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(Update 12 minutes ago)

लोग पीड़ित हैं लेकिन सत्तारूढ़, विपक्षी दल चुनावी उपलब्धियों पर खुशी जता रहे हैं

हमारे देश के हर राज्य, हर हिस्से में लोग, चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी हो, अभी भी भ्रष्ट नौकरशाही और पुलिस के हाथों पीड़ित हैं। कोई भी राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता कि उसने इस गंभीर समस्या को कभी भी ईमानदारी से संबोधित किया हो । कारण स्पष्ट है – जब राजनेता और उनकी पार्टियाँ स्वयं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हों, तो उनसे ईमानदार शासन की उम्मीद करना व्यर्थ है।
वी.एस.पांडेय

भारतीय संसदीय चुनाव हमारे संपन्न लोकतंत्र का एक सशक्त उदाहरण है। हर चुनावी प्रक्रिया में कुछ विजेता और बाकी हारने वाले सामने आते हैं, लेकिन इस बार स्थिति काफी उलझी हुई नजर आ रही है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो जो लोग अगले पांच साल तक सत्ता से बाहर रहेंगे, वे जश्न मना रहे हैं, जबकि देश पर राज करने जा रहे गठबंधन को हारे हुए के तौर पर पेश किया जा रहा है! बेशक, सत्तारूढ़ भाजपा की सीटों की संख्या में काफी गिरावट आई है, सटीक तौर पर कहें तो 60 सीटें, लेकिन वे विपक्षी गठबंधन की संयुक्त ताकत से आगे हैं। भाजपा की सीटों की संख्या में गिरावट के कई कारण हैं, जैसा कि हर चुनाव में होता है- लेकिन सत्ता हासिल करने में विफल रहने के बाद भी विपक्षी खेमे में जश्न मनाया जाना एक तरह से काफी मजेदार है। इसका एकमात्र कारण यह है कि अब हमारे पास एक प्रकार से कमजोर मोदी हैं। विपक्षी दलों के लिए यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है, ऐसा प्रतीत हो रहा है , जबकि यह सभी अगले पांच सालों तक सत्ता सुख से वंचित ही रहेंगे , यह भी साफ़ है ।

किसी भी संवैधानिक और नैतिक शासन की महत्वपूर्ण आवश्यकता और कर्तव्य होता है – वंचितों के जीवन को बदलना , लेकिन यह कभी भी सत्ता की प्रमुखता नहीं बन पाती है और आम जनता तमाम तरह की विपन्नता में डूबी रहती जबकि उनके द्वारा चुने गए अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि तेजी से खुद को समृद्ध बनाने के लिए फास्ट ट्रैक अपनाते हैं। नतीजतन, एक सौ चालीस करोड़ से अधिक की आबादी वाला भारत अभी भी एक विकासशील देश बना हुआ है, जहां सरकारें आज भी लगभग अस्सी करोड़ लोगों को उनके भरण-पोषण को सुनिश्चित करने के लिए मुफ्त राशन उपलब्ध कराती हैं। क्या यह उन सभी राजनीतिक दलों की सामूहिक विफलता नहीं है, जिन्होंने अतीत और वर्तमान में राज्यों और केंद्र पर शासन किया है?
हमारे देश के हर राज्य, हर हिस्से में लोग, चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी हो, अभी भी भ्रष्ट नौकरशाही और पुलिस के हाथों पीड़ित हैं। कोई भी राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता कि उसने इस गंभीर समस्या को कभी भी ईमानदारी से संबोधित किया हो । कारण स्पष्ट है – जब राजनेता और उनकी पार्टियाँ स्वयं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हों, तो उनसे ईमानदार शासन की उम्मीद करना व्यर्थ है। उनका भ्रष्टाचार केवल हज़ारों करोड़ की अवैध धनराशि के संग्रह तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस गंभीर भ्रस्टाचार में लगातार झूठ बोलना और लोगों को जाति और सांप्रदायिक आधार पर बांटना भी शामिल है, जो उनकी कुछ घटिआ हरकतों का नाम है।

हमारे राजनीतिक परिदृश्य का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर, जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है, बाकी लोग स्वार्थी प्राणियों का एक समूह हैं जो ईमानदारी और नैतिक मूल्यों से रहित हैं, झूठ बोलने और लोगों को बेवकूफ बनाने में व्यस्त हैं – और दिन रात सिर्फ अपने लालच और सत्ता की लालसा को पूरा करने के लिए काम करते रहते हैं और इसी को उन्होंने “जन सेवा” का नाम दे रखा है । इन राजनीतिज्ञों को सार्वजनिक हित शायद ही कभी उनके दायित्वों को निर्देशित करने का कारण होता है, बल्कि उनके सारे कार्य मुख्य रूप से उनके संकीर्ण राजनीतिक हितों और स्वार्थ से प्रेरित होते है।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सबसे बड़ा घातक दोष यह है कि इस में हर किसी ने झूठ बोलने की बेलगाम स्वतंत्रता “स्वयं ही अर्जित” की है और किसी को भी झूठ और धोखे के लिए कभी भी किसी दुष्परिणाम का सामना नहीं करना पड़ता है। अधिकांश भ्रष्ट राजनेता खुद को “सबसे ईमानदार” घोषित करके बच निकलते हैं और गंभीर भ्रष्टाचार के मामलों में जेल में बंद लोग राजनीतिक प्रतिशोध का रोना रोते हैं और बेखौफ छूट जाते हैं। ऐसे भ्रष्ट लोग जो झूट प्रचारित करते हैं वही झूठ मुख्यधारा की खबर बन जाते हैं, जिसका श्रेय भ्रष्ट मीडिया और पक्षपातपूर्ण समाचार वालों को जाता है। राजनीतिक वर्ग को यह स्वतंत्रता सदैव मिली रहती है कि वे किसी भी संस्था या व्यक्ति को बदनाम करने के लिए कोई भी झूठ ,अप्रिय टिप्पणियां, ट्वीट करते रहें – जिसका शायद ही कोई भी दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ता है। उनके झूठ की कोई सीमा नहीं है- जब वे चुनाव हार जाते हैं तो वे चीख-चीख कर कहते हैं कि ईवीएम हैक हो गई है, वीवीपैट में खराबी है, वगैरह-वगैरह। लेकिन जब वे जीत जाते हैं, तो चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष बता देने मैं कोई देरी नहीं करते हैं।

कुछ ही समय पहले की बात है, ईमानदारी का चोंगा पहने एक नया नेता उभरा-स्वघोषित सबसे साफ-सुथरा-सबसे ईमानदार राजनेता जिसने लगभग हर दूसरे राजनेता को भ्रष्ट करार दिया और मांग की कि देश को लूटने के लिए सभी नेताओं को सलाखों के पीछे डाला जाए। वही राजनेता वर्तमान में गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में है और बेशर्मी से अपना पद छोड़ने से इनकार कर रहा है और उन्हीं “राजनेताओं के भ्रष्ट समूह” का हिस्सा है जिनको वह चिल्ला चिल्ला कर बेईमान बताता था और जेल भेजने कि मांग करते हुए प्रेस कांफ्रेंस किया करता था। उससे भी बड़ी बात तो यह है कि जिस ने सभी नेताओं को भ्रष्ट बताया उसी के साथ गले मिलने में किसी के सामने कोई दुविधा नहीं कड़ी हुई।
बात एक ही थी , किसी भी तरह सत्ता मिले , इसलिए कोई सवाल नहीं पूछा गया, उसके सभी झूठों को चुनौती नहीं दी गई और उनका पर्दाफाश नहीं किया गया।
जनता से झूठ बोलने का एक लम्बा इतिहास हमारे देश के सभी पार्टिओं के नेताओं का रहा है और उससे कोई भी अछूता नहीं रहा है। केंद्र की मौजूदा सरकार ने पहले लोगों से झूठ बोला था कि भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों, नौकरशाहों आदि द्वारा टैक्स हेवन में जमा किए गए अरबों रुपये उनसे वापस लिए जाएंगे और हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा किए जाएंगे। दस साल बाद भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ- इस वादे को “जुमला” कहा गया और भुला दिया गया। भारतीय अभी भी उस वादे के पैसे को अपने अपने खातों में जमा होने का इंतजार कर रहे हैं। बेरोजगारों के लिए करोड़ों नौकरियों का वादा आज भी अधूरा है । सत्तर के दशक में, केंद्र की तत्कालीन सरकार ने हमारे देश से गरीबी हटाने का वादा किया और “गरीबी हटाओ” का नारा दिया। यह वादा आज भी अधूरा है, जबकि संबंधित पार्टी ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक देश पर शासन किया है। देश भर के राज्यों में सत्तारूढ़ दल झूठ बोलते रहते हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते रहते हैं। उनके झूठ पर कोई कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि हमारे देश में झूठ बोलना जैसे कोई अपराध ही न हो और हर किसी को, खासकर सत्ता में बैठे लोगों को झूठ बोलने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त हो । जब झूठ पर कोई कार्रवाई नहीं होती और जातिवाद, सांप्रदायिकता और कालेधन का दुरुपयोग करके जब वोट हासिल करके सत्ता पर कब्ज़ा किया जा सकना आसान हो तो कोई सार्वजनिक सेवा क्यों करेगा, जनता के बीच क्यों जायेगा ?

विश्व प्रसिद्द वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, “जो कोई भी छोटी-छोटी बातों में सच्चाई को गंभीरता से नहीं लेता, उस पर बड़े मामलों में भी भरोसा नहीं किया जा सकता।” जब हमारे राजनेता आदतन झूठ बोलने वाले बन गए हैं, तो क्या हम उन पर भरोसा कर सकते हैं कि वे लोगों को न्याय दिलाएंगे और सही मायने में जनता की सेवा करेंगे? चुनाव नियमित रूप से होंगे, नै सरकारें भी आती रहेंगी लेकिन दुर्भाग्य से केवल नाम बदलेंगे, शासन करने वालों के चरित्र नहीं। नैतिकता से विमुख होकर आज के राजनीतिक नेतृत्व ने चुनाव प्रबंधन और राजनीति चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए जिन भयावह तकनीकों में महारत हासिल कर ली है उसके चलते जनहित कि अनदेखी , क़ानून का राज और ईमानदारी कि अनदेखी तो होनी ही थी। लोगों के सामने असली चुनौती देश की आज की राजनीतिक संस्कृति की इस दुखद वास्तविकता से अवगत होना है और राजनीति में नैतिकता को वापस लेन के लिए सामूहिक रूप से कार्य करना होगा ताकि सच्चे लोकतंत्र की जड़ें जम सकें और अंततः असहाय लोगों को अपना भाग्य बदलने के लिए सशक्त बनाया जा सके।

(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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