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(Update 12 minutes ago)

अर्थव्यवस्था में सुधार के बावजूद भारत में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है

पूर्व आईएएस अधिकारी वी एस पांडे कहते हैं आज धन सृजन पहले से कहीं अधिक तेज गति से हो रहा है। यह सच है लेकिन क्या देश सिर्फ अमीरों और ताकतवर लोगों का है? क्या सरकार को केवल अरबपतियों की संख्या में वृद्धि की ही चिंता होनी चाहिए? एक ओर जहां कुछ लोग बिजली की गति से धन बटोर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई सामान्य भारतीय अपनी जरूरत की बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं।

भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और देश का लक्ष्य पांच ट्रिलियन की विशाल अर्थव्यवस्था बनना है। हालांकि, इस बहुप्रचारित सार्वजनिक चर्चा में एक कड़वी सच्चाई पर व्यवस्था पूर्ण तौर पर मौन है कि भारत दुनिया के सबसे असमानता वाले देशों में से एक है। हमारे देश में आज लगभग एक सौ चालीस करोड़ की अधिकांशतः युवा आबादी आर्थिक रूप से उत्पादक बनने और आर्थिक संमृद्धि बढ़ने के लिए तैयार है , इसलिए हमें विकास के सभी मापदंडों पर बहुत आगे होना चाहिए था। इसके बजाय हम अभी भी एक गरीब और अविकसित देश क्यों हैं जहां करोड़ों लोग अभी भी सबसे बुनियादी सुविधाओं से रहित एक दयनीय जीवन जी रहे हैं? यह वह प्रश्न है जिससे सत्ता में बैठे लोग दशकों से बचते आ रहे हैं और इसमें वर्तमान व्यवस्था भी शामिल है। हमारे देश में हर जगह अमीर और गरीब के बीच एक अत्यंत गहरी खाई दिखाई दे रही है। यह निंदनीय है कि हमारे शासक वर्ग और हमारे देश के सुविधा संपन्न लोगों ने जानबूझकर कर असमानता के इस विकृत सच्चाई को वर्षों से नजरअंदाज करते रहे है।

दुनिया की एक प्रसिद्ध संस्था, ऑक्सफैम की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में असमानता पिछले तीन दशकों से तेजी से बढ़ रही है क्योंकि हमारी आबादी के सबसे अमीर वर्ग ने क्रोनी कैपिटलिज्म और विरासत के माध्यम से देश की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा हड़प लिया है। भयावह सच्चाई यह है कि अमीर बहुत तेज गति से अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब अभी भी न्यूनतम मजदूरी अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाने में बुरी तरह विफल रहे हैं, क्योंकि आजादी के बाद से लगातार इन दोनों सेक्टरों में अत्यधिक कम निवेश के चलते यह खस्ता हालत में पहुँच गए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय आबादी के शीर्ष के 10% के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है और वर्ष 2017 में उत्पन्न धन का 73% सबसे अमीर 1% के पास गया, जबकि 67 करोड़ भारतीय, जो देश के सबसे गरीब जनसंख्या में शामिल हैं , उस ने अपने धन में केवल 1% की वृद्धि देखी। आज भारत में 119 अरबपति हैं और उनकी संख्या 2000 में केवल 9 से बढ़कर 2017 में 101 हो गई है और 2018 और 2022 के बीच, भारत में हर दिन आश्चर्यजनक रूप से 70 नए करोड़पति पैदा होने का अनुमान है!
यह हमारे तथाकथित समावेशी विकास को उजागर करता है जहाँ अरबपतियों के खरबपति बनने की अभूतपूर्व वृद्धि की कहानी लिखी गई है। तथाकथित उल्लेखनीय विकास की इस अवधि के दौरान, अरबपतियों की संपत्ति एक दशक में लगभग 10 गुना बढ़ गई। ऐसे कई लोग हैं जो अमीरों के और अमीर होने को सही ठहराएंगे और यहां तक कि सवाल करेंगे कि इस विकास पथ में क्या गलत है क्योंकि अतीत की तुलना में आज धन सृजन पहले से कहीं अधिक तेज गति से हो रहा है। यह सच है लेकिन क्या देश सिर्फ अमीरों और ताकतवर लोगों का है? क्या सरकार को केवल अरबपतियों की संख्या में वृद्धि की ही चिंता होनी चाहिए? एक ओर जहां कुछ लोग बिजली की गति से धन बटोर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई सामान्य भारतीय अपनी जरूरत की बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। असमानता का स्तर इतना तीव्र है कि, ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में एक न्यूनतम वेतन पाने वाले कर्मचारी को एक प्रमुख भारतीय परिधान कंपनी में शीर्ष वेतन पाने वाले कार्यकारी को एक साल में मिलने वाली धनराशि के बराबर कमाने में 941 साल लगेंगे।

हमारे देश का यह कटु सत्य है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली सबसे गरीब लोगों के लिए अत्यंत निराशापूर्ण रही है। गरीब लोगों के पास बिमारी का इलाज करा पाना एक बहुत बड़ी त्रासदी सा बन गया है क्योंकि वे निजी स्वास्थ्य सेवाओं का खर्च नहीं उठा सकते और सरकारी स्वास्थ सेवाएं एकदम नाकाफी हैं । वास्तव में तो हमारे देश के सामान्य नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवा एक विलासिता बन गई है। इस दुखद स्थिति का कारण यह है कि विभिन्न राज्य एवं केंद्र की सरकारों ने एक अच्छी तरह से वित्त पोषित स्वास्थ्य और शिक्षा सेवा को कभी भी प्राथमिकता नहीं दी। इसके बजाय, इसने हमारी आबादी के गरीब और वंचित वर्गों के लोगों के हितों को नुकसान पहुँचाने वाली व्यावसायिक और निजी स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र को बढ़ावा दिया है। नतीजतन, बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध एक विलासिता बन गई है जिनके पास इसके लिए भुगतान करने के लिए पैसा है। दुखद विडंबना यह है कि भारत चिकित्सा पर्यटन के लिए एक शीर्ष स्थान विश्व भर में माना जाता है, जबकि हमारे सबसे गरीब राज्यों में शिशु मृत्यु दर अभी भी अफ्रीका के देशों की तुलना में भी अधिक है।
नि:संदेह इसके लिए पूर्व एवं आज की सभी सरकारों द्वारा अपनाई गई त्रुटिपूर्ण नीतियां ही जिम्मेदार हैं। देश की नीतियां अधिकतर अमीर और शक्तिशाली लोगों के पक्ष में अक्सर झुकी हुई रहती हैं क्योंकि उनके पास पैसे की थैलियां होती हैं जो चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों की मदद करती हैं। स्वाभाविक रूप से चुनाव खत्म होने के बाद, ये चुनाव में दलों को मोती रकम देने वाले लोग , प्रदान की गई सेवाओं के बदले में मनमानी नीतिओं की मांग करते हैं जिनका आम लोगों के हितों से कोई लेना देना नहीं होता है । इस प्रकार के राजनीतिक व्यस्था और प्रचलन में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि शासक सही अर्थों में गरीबों के हित में काम करेंगे। चूँकि गरीबों की संख्या बहुत अधिक है, इसलिए दिखाने के लिए ही सही ,उन्हें किसी भी किसी तरह से खुश किया जाना शासकों की मजबूरी होती है और इसलिए मुफ्त राशन योजना, काम के बदले अनाज , ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, किसान सम्मान निधि, गरीब मदद योजना, बेटी समृद्धि योजना, वृद्धावस्था , विधवा, अलग-अलग विकलांग पेंशन योजना, आदि जैसी तमाम योजनाएं भी वर्षों से चलायी जाती रही हैं। लेकिन इन सब योजनाओं के वर्षों से चलते रहने के बाद भी दुर्भाग्य से सच्चाई यह है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार मुफ्त राशन पर निर्भर लोगों की संख्या पहले ही अस्सी करोड़ को छू चुकी है। इन हालातों की तुलना चुनिंदा अमीरों , धन्ना सेठों के साथ करने से एक निराशाजनक स्थिति पैदा होती है कि क्या कभी हमारे देश के सामान्य लोगों के हालात भी सुधरेंगे या गरीबों को विपन्नता में ही हमेशा रहना पड़ेगा। इस दृष्टि से हमारी विकास यात्रा आम जनता के लिए हर दृष्टि से न्याय विहीन है।
स्पष्ट्तः समस्या की जड़ हमारी राजनीतिक व्यवस्था की सड़ांध है जो जाति और धर्म के नाम पर विभाजनकारी हो गई है और सच्चाई, ईमानदारी और न्याय से पूरी तरह रहित है। जब छल-कपट, झूठ, काला धन हमारी राजनीतिक संस्कृति का आधार बन गए है, तो राजनेताओं से इस सड़ांध से बाहर आने और जनता को न्याय दिलाने की उम्मीद करना संभव नहीं है। जब तक देश की राजनीति से ,आजादी के बाद के दशकों में जमा की गई गंदगी साफ नहीं कर दी जाएगी, तब तक कुछ भी बेहतर होने की सम्भावना नहीं के बराबर रहेगी । सत्य, ईमानदारी और न्यायपूर्ण चरित्र को राजनीति में केंद्रीय स्थान लेना होगा और तभी हमारा राष्ट्र उस मंजिल तक पहुंच पाएगा जिसकी हम सभी आकांक्षा करते हैं।
भारत ने इस परिवर्तन का बहुत लंबे समय से इंतजार किया है। आइए इसे हकीकत बनाएं।

(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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