचार, गरीबी, सभी प्रकार के अभावों के कुण्ड में फँसा दिया है। ये स्वार्थी, अक्षम, दृष्टिहीन, भ्रष्ट, लालची नेता भ्रष्ट नौकरशाही और व्यापारियों की मिलीभगत से इस देश को दरिद्रता के रास्ते पर झोंक चुके हैं और यही भ्रष्ट राजनीति देश में व्यापक गरीबी, बेरोजगारी, अन्याय, असमानता, नफरत के लिए अकेले जिम्मेदार हैं।

(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

Share via

Get Newsletter

Most Shared

Advertisement