सरकार अगर गारंटी दे तो बात फिर भी समझ में आती है। मगर किसी व्यक्ति के द्वारा गारंटी दी जाए, जो वह सरकार में पद धारक होने की वजह से दे रहा है और जिसकी पूर्ति लोक धन से ही की जा सकती है, तो वह बिल्कुल बेमानी है। सरकार हमेशा रहती है, पद धारक बदलते रहते हैं। और सरकार से लड़कर अधिकार अथवा गारंटी हासिल करना किसी भी नागरिक के लिए लगभग असंभव कार्य है। अतएव यह स्पष्ट है की गारंटी शब्द का प्रयोग भ्रामक है और विशेषकर यदि उसे किसी व्यक्ति विशेष से जोड़ दिया जाये।
सुनील कुमार
पिछले कुछ समय से देश की राजनीति ‘गारंटी’ के इर्द गिर्द घूम रही है और वर्तमान समय में ‘मोदी की गारंटी’ की धूम है। चुनाव की घोषणा से लगभग 6 माह पूर्व ही भारत सरकार के द्वारा सरकार की उपलब्धियों से लैस लगभग दो हजार से ज्यादा ‘वीडियो वैन’ प्रत्येक ग्राम पंचायत में घूमना प्रारम्भ कर चुकी थीं। इस प्रचार अभियान का मुख्य फोकस माननीय प्रधानमंत्री जी के द्वारा लोगों को पिछले १० वर्षों में उपलब्ध कराई गई सुविधाओं का स्मरण लोगों को कराना था और यथा संभव गांव को पूर्णतया संतृप्त करना था । आजकल प्रत्येक सरकार – चाहे केंद्र अथवा राज्य सरकार हो – विशेष रूप से चुनाव के पूर्व व्यापक प्रचार प्रसार अभियान चलाती हैं और चूँकि तथाकथित चुनाव आचार संहिता लागू नहीं रहती है, सरकार और पार्टी के बीच का भेद भी सभी लोग आसानी से भूल जाते हैं। इस बार तो इसे मोदी की गारंटी के रूप में प्रचारित किया गया जो कदाचित पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के द्वारा नहीं किया गया था।
ऐसा भी नहीं है कि माननीय प्रधानमंत्री जी ऐसा करने वाले पहले राजनेता हैं। कांग्रेस पार्टी का आरोप है कि प्रधानमंत्री जी द्वारा गारंटी शब्द उनसे चुरा लिया गया है। उनका यह कहना है कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम उनके द्वारा लाया गया था जिसमे वैधानिक रूप से किसी भी गरीब परिवार के व्यस्क व्यक्ति को वित्तीय वर्ष में 100 दिनों की रोजगार उपलब्ध कराये जाने की गारंटी दी गयी थी। इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी की सरकार ने 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार भी दिया है। विगत विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक और तेलंगाना में अपनी चुनाव घोषणा पत्र के माध्यम से लोगों को कुछ गारंटी दी थी और पार्टी का यह मानना है कि उन्हें पूरा भी किया जा रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए में जारी की गयी घोषणा पत्र को ‘मोदी की गारंटी’ के रूप में प्रचारित किया है। पार्टी के समर्थकों का मानना है कि यह माननीय प्रधानमंत्री जी की विश्वसनीयता को दर्शाता है। शायद यह पिछले आम चुनाव – 2019 के लोकसभा चुनाव – के दौरान पार्टी द्वारा प्रचारित ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का प्रसंस्कृत स्वरुप है।
इस विश्लेषण को आगे बढ़ाने के पूर्व इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि क्या ‘गारंटी’ शब्द का प्रयोग उपयुक्त है। क्या इस सन्दर्भ में ‘वादा’ या ‘प्रतिज्ञा’ बेहतर शब्द हो सकती थी ? गारंटी शब्द में एक विधिक अभिप्राय छुपा हुआ है। यदि कोई सामान ख़राब निकलता है तो ग्राहक उसे वापस कर सकता है। क्रेता और विक्रेता के मध्य एक बराबरी का सम्बन्ध है। सरकार द्वारा क्रेता व विक्रेता के मध्य वस्तु अथवा सेवा की गुणवत्ता में कमी पाए जाने पर और गारंटी का अनुपालन न होने की दशा में क्रेता के हितों की रक्षा के लिए विशेष उपभोक्ता सुरक्षा कानून भी पारित किये गए हैं और उन अधिकारों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए विशेष उपभोक्ता सुरक्षा अदालतें भी स्थापित की गयी हैं। परन्तु क्या ऐसी कोई सुविधा ‘लाभार्थी’ अथवा वोटर को उपलब्ध है ? क्या असंतुष्ट होने की दशा में लाभार्थी / वोटर गारंटी देने वाले के विरुद्ध कोई कार्रवाई कर सकता है ? बिल्कुल नहीं। यहाँ तो असंतुष्ट लाभार्थी के पास चुनाव के समय अपने मताधिकार का प्रयोग करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। सरकार अगर गारंटी दे तो बात फिर भी समझ में आती है। मगर किसी व्यक्ति के द्वारा गारंटी दी जाए, जो वह सरकार में पद धारक होने की वजह से दे रहा है और जिसकी पूर्ति लोक धन से ही की जा सकती है, तो वह बिल्कुल बेमानी है। सरकार हमेशा रहती है, पद धारक बदलते रहते हैं। और सरकार से लड़कर अधिकार अथवा गारंटी हासिल करना किसी भी नागरिक के लिए लगभग असंभव कार्य है। अतएव यह स्पष्ट है की गारंटी शब्द का प्रयोग भ्रामक है और विशेषकर यदि उसे किसी व्यक्ति विशेष से जोड़ दिया जाये।
ऐसा क्यों है? इसे समझने के लिए आइये हम महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के प्राविधानों का थोड़ा गहरायी से अध्ययन करते हैं। इस अधिनियम की धारा 3(1 ) में यह व्यवस्था के गई है कि यदि किसी गरीब परिवार के व्यस्क व्यक्ति द्वारा काम की माँग की जाती है तो उसे आवेदन की तिथि से १५ दिनों के अंदर वित्तीय वर्ष में 100 कार्यदिवस का कार्य राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जायेगा। धारा 3 (3 ) में श्रमिकों को किये गए कार्य का भुगतान निर्धारित दर पर साप्ताहिक अथवा पाक्षिक तौर पर करने की व्यवस्था की गयी है। धारा 7 में कार्य न दिए जाने की दशा में बेरोजगारी भत्ता दिए जाने की व्यवस्था की गयी है। धारा 22 में योजना के वित्त पोषण की व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। मजदूरी के मद में पूरी धनराशि के भुगतान की जिम्मेदारी भारत सरकार की है। इसी प्रकार सामग्री क्रय / कुशल /अर्द्ध कुशल श्रमिक के पारिश्रमिक भुगतान पर होने वाले व्यय का तीन चौथाई हिस्सा भारत सरकार के द्वारा वहन किया जायेगा और शेष एक चौथाई हिस्सा राज्य सरकार के द्वारा । बेरोजगारी भत्ता देने की पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकार की है।
संसदीय समिति की अद्यतन रिपोर्ट में यह बताया गया है कि विगत 5 वर्षों में (2018 -19 से नवंबर 2023 -24 तक) कुल 7124 श्रमिकों को बेरोजगारी भत्ता अनुमन्य था परन्तु मात्र 258 श्रमिकों (3 प्रतिशत ) को इस भत्ते का भुगतान किया गया। सबसे ज्यादा 2467 श्रमिक कर्नाटक में पात्र पाए गए थे परन्तु किसी को भी यह भत्ता नहीं दिया गया। राजस्थान में कुल 1831 श्रमिकों में मात्र 9 श्रमिक को इस भत्ते का भुगतान किया गया। उत्तर प्रदेश में कुल 598 में से 173 श्रमिकों को बेरोजगारी भत्ते का भुगतान किया गया। बिहार के 773, पश्चिम बंगाल के 389 और झारखण्ड के 139 पात्र श्रमिकों में किसी को इस भत्ते का भुगतान नहीं किया गया। ये आंकड़े गारंटी की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं।
यदि आप मनरेगा अधिनियम का अध्ययन करेंगे तो यह महसूस होगा कि पूरी अधिनियम राज्य व केंद्र सरकार के हितों की रक्षा करने के दृष्टिकोण से बनाई गयी है। यदि केंद्र सरकार राज्यों को माँग के अनुसार धनराशि अवमुक्त करने में विफल रहती है तो वह आसानी से राज्यों के द्वारा नियमों का अनुपालन न किये जाने का हवाला देकर अपने दायित्व से मुक्त हो सकती है। इसी प्रकार राज्य सरकार के अधिकारी भी सक्षम स्तर को रिपोर्ट भेजकर अपने उत्तरदायित्व से बरी हो सकते हैं। अंततः ग्रामीण श्रमिक के पास अपने पारिश्रमिक के भुगतान के लिए प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। कई राज्यों में सबसे बुरी स्थिति ग्राम प्रधान अथवा सरपंच की होती है क्योंकि इस योजना के क्रियान्वयन का दायित्व ग्राम पंचायत की है और ग्राम पंचायत पूर्णतया राज्य व केंद्र सरकार के द्वारा धनराशि अवमुक्त किये जाने पर आश्रित है। सरपंच उसी ग्राम में रहता है जहाँ श्रमिक भी रहते हैं और उठते बैठते उनका आपस में सामना होता रहता है जबकि सभी सरकारी अधिकारी शहरों में रहते हैं। उनका रटा रटाया जवाब होता है कि उन्होंने रिपोर्ट राज्य अथवा केंद्र सरकार को भेज दी है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि जहाँ वैधानिक गारंटी दी भी गयी है, वहां भी उस गारंटी का अनुपालन कराना टेढ़ी खीर है क्योंकि गारंटी देने वाले ग्रामीण श्रमिकों की पहुँच से बहुत दूर बैठे हुए हैं । उन्हें इन गरीब परिवारों से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि ये परिवार उनके लिए मात्र सांख्यिकी हैं। इन गरीब परिवारों की विषम परिस्थिति का उन्हें बहुत ज्यादा भान नहीं है। और उनके सौ अन्य कार्यों में यह भी एक कार्य है और उनके दृष्टिकोण से उनके पास वैध कारण भी हो सकते हैं।
ऐसी स्थिति में क्या विकल्प हैं ? चूँकि सरकार ने यह गारंटी दी है तो हम यह मान सकते हैं कि सरकार गारंटी को प्रभावी बनाना चाहती है। पिछले 19 वर्षों का अनुभव यह बताता है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक आज मनरेगा के तहत श्रमिकों को पारिश्रमिक के भुगतान में काफी विलम्ब हो रहा है ; सामग्री के आपूर्तिकर्ताओं का भुगतान भी लटका रहता है और सबसे ज्यादा स्थिति ख़राब होती है ग्राम प्रधान की। इसे सुधारने के लिए कदाचित पूरी अधिनियम के डिज़ाइन को ही बदलने की जरूरत है। इस पर विस्तार से अलग लेख में मैं अपने विचार रखूंगा।
यहाँ पर मैं यही कहना चाहूंगा कि चुनावी घोषणाओं को वादा ही रहने दें , गारंटी का नाम न दें। ऐसा करने से आम लोगों की अपेक्षाओं को हम बढ़ा तो देते हैं पर वर्तमान व्यवस्था के माध्यम से उन्हें पूरा करने में हमारे असफल रहने की सम्भावना सर्वाधिक है। हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाये।
– (लेखक पूर्व IAS अधिकारी हैं )