धर्म के नाम पर राजनीति कभी भी देश के विकास को बढ़ावा नहीं देती

दुनिया के तमाम देशों में वर्षों से धर्म के नाम पर सत्ता में बने रहने का खेल खुल कर खेला जाता रहा है लेकिन यह भी एक सत्य है कि धर्म के नाम पर सत्ता का खेल खेलने वाले देश कभी भी शांति पूर्वक ढंग से जनमानस को अपना सम्पूर्ण विकास करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों दे पाने में पूर्णतः विफल रहे हैं। आधुनिक काल में पंथ को राजनीति से मिलाकर चलने वाले देशों के उदाहरण हम सभी के सामने है। दूसरों के उदहारण से सीख लेने को ही बुद्धिमानी कहा जाता है।

वी एस पाण्डेय

पिछले कुछ समय से देश में राम मंदिर के निर्माण और उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर काफ़ी गहमा गहमी चल रही है। समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसके अलावा कुछ भी दिखाने को तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि शायद अब देश में कुछ और करने को बचा ही नहीं है क्योंकि अब तो राम लला की मूर्ति स्थापित होने जा रही है। देशभर में अक्षत बाटने और रामकथा कहने का जो सिलसिला शुरू किया गया है वह अभी भी जारी है । हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा प्रदेश में स्थित सभी मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् राम जी के मंदिर , हनुमान जी के मंदिर और महर्षि वाल्मीकि जी के मंदिर में राम कथा वाचन और पूजापाठ कराए जाने संबंधी आदेश जारी किया गया है। इस शासनादेश में यह भी कहा गया कि यह आदेश उच्च स्तरों से प्राप्त निर्देशों के क्रम में जारी किए जा रहे हैं। यह आदेश कई दृष्टिओं से दुर्भाग्यपूर्ण है क्यों कि किसी भी शासन द्वारा जारी आदेश शासन के आदेश होते है और उसमें उच्च स्तर से प्राप्त निर्देशों के क्रम में जारी करने का उद्धरण शर्मनाक है। इसके अलावा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में इस प्रकार के निर्देश भेजा जाना कभी भी उचित नहीं कहा जाएगा और यह संविधान की मूल भावना के साथ मेल नहीं खाता । अफ़सोस की बात तो यह है कि इस आदेश को जारी करने वाले अधिकारी काफ़ी लम्बे समय से सरकारी सेवा में रहे हैं और उन्हें पता होगा कि कभी भी इस तरह से आदेश निर्गत नहीं किये जाते। लेकिन यह भी सही है कि असाधारण समय में इसी तरह के असाधारण आदेश जारी होने पर आश्चर्य किया जाना बेमानी होगा।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात् राम लला के मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है और संतोष की बात यह है कि वर्षों से चले आ रहे इस विवाद का पटाक्षेप हुआ । अच्छा होता कि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कार्य भी शालीनता पूर्वक ढंग से बिना शोर शराबें के पूरा किया जाता । लेकिन आस्था और राजनीति के मिश्रण का जी परिदृश्य वर्षों से देश में चल रहा है उसका ही परिणाम आज देश के सामने है कि पंथ निरपेक्ष देश होने के बावजूद पूरी सरकारी मशीनरी और संसाधन इस समय मंदिर के कार्यक्रम में दण्डवत है । ऐसा नहीं कि ऐसा पहलीबार हो रहा है , दुनिया के तमाम देशों में वर्षों से धर्म के नाम पर सत्ता में बने रहने का खेल खुल कर खेला जाता रहा है लेकिन यह भी एक सत्य है कि धर्म के नाम पर सत्ता का खेल खेलने वाले देश कभी भी शांति पूर्वक ढंग से जान मानस को अपना सम्पूर्ण विकास करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों दे पाने में पूर्णतः विफल रहे हैं। आधुनिक काल में पंथ को राजनीति से मिलाकर चलने वाले देशों के उदाहरण हम सभी के सामने है। दूसरों के उदहारण से सीख लेने को ही बुद्धिमानी कहा जाता है।
यह तथ्य भी स्पष्ट है कि समाचार पत्र जो भी खबर लिखते है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जो भी खबर दिखाते है , आम जन वही पढ़ते हैं और वही देखते हैं , यह पाठकों और दर्शकों की मजबूरी है । लेकिन कहा यह जाता है कि आम जन की भावनाओं और इच्छाओं की वह मात्र अभिव्यक्ति कर रहे हैं । सामान्यतः जो छपेगा या दिखेगा लोग तो उसी के बारे में बात करेंगे और चर्चा करेंगे । यह सामान्य सी स्थिति है और इस यथार्थ को समझने की महती आवश्यकता है । यहीं पर मीडिया पर धनवानों के वर्चस्व और उनके नियंत्रण होने का प्रश्न किसी भी लोकतांत्रिक देश के सामने खड़ा होना लाज़मी है । लोकतंत्र को सफल और जीवंत बनाए रखने के लिए मीडिया का स्वतंत्र रूप से काम करना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि मीडिया ही जनता तक ज़रूरी जानकारी पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है और अगर वह सच को झूठ और झूठ को सच करने के रास्ते पर चल पड़े तो उसके घातक परिणाम आने तय हैं ।
यह सच है कि राजनीतिज्ञ और मीडिया के लोग भी इसी समाज से आते हैं इसलिए उनसे बेहतर और ईमानदार आचरण की अपेक्षा करने को बहुत सारे लोग सही नहीं मानते । लेकिन ऐसे लोग इस सामन्य से तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि ज़िम्मेदार संस्थानों में काम करने वालों और विभिन्न महत्वपूर्ण ओहदों को समाहलने वालों से आम लोगों की तरह ही व्यवहार की अपेक्षा करना ना केवल अतार्किक है बल्कि पूर्णतः ग़लत कहा जाएगा ।
प्रसिद्ध अमरीकी विचारक नोम चोम्स्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “मैन्यूफ़ैक्चरिंग कंसेंट “ में लिखा कि “आज कल मीडिया एक प्रचार तंत्र के रूप में कार्य करता है, आवश्यक रूप से प्रकट सेंसरशिप या प्रत्यक्ष नियंत्रण के माध्यम से नहीं, बल्कि समाचार कहानियों के चयन और फ्रेमिंग के माध्यम से। कुछ आख्यानों को बढ़ावा देकर और दूसरों को दबाकर, मीडिया सार्वजनिक धारणा को आकार देता है और वास्तविकता का एक संस्करण तैयार करता है जो कुछ प्रमुख समूहों के हितों के अनुरूप होता है। चॉम्स्की के अनुसार, मीडिया स्वीकार्य राय की सीमाओं के भीतर समाचार प्रस्तुत करके सहमति का निर्माण करता है। बहस की सीमाओं को परिभाषित करके और वैकल्पिक दृष्टिकोणों को छोड़कर, मीडिया वास्तव में स्वीकार्य विचारों की सीमा को सीमित करते हुए विकल्प और विविधता का भ्रम पैदा करता है। यह निर्मित सहमति असहमति की वास्तविक सीमा को छुपाती है और उन नीतियों और कार्यों के लिए सार्वजनिक समर्थन बनाए रखती है जो जनता के हित में नहीं हो सकते हैं।
प्रत्येक देश के नागरिकों को ऐसी स्थितिओं में नितांत सजग और चौकन्ना रह कर यह देखते रहना होगा कि कहीं उसके साथ भी तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा जैसा कि चोम्स्की ने अमेरिका के प्रेस और मीडिया के बारे में लिखा। हमारे देश में भी काफी कुछ वैसी ही परिस्थितिओं उत्पन्न होती दिख रही हैं क्योंकि अब प्रेस और मीडिया , कुछ अपवादों को छोड़ कर , बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के नियंत्रण में आ चुके हैं और जो बचे -खुचे हैं , उनका भी भविष्य कुछ वैसा ही होता प्रतीत हो रहा । इस बात को जितनी जल्दी, जितनी अच्छी तरह से देश के लोग समझ कर सुधारात्मक कदम उठाएंगे , देश के लोक तंत्र के भविष्य के लिए वह उतना ही अच्छा होगा।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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