लोक नीति निर्धारण में लोक प्रतिभागिता

देश में अभी तक बहुत ऐसे मुद्दे नहीं हुए हैं जिस पर जनता में गंभीरता से व्यापक चर्चा हुई है। हाल के दिनों में भारत सरकार द्वारा लाये गए तीन कृषि बिल को वापस लेने और मराठा आरक्षण पर महाराष्ट्र में हुई आंदोलन तत्काल ध्यान में आते हैं जहाँ प्रभावित वर्ग ने व्यापक जनमत तैयार करने का कार्य किया और इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। अन्यथा आम तौर पर भारत में लोक नीति को तैयार करने में आम जनों की भूमिका न के बराबर रहती है। हाल के दिनों में तो संसद व विधानसभा में भी बगैर बहस के शोरगुल व विपक्ष के सदन से बहिर्गमन के दौरान महत्त्वपूर्ण बिलों को पारित कराने की परंपरा सी बनती जा रही है।

सुनील कुमार

सभी भारतवासियों को इस बात पर गर्व है कि देश दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र है और देश की आजादी के बाद, सभी शंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए, वर्ष 1952 में प्रथम लोकसभा चुनाव सफलतापूर्वक आयोजित किया गया था। वर्तमान में 18 वीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव प्रक्रिया जारी है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही देश को लोकतांत्रिक बनाने का संकल्प लिया गया है। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव नियमित अंतराल पर आयोजित होते रहे हैं (सिवाय 18 माह की अवधि के जब जून 1975 में देश में आपातकाल घोषित की गयी थी)। वर्ष 1993 में 73 वीं व 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम के लागू हो जाने के बाद देश में लगभग 2.78 लाख ग्रामीण स्थानीय निकाय तथा लगभग 8000 शहरी स्थानीय निकाय स्थापित हो चुके हैं। इनका चुनाव भी नियमित अंतराल पर आयोजित हो रहे हैं। देश में सभी तीनों स्तर पर चुने हुए जनप्रतिनिधियों की संख्या लगभग 31.25 लाख होगी जिनमें महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या लगभग 46 प्रतिशत है। यह मुख्यतः स्थानीय निकायों में उनकी बड़ी संख्या के फलस्वरूप है।

इसके बावजूद चिंतकों का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव के अलावा अन्य अवसरों पर लोक प्रतिभागिता संभवतः अन्य पुरानी लोकतान्त्रिक देशों की तुलना में काफी कम है। हाल ही में एक बहुत ही प्रभावी पुस्तक में इसे ‘Missing in Action’ बताया गया है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना उचित होगा कि देश में अभी तक बहुत ऐसे मुद्दे नहीं हुए हैं जिस पर जनता में गंभीरता से व्यापक चर्चा हुई है। हाल के दिनों में भारत सरकार द्वारा लाये गए तीन कृषि बिल को वापस लेने और मराठा आरक्षण पर महाराष्ट्र में हुई आंदोलन तत्काल ध्यान में आते हैं जहाँ प्रभावित वर्ग ने व्यापक जनमत तैयार करने का कार्य किया और इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। अन्यथा आम तौर पर भारत में लोक नीति को तैयार करने में आम जनों की भूमिका न के बराबर रहती है। हाल के दिनों में तो संसद व विधानसभा में भी बगैर बहस के शोरगुल व विपक्ष के सदन से बहिर्गमन के दौरान महत्त्वपूर्ण बिलों को पारित कराने की परंपरा सी बनती जा रही है।

इसके अतिरिक्त कुछ मुद्दों पर जहाँ व्यापक चर्चा के बाद संसद से पारित कराये जाने की आवश्यकता थी, वहां सत्ता पक्ष द्वारा उन्हें ‘मनी बिल’ में सम्मिलित कर संसद से पारित करा लिया गया। उदाहरण के लिए अभी हाल में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘इलेक्टोरल बांड’ को असंवैधानिक घोषित किये जाने के मामले को लें। इसे बजट के साथ बगैर विस्तृत विचार विमर्श के पारित करा लिया गया था। संभव है यदि इस पर संसदीय समिति में व्यापक विचार विमर्श के बाद पारित कराया गया होता तो शायद इसकी कमियों को दूर करने का अवसर सरकार के पास भी होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ।

यहाँ पर मैं आपका ध्यान अस्सी के दशक में संसद द्वारा पारित किये गए ‘anti defection’ बिल के एक परिणाम की ओर भी आकृष्ट करना चाहूंगा। विभिन्न दलों के द्वारा व्हिप जारी कर दिए जाने के कारण कई बार सांसद अपनी बात बगैर किसी भय के नहीं रख पाते हैं और उन्हें पार्टी लाइन का अनुपालन करना पड़ता है। उस समय प्रख्यात सांसद व समाजवादी चिंतक श्री मधु लिमये ने बिल का विरोध करते हुए उसे अलोकतांत्रिक तथा सांसदों के सदन में अपनी बात निर्भीकता से रखने की राह में बाधा बनने की जो बात कही थी वह आज सही सिद्ध हो रही है। कहीं न कहीं इससे पार्टी के अंदर व सदन में सार्थक बहस व आलोचना की परंपरा प्रभावित हुई है। इसका असर संसद व विधान मंडलों द्वारा पारित किये जाने वाले कानूनों की गुणवत्ता पर भी पड़ा है।

लोक नीति के गठन में अगर संसद, विधायिका अथवा ग्राम सभा / सामान्य सभा में बहस के पूर्व आम जनता को भी अर्थपूर्ण विचार करने का मौका मिले तो वास्तव में देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था और मजबूत होगी। अभी तो लगता है जैसे हम लोगों ने सोचने का कार्य ही ‘आउटसोर्स’ कर दिया है। इस दिशा में क्या किया जा सकता है? क्या स्थानीय सरकार के स्तर पर शुरुआत करना ज्यादा प्रभावकारी होगा ?

यहाँ इस पर विचार करना जरूरी है कि स्थानीय सरकार की आवश्यकता क्यों महसूस की गयी और 1993 में क्यों ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थानीय निकायों की स्थापना की गयी । इसके पीछे सबसे बड़ी सोच यह रही कि स्थानीय सरकार लोगों के सबसे समीप प्रशासनिक इकाई है जो सबसे त्वरित प्रतिक्रिया और समस्याओं का प्रभावी हल ढूंढ सकने में सक्षम है। इसकी व्याख्या चिंतक ‘subsidiarity principle’ के रूप में करते है और यूरोपियन संघ के संविधान में इसकी व्याख्या की गयी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्पष्ट होगा कि 11 वीं व 12 वीं अनुसूची में शामिल क्रमशः 29 एवं 18 विषय कदाचित इसी अभिप्राय से पंचायतों एवं नगरपालिकाओं को स्थानांतरित करने के उद्देश्य से शामिल किये गए हैं। इसी प्रकार संभवतः स्थानीय सरकार की विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में भूमिका को बढ़ाने के उद्देश्य से भी ऐसा किया गया है। कारण जो भी हो, आज यह स्पष्ट है कि भारत में स्थानीय सरकार – ग्रामीण व शहरी – की देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत करने तथा बेहतर, प्रभावी सेवा नागरिकों को उपलब्ध कराने में भूमिका पर सार्थक बहस शुरू करने का समय आ गया है। और संभवतः इसी स्तर पर लोक नीति के निर्धारण में लोक प्रतिभागिता को सुनिश्चित करने के प्रयास ज्यादा सार्थक होंगे। ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा की बैठक के पूर्व वार्ड सभा / महिला सभा / बाल सभा की बैठकों को आयोजित करने का जो सुझाव दिया गया है अगर उस पर अमल होने लगे तो धीरे धीरे स्थिति में कुछ सुधार होना शुरू हो जाये। राजस्थान में बाल सभा की बैठक अनिवार्य रूप से आयोजित करने की जो वैधानिक व्यवस्था की गयी है, वह प्रशंसनीय है। अन्य राज्य भी इसी तरह की व्यवस्था को लागू करने के बारे सोच सकते हैं। शहरी क्षेत्रों में वार्ड समिति और ‘town hall’ मीटिंग आयोजित कर लोक प्रतिभागिता को बढ़ावा दिया जा सकता है।

इन बैठकों में विचार विमर्श की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए देश में पब्लिक लाइब्रेरी मुहिम को धारदार बनाने की भी आवश्यकता है। अभी देश में लगभग 55000 सार्वजनिक पुस्तकालय हैं। सबसे ज्यादा लगभग 12200 महाराष्ट्र में, 8500 केरल में , 6800 कर्नाटक में और 5200 पश्चिम बंगाल में हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में सार्वजानिक पुस्तकालयों की संख्या मात्र 573 व 192 हैं। यह स्थिति दयनीय है। जब तक सार्वजनिक पुस्तकालयों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं होगी और उन्हें डिजिटल लाइब्रेरी के साथ पर्याप्त किताबों से लैस नहीं किया जाता है तब तक युवा पीढ़ी में पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी और गंभीर विचार विमर्श संभव नहीं हो पायेगा। अभी तो ‘WhatsApp University’ द्वारा जो प्रसारित हो जाती है उसे ही अधिकांश लोग सत्य मान लेते हैं। यह आवश्यक है कि सार्वजनिक पुस्तकालय को स्थापित तथा संचालित करने की जिम्मेदारी स्थानीय सरकार की हो – ग्राम पंचायतों तथा नगर पंचायतों / नगरपालिकाओं की। राज्य सरकार के द्वारा इस सम्बन्ध में आवश्यक धनराशि भी स्थानीय सरकारों को उपलब्ध कराये जाने की जरूरत होगी। इस मुहिम की सफलता पंचायत अथवा शहरी निकाय के निवासियों के आर्थिक सहयोग पर भी निर्भर करेगी। कई लोग पुस्तक, कंप्यूटर आदि भी दान में दे सकते हैं। इस दिशा में हाल के दिनों में कई स्थानों से जन पहल लेने की खबरें भी आई हैं जो अत्यंत प्रशंसनीय है।

इसी तरह कुछ ग्राम व नगर पंचायत / नगर पालिका एक ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट फण्ड’ स्थापित करने पर विचार कर सकते हैं। इस कोष की स्थापना स्थानीय सरकार के द्वारा स्वयं की आय से एक अंश जमा कर किया जा सकता है और उसके बाद स्थानीय नागरिकों के अलावा विदेशों / बड़े शहरों में रह रहे ग्राम / नगर के मूल निवासियों से भी पंचायत प्रतिनिधि संपर्क कर योगदान करने का अनुरोध कर सकते हैं। इस कोष की स्थापना ग्राम सभा के अनुमोदन व राज्य सरकार की अनुमति से की जानी चाहिए व इसका संचालन पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए। इस कोष की राशि का उपयोग ग्राम / नगर पंचायत में प्रत्येक हफ्ते अथवा पक्ष में किसी विशेषज्ञ को आमंत्रित कर उसके लेक्चर सत्र को आयोजित करने, ग्राम / नगर पंचायत की दीर्घ व अल्प अवधि विकास योजना के निर्माण में सहयोग करने की एवज में भुगतान करने, सार्वजनिक पुस्तकालय को सुदृढ़ करने अथवा विशेष रिपोर्ट तैयार करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए मौसम में हो रहे परिवर्तन के असर से निपटने में स्थानीय सरकार क्या कर सकती है, इसके बारे में विशेषज्ञ ही बता सकते हैं। इससे पंचायतों में सरकारी विभागों के अधिकारियों से हट कर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित करने व जोड़ने में मदद मिलेगी। उनकी स्वयं की सतत विकास के सम्बन्ध में अच्छी सोच व ज़िम्मेदारी विकसित होगी। ग्रामीण जनता को जनहित में स्वयं पहल करने, समस्याओं का हल ढूंढने में इस प्रकार की कोष का कैसे उपयोग किया जा सकता है इसकी भी ट्रेनिंग मिलेगी। ग्राम के युवाओं में भी एक पॉजिटिव सोच विकसित होगी जब उन्हें विषय विशेषज्ञों के साथ सुनने, काम करने का अवसर मिलेगा। इसी तरह गांव के जन प्रतिनिधि और युवाओं को भी देश प्रदेश के दुसरे ग्राम पंचायतों में स्वयं जा कर और उनके कार्य को देख कर सीखने समझने का मौका मिलेगा। इन एक्सपोज़र विजिट्स पर होने वाले खर्च का वहन इस R & D कोष से किया जा सकेगा। और सबसे बड़ी बात यह होगी कि स्थानीय स्तर पर एक नयी नेतृत्व क्षमता विकसित होगी जो भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगी।

73 वें संविधान संशोधन अधिनियम को लागू हुए 30 वर्ष से ज्यादा की अवधि गुजर चुकी है। इस दौरान एक लम्बा सफर तय हुआ है। देश में लगभग 2.77 लाख ग्रामीण तथा शहरी स्थानीय निकाय हैं। इनके चुने हुए जनप्रतिनिधियों की संख्या ही 31 लाख से ज्यादा है जो विश्व में सर्वाधिक है। त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को अंतरित होने वाली धनराशि में काफी इज़ाफ़ा हुआ है। कोविड महामारी के दौरान पंचायतों ने अपनी उपयोगिता लगभग सभी राज्यों में साबित की थी। ओडिशा में तो सरपंचों को कलेक्टर के कुछ अधिकार भी हस्तांतरित कर दिए गए थे। परन्तु इस सब के बावजूद आज भी स्थानीय सरकार को प्रभावी बनाने की दिशा में गंभीर चुनौती मौजूद हैं और जनप्रतिनिधियों तथा स्थानीय सरकार के कर्मियों को सक्षम और दक्ष बनाने की दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। यह एक अलग लेख का विषय होगा।

अतएव यह समय है एक नयी सोच विकसित करने का और पहल लेने का। यदि स्थानीय सरकार के जनप्रतिनिधि व अधिकारी इस दिशा में पहल करते हैं तो कोई कारण नहीं है कि उन्हें समाज के अन्य लोगों का समर्थन न मिले।

(लेखक पूर्व IAS अधिकारी हैं )

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