स्वार्थों के टकराव को लोकहित का मुखौटा पहनाना हमारे राजनैतिक दलों की मुख्य गतिविधि रही है।किसी भी परिस्थिति में,किसी भी राजनैतिक पार्टी का हित,देश के हित के ऊपर नहीं हो सकता।जनतंत्र मे,विपक्ष,बहुमत की सरकार के प्रस्तावों,नीतियों तथा कार्यकलापों का विरोध तो कर सकता है पर अवरोध नहीं।
प्रो. एच सी पांडे
मयखाना सलामत रह जाये इसकी तो किसी को फ़िक्र नहीं,
मयख्वार हैं बस इस ख़्वाहिश में,इल्ज़ाम साक़ी पर आ जाये।
देश के सभी राजनैतिक दल दिशाहीन ही नहीं,विवेक हीन भी होते जा रहे है।कांग्रेस पार्टी,न जाने क्यों,सत्ता में रहना अपना एकाधिकार समझती है तथा किसी और दल के सत्ता में रहने को बर्दाश्त नहीं कर सकती।निर्भीक,त्यागी,तथा सत्यवादी महापुरुषों की पार्टी अब मात्र एक परिवार के आधीन रह कर देश की राजनीति में सक्रिय रहना चाह रही है।यह चाहत है,या,मजबूरी कहना कठिन है।समाजवादी पार्टी के कार्य-कलाप,समाजवाद कम और मजावाद अधिक परिभाषित कर रहे है।पार्टी,समाजवाद शब्द लिखना भर जानती है तथा,देश के परिपेक्ष में,पाँच-सितारा योजनायें,जैसे अमीरों की हवाखोरी को गोमती रिवरफ्रंट,अन्तरराष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट स्टेडियम इत्यादि पर फ़िज़ूलखर्ची में व्यस्त तथा परिवार हित को सर्वोच्च लक्ष मानते हुवे,सैफई विकास कर,समाजवाद को परिभाषित कर रही है।बहुजन समाज पार्टी,वंचित वर्ग को सम्रद्धि के वादे करते हुवे,सम्रद्धि के प्रतीक हाथी की मूर्तियाँ देने में लगी रही है और अपने नेताओं की मूर्तियाँ स्थापित करने को बहुजनसमाजवाद का पर्याय मानती है।जनता दल युनाइटेड व राष्ट्रीय जनता दल,अपने स्वार्थवश,कभी साथ आने में,कभी अलग होनें में,व्यस्त रहते हैं पर लगातार वर्गविहीन समाज की दुहाई देते हुए अँगड़ी-पिछड़ी राजनीति करते रहते हैं।समरसता का दम भरने वाली,भारतीय जनता पार्टी,अपनी सुविधा अनुसार,देश की वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में,महत्वहीन मुद्दे को उभारने में लगी रही है विचार-धारा रहित,आप पार्टी,अपने मात्र दो पंक्तियों के सिद्धान्त से,क्रान्ति का अलख जगा रही है:
मुफ़्तख़ोरी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है माल कितना,ख़ज़ाने-शाही में है।
स्वार्थों के टकराव को लोकहित का मुखौटा पहनाना हमारे राजनैतिक दलों की मुख्य गतिविधि रही है।किसी भी परिस्थिति में,किसी भी राजनैतिक पार्टी का हित,देश के हित के ऊपर नहीं हो सकता।जनतंत्र मे,विपक्ष,बहुमत की सरकार के प्रस्तावों,नीतियों तथा कार्यकलापों का विरोध तो कर सकता है पर अवरोध नहीं।एक बहुमत से चुनी हुई सरकार द्वारा लाये गये,तथा,संविधान द्वारा निर्धारित विधि से पारित प्रस्तावों को,विधि सम्मत प्रक्रिया से लागू करने पर आंदोलन करना संविधान का अपमान करना है,तथा,यह कृत्य,मूर्खता नहीं,दुष्टता का परिचायक है।संवैधानिक प्रक्रिया से ही किसी भी प्रस्ताव को निरस्त किया जाना चाहिये।जनतंत्र की स्पष्ट सीमाओं के भीतर विरोध करने के लिये सर्व प्रथम बुद्धि तथा फिर धैर्य चाहिये।सत्ता की लालसा में अंधे,विपक्ष में,दोनों ही नदारद हैं।वामपंथी दल जो,अनिच्छा से,संविधान को मान तो लेते हैं,पर सशस्त्र क्रान्ति द्वारा व्यवस्था बदलने में विश्वास रखते हैं,वे भी प्याले उठाकर गोल कमरों में,अथवा,माइक उठाकर टीवी स्टूडियो में,जनता को उपद्रव हेतु उकसाने को,क्रान्ति का पर्याय समझते है।लाठी,डंडा,भाला और बंदूक़ लेकर जंगलों में भटकने से क्या लाभ,जब क़िरासन की एक बोतल,और एक अदद माचिस की डिबिया,बसों और दुकानों में आग लगाने को काफ़ी है,तथा,शहर में,उत्पात मचाने के लिये भीड़ आसानी से जुटाई जा सकती है,ऊपर से,जे एन यू परिसर मे,जंगली जानवरों का डर भी नहीं है।
विपक्ष की सारी कसरत इसलिये होती है कि सरकार पर दोषारोपण किया जा सके।
किसान आँदोलन को,अब सभी विपक्षी दल,सत्ता में वापसी के साधन के रूप में देख कर,आँदोलन को व्यापक रूप देने का प्रयास किये जा रहे है,किसान-प्रेम के कारण नहीं।आज के विपक्षीय दलों की सरकारें,कई राज्यों में,कई बार, रहीं,और,वहॉं के किसानों का कोई विशेष हित हुवा हो यह तो ज्ञात नहीं,पर किसान आत्महत्याओं का सिलसिला कहीं भी रुका नहीं।
हर समय,हर सरकार के ख़िलाफ़,हर छोटे-बड़े,सही-ग़लत,प्रसंग को लेकर,जन भावनाऐं भड़काना,हर विपक्षी दल के राजनेताओं का नियमित कार्य हो गया है।सरकारें आती हैं,सरकारें जाती हैं,सत्तापक्ष में,विपक्ष में,दल बदलते रहते हैं परंतु देश का संविधान थोड़ी बदलता है।हर विपक्ष का,हर समय,एक ही ध्येय रहा है कि सत्तासीन दल को शासन नहीं करने दो,चाहे समाज व देश का,कितना ही दीर्घकालिक अहित हो।निराद चौधरी का कथन रहा है कि हिन्दुस्तानी का ख़ास अवगुण है ईर्ष्या।यह लिखने में भी शर्म आ रही है पर यह सच से बहुत दूर नहीं है।
दिल तूने जला दिया है,घर मैंने जला दिया है,
बे-घर हुवे तो क्या ,ग़ज़ब की रोशनी तो देख।
(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)