अदाणी गाथाः भारत को वित्तीय आपदा के कगार पर धकेल रहा राजनेता-कॉर्पाेरेट का गंदा गठजोड़

प्रश्न यह है कि हमारे देश में इस तरह के बड़े बड़े घोटाले क्यों होने दिए जाते हैं ?इसका उत्तर बहुत आसान है, जब राजनीतिक दल और राजनेता चुनाव जीतने के लिए अरबों रुपये खर्च करने लगते हैं, तो धन की थैलियों से उनकी निकटता लोकतंत्र में इस सबसे बड़े पाप का स्पष्ट परिणाम बन जाता है। इसलिए पार्टी के खजाने को भरने के लिए एक के बाद घोटाले करना इन नेताओं कीमजबूरी बन जाती हैं। उद्योग और व्यवसाय एक या दूसरे राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं और देश कैसे और किस दिशा में चलेगा उसकी शर्तें तय करते हैं।

विजय शंकर पांडेय

लोकतंत्र में सरकारें अकेले जनता के प्रति जवाबदेह होती है, क्योंकि इसमें शासक के पीछे की शक्ति सिर्फ़ जनता ही होती है। लोकतंत्र में शासकों को एक बात हमेशा याद रखनी होगी कि उन्हें जनता ने वोट देकर सत्ता सौंपी है, इसलिए वे हमेशा जनता के प्रति जवाबदेह हैं। सवाल कौन पूछ रहा है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर पदों पर बैठे लोगों को हर मामले में जवाबदेह होना होगा और हर मुद्दे पर सफाई देनी होगी। लोकतंत्र में छिपने की कोई जगह नहीं है और जो कोई भी सवालों से बचने की कोशिश करता है और उनका संतोषजनक और ईमानदारी से जवाब देने में विफल रहता है, वह ऐसा अपने जोखिम पर करता है। इतिहास ने हमेशा ऐसे धोखेबाज़ों को भूतकाल के कूड़ेदान में फेंक दिया है। हमारा देश ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है लेकिन दुर्भाग्य से शासक वर्ग इस मूलभूत सत्य को बार-बार भूल जाता है।
कुछ समय पहले तक सत्ता में बैठे लोगों ने कुख्यात बोफोर्स घोटाले को दबाने की कोशिश की थी। इसी तरह सभी सत्ताधारियों द्वारा किए गए रक्षा सौदा के घोटालों को बिना जांच-पड़ताल और सच तक पहंुचे बिना ही खारिज कर दिया गया। जिसके लिए बाद में इन घोटालों में शामिल लोगों को गंभीर परिणाम भुगतने पड़े। क्या हम 2जी घोटाला, कोयला घोटाला आदि को भूल सकते हैं जिन्हें तब सत्ताधारी दल ने इसी तरह नजरअंदाज कर दिया था। उन लोगों के साथ क्या हुआ जो जनता को बेवकूफ बना रहे थे? उन पर अभियोग लगाया गया है और वे आज भी उसी मकड़ जाल में उलझे हुए हैं और लगभग एक दशक से अभी तक उन्हें अपने दागी नामों से छुटकारा नहीं मिला है।

अब आज अडानी घोटाला कुछ गंभीर अनुत्तरित सवालों के साथ चर्चा में है। यहां तक कि करीब आठ महीने पहले अदानी समूह में कथित तौर पर बड़े पैमाने पर स्टॉक हेरफेर को लेकर हिंडनबर्ग विवाद छिड़ गया था जो अभी भी शांत नहीं हुआ है।
संगठित अपराध और भ्रष्टाचार रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) ने दावा किया है कि गौतम अडानी परिवार ने अपारदर्शी मॉरीशस फंड के माध्यम से अपनी कंपनियों में लाखों डॉलर का निवेश किया था। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ओसीसीआरपी द्वारा प्राप्त विशेष दस्तावेज, जिनमें कई टैक्स हेवन्स की फाइलें, बैंक रिकॉर्ड और आंतरिक अदानी समूह के ईमेल शामिल हैं, इस मामले पर निर्णायक रूप से प्रकाश डालते हैं।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इन दस्तावेज़ों की पुष्टि अडानी समूह के व्यवसाय और कई देशों के सार्वजनिक रिकॉर्ड की सम्पूर्ण जानकारी रखने वाले लोगों द्वारा की गई है। इस लिए रिपोर्ट में यह लिखा गया कि यह जाँच किया जाना चाहिए कि कैसे मॉरीशस के द्वीप राष्ट्र में स्थित अपारदर्शी निवेश कोष के माध्यम से सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाले अडानी स्टॉक में करोड़ों डॉलर का निवेश किया गया था।
रिपोर्ट में वर्ष 2013 से 2018 तक अदाणी समूह के शेयरों को बढ़ाने के लिए मॉरीशस में जटिल ऑफसोर संचालन का उपयोग करने का आरोप लगाया गया है। निश्चित रूप से देश के शीर्ष आकाओं के करीबी माने जाने वाले एक समूह पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं, उस लिए इस मामले की अविलंब पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। लेकिन इस जांच का आदेश कौन देगा, यह लाख टके का सवाल है। हमारे शेयर बाजारों में काले धन को लाने के लिए मॉरीशस का यह कुख्यात मार्ग एक पुरानी चाल है, जिसे भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, उद्योगपतियों आदि की गलत तरीके से अर्जित संपत्ति को फिर से देश में स्थानांतरित करने के लिए सभी नहीं तो अधिकांश लोगों द्वारा अपनाया जाता है। लेखक ने स्वयं, अन्य महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय पदों पर कर कर चुके व्यक्तियों के साथ वर्ष 2010 में एक जनहित याचिका के माध्यम से इन तथ्यों को सर्वाेच्च न्यायालय के ध्यान में लाया जिसमें यह बताया गया था कि देश के लुटेरों के काले धन को सफेद करने के उद्देश्य से मॉरीशस में सिर्फ एक इमारत में हजारों कंपनियां पंजीकृत की गई हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 4 जुलाई 2011 को एक ऐतिहासिक आदेश पारित किया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में सर्वशक्तिमान विशेष जांच दल का गठन किया था, जो न केवल गुप्त रूप से चल रहे इस पूरे काले धन के कारोबार की जांच करेगा बल्कि यह भी निर्देशित किया था कि जांच दल नई एफआईआर दर्ज कर सकता है और उनकी विवेचना के साथ साथ मामलों के अभियोजक के रूप में भी कार्य कर सकता है ताकि काले धन की समस्या को खत्म किया जा सके।
हालांकि, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । कारण क्या थे इसको बता पाना शायद ही कभी संभव हो पाये । यह एसआई टी आज भी काम कर रही है लेकिन प्रभाव शून्य ढंग से । अब उसी मॉरीशस रूट ने मौजूदा अडानी मामले में अपना विकृत swaroop प्रदर्शित किया है। इस गंदी गाथा का दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा यह है कि जो लोग आज इस मुद्दे को उठा रहे हैं वे सभी तब सत्ता में थे जब इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी, लेकिन उस समय उन्होंने दशकों से चल रहे इस बड़े घोटाले को चुपचाप दफनाने की हर संभव कोशिश की।
किसी को यह समझने के लिए डेटा की खोज करने की जरूरत नहीं है कि मॉरीशस मार्ग का उपयोग करके लुटेरों की काली कमाई को लूटने के लिए क्या चल रहा है, इसके लिए किसी को केवल भारतीय रिज़र्व बैंक के प्रकाशित आंकड़ों को देखना होगा जो चौंकाने वाला है! आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2000 से 2014 के बीच हमारा अरबों-खरबों डॉलर का (लगभग 40 प्रतिशत) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश मॉरीशस से आया, जिसकी आबादी 15 लाख से कम है।
प्रश्न यह है कि हमारे देश में इस तरह के बड़े बड़े घोटाले क्यों होने दिए जाते हैं ?इसका उत्तर बहुत आसान है, जब राजनीतिक दल और राजनेता चुनाव जीतने के लिए अरबों रुपये खर्च करने लगते हैं, तो धन की थैलियों से उनकी निकटता लोकतंत्र में इस सबसे बड़े पाप का स्पष्ट परिणाम बन जाता है। इसलिए पार्टी के खजाने को भरने के लिए एक के बाद घोटाले करना इन नेताओं कीमजबूरी बन जाती हैं। उद्योग और व्यवसाय एक या दूसरे राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं और देश कैसे और किस दिशा में चलेगा उसकी शर्तें तय करते हैं। इसीलिए बोफोर्स हुआ, कमीशन के बिना कोई भी रक्षा खरीद संभव नहीं है, चारा घोटाला, राज्यों में खनन घोटाले जिसमें हर रंग की सरकारें शामिल थीं, उर्वरक घोटाला, यूपी में सीमेंट मिल बिक्री घोटाला, यूपी चीनी मिल बिक्री घोटाला, तमिल नाडु का जनता साड़ी घोटाला और हाल ही का दिल्ली शराब घोटाला, सूची इतनी लंबी है कि यह पाठकों को थका देगी, इसलिए केवल कुछ का नाम लिया गया है।
एक ही कारण है जो इन घोटालों को रेखांकित करता है और जोड़ता है – राजनीति पूरी तरह से घृणित और भ्रष्ट हो गई है जिसका मतलब है कि भ्रष्ट राजनेता केवल लेन-देन करेंगे। जब सत्ता में बैठे लोग लूटने में व्यस्त हों तो जांच का आदेश कौन देगा, कौन किस पर मुकदमा चलाएगा? जनता को हमारे राजनीतिक वर्ग द्वारा दशकों से खुलेआम खेले जा रहे इस गंदे खेल को समझना होगा और उससे दूर रहना होगा। अन्यथा एक ठग की जगह दूसरा ठग ले लेगा और म्यूजिकल चेयर का यह खेल चलता रहेगा और लुटी हुई जनता चुपचाप और असहाय होकर देखती रहेगी। कहां है लोकतंत्र? “हमाम में सभी नंगे हैं।” इन्हें ईमानदारी और नैतिकता का जामा कब पहनाया जाएगा?
लेखक विजय शंकर पांडेय पूर्व आईएएस हैं और भारत सरकार के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए हैं।

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