वी एस पांडेय और प्रोफेसर एच सी पांडे कहते हैं कि चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों के लिए विकास के ठोस कार्यक्रम पेश करने और जरूरी प्रयासों को रेखांकित करने के बजाय भावनाओं को उभारना और रियायतों का वादा करना आसान होता है। व्यवसायी अधिक कुशल टर्नओवर के लिए प्रयास करने के बजाय कर में राहत चाहते हैं। अलोकप्रिय, लेकिन, सही निर्णय लेने के बजाय सभी को खुश करना हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था की संस्कृति शुरू से ही रही और राजनैतिक नेतृत्व सदैव से यही चाहता रहा कि कानून के राज की जगह उसकी इच्छा अनुसार राज चले , बिना इस बात की परवाह किये हुए कि इस प्रकार की दोष पूर्ण संस्कृति राष्ट्र और आम जान के हित को गंभीर नुक्सान पहुंचा देगी।
नोबेल पुरस्कार विजेता, अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री, एशियन ड्रामा के लेखक, राष्ट्रों की गरीबी और विकास की असमानताओं के विद्वतापूर्ण अध्ययन के लेखक, श्री गुन्नार मायर्डल , स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास की संभावनाओं से प्रभावित थे, और उनका दृढ़ मत था कि यदि भारत देश की सरकारें नरम विकल्पों का चयन नहीं करती हैं तो भारत शेष विश्व के लिए एक आदर्श हो सकता है । मायर्डल ही ने ‘नरम राज्य’ के विचार को सृजित किया था, जिसका अर्थ है, एक सरकार, जिसके पास शक्ति है, लेकिन शासन करने की इच्छा नहीं है। भारत के संदर्भ में इस शब्द का अर्थ सरकार और समाज , दोनों के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है। एक सीमा से परे, नरम राज्य, यानी, एक ऐसी सरकार जो निष्क्रियता को नजरअंदाज करती है, या जो समाज अन्याय को सहन करता है, वह नीचे जाने के लिए बाध्य है और अंततः इतिहास में एक फुटनोट के रूप में समाप्त होती है।
तीन साल के अंदर ही वर्ष 1950 में भारतीय राष्ट्र ने डोमिनियन से एक लोकतांत्रिक गणराज्य की छलांग का लाभ देश भर के राजनीतिक दलों के विचारहीन कार्यों से लगातार खो रहा है। सदियों की उपेक्षा से उभर रहे राष्ट्र का लोकतान्त्रिक ढांचे के तहत पुनर्निर्माण कोई आसान काम नहीं था लेकिन इस कठिन काम को करना ही तो एक चुनौती थी । एक छोर पर सामंती मानसिकता, और दूसरी तरफ यथास्थिति वाद को मिली भाग्यवादी स्वीकृति, यह दोनों ही त्वरित विकास के मार्ग में एक बड़ी बाधा बनकर देश के सामने खड़ी थी । परन्तु सत्य तो यही है कि एक राष्ट्र केवल अपने ही नागरिकों के प्रयासों से ही खुद को ऊपर उठा सकता है। इसके लिए हर स्तर पर आम जनता और नेताओं द्वारा, ईमानदारी के साथ कड़ी मेहनत की अपरिहार्य आवश्यकता थी , यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि की गई कड़ी मेहनत का मुआवजा किए गए काम के अनुरूप नहीं हो सकता है और केवल उतना ही होगा जो राष्ट्र उस समय वहन कर सकता था । यही वह जगह है जहां राजनीतिक दलों, व्यापारियों, प्रशासकों, श्रमिक संघों , पेशेवरों, शिक्षकों आदि ने देश के साथ न्याय नहीं किया क्योंकि हर कोई हर मौजूदा रोटी का एक बड़ा टुकड़ा चाहता है, बिना किसी बड़ी रोटी को पकाए।
चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों के लिए विकास के ठोस कार्यक्रम पेश करने और जरूरी प्रयासों को रेखांकित करने के बजाय भावनाओं को उभारना और रियायतों का वादा करना आसान होता है। व्यवसायी अधिक कुशल टर्नओवर के लिए प्रयास करने के बजाय कर में राहत चाहते हैं। अलोकप्रिय, लेकिन, सही निर्णय लेने के बजाय सभी को खुश करना हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था की संस्कृति शुरू से ही रही और राजनैतिक नेतृत्व सदैव से यही चाहता रहा कि कानून के राज की जगह उसकी इच्छा अनुसार राज चले , बिना इस बात की परवाह किये हुए कि इस प्रकार की दोष पूर्ण संस्कृति राष्ट्र और आम जान के हित को गंभीर नुक्सान पहुंचा देगी। श्रमिक नेता कारखाने के उत्पादन को बढ़ाए बिना वेतन में वृद्धि चाहते हैं। पेशेवर लोग उनके द्वारा प्रदान की गई सेवाओं में सुधार के बिना अतिरिक्त कमाई की तलाश येन केन प्रकारेण करते रहते हैं। शिक्षक संघ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाये बिना , कम शिक्षण भार की मांग करते हैं और इस बात की परवाह शायद ही करते हों कि दिन प्रति दिन शिक्षा का स्तर नीचे की ओर जा रहा है।
इसी के साथ यह भी एक सच्चाई है कि हमारा समाज, समग्र रूप से, परंपरा या धर्म के बहाने लंबे समय से मौजूद सामाजिक बुराइयों और अतार्किक प्रथाओं के प्रति नरम रहता है और सहन करता है। निःसंदेह देश की आज वर्तमान स्थिति यही है कि भारत एक “नरम राज्य” है।
एक ईमानदार और विकासशील राष्ट्र के लिए यह बहुत ही जरूरी है कि सभी लोग मिल कर विकट चुनौतियों का कड़ी मेहनत करके सामना करें संसाधनों की कमी को आड़े न आने दें । लेकिन यह करने के बजाय सत्ता के भूखे राजनीतिक दल चुनाव में जब जनता के सामने आते हैं तो उनका रैलियां में भाषण चुनौतियों का सामना करने के बारे में नहीं होता हैं, और न ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, या राष्ट्रीय विकास के लिए उनकी रणनीतियों के लिए होता है, बल्कि उन झूठे वादों के बारे में उनका भाषण होता है जो वे एक बार चुने जाने के बाद भूल जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए, वे रखते हैं मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली, मुफ़्त बस यात्रा, बेरोज़गारी भत्ता, और, ख़ैरात, ख़ैरात… का वादा करने । इस तरह की खैरात बांटने वाली राजनीति के चलते आम जान और विशेष कर युवाओं पर बहुत बुरा असर पड़ता है और इसके चलते लोगों का चुनौतियों का सामना करने और आगे बढ़ने का जुनून कम हो जाता है। इस स्थिति में उत्पन्न मानसिकता युवा पीढ़ी को इस हद तक नुकसान पहुंचा रही है कि अब वह एक प्रकार से यह मानने लगे हैं और महसूस करते हैं कि राष्ट्र उन सभी का ऋणी है उन्हें जो कुछ भी चाहिए वह सब पाने के वह हकदार हैं । यह स्थिति किसी भी देश के लिए खतरनाक है की जिन युवा मांसपेशियों वालों में पहाड़ों को स्थानांतरित करने की ताकत है, वह सभी बिना काम के बेरोजगार खाली हाथ घरों में बैठे हैं । राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कठिन कार्य के लिए युवाओं के हाथ में मशीन , औज़ार , रोजगार होने चाहिए न कि सहारे के लिए बैसाखी।
इन सब स्थितिओं में बदलाव तभी आ सकेगा जब राजनीति जाति , धर्म , काले धन और झूठे वादों पर आधारित न हो कर ईमानदारी और सच पर अवलम्बित हो। अधिकाँश लोगों का यह मानना रहता है कि ऐसा नहीं हो सकता कि राजनीति साफ़ हो जाये। प्रश्न यह है कि क्या ऐसी राजनीतिक व्यवस्था लाने के लिए कभी कोई संगठित गंभीर प्रयास किये गए या नहीं। आज देश को ईमानदार राजनीतिक नेतृत्व की दरकार है लेकिन ऐसा राजनीतिक नेतृत्व इस भ्रष्ट राजनीतिक माहौल में आ सकेगा , इसकी सम्भावना न के बराबर है। इसलिए जाति , धर्म , काले धन एवं ऐसी ही अन्य छुद्र विचार धारा पर आधारित राजनीति से परे ईमानदारी , सच और न्याय पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए नया प्रयोग किया जाना होगा और जनता के बीच जाकर उसका विश्वास जीतना होगा। लोग तो ऐसे परिवर्तन की राह वर्षों से देख रहे हैं और आज की स्थितिओं से अत्यंत नाखुश हैं और आमूल चूल बदलाव के लिए तैयार हैं। आज देश को ऐसे एक प्रयोग की दरकार है जो आज की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को ख़त्म कर नियम , नीति , न्याय पर आधारित राज देश में स्थापित करे। राजनीतिक छलावा बंद होने का समय आ गया है ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं, प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)