अर्बन मिर्रर समवाददाता
लखनऊ, । उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबन्धन के लिए शिवपाल सिंह यादव चुनौती बन कर खड़े है। जिस तरह से श्री यादव ने समाजवादी सेक्युलर मोर्चा का गठन करके अखिलेश यादव पर आक्रामक हो रहे है। उससे समाजवादी पार्टी में धीरे-धीरे नया समीकरण बनता जा रहा है। श्रीकृष्ण वाहनी के सम्मेलन मे जिस तरह से बिना नाम लिए अखिलेश यादव को रावण, कंश और औरंगजेब के उपाधि से नवाजा है। उससे लग रहा है कि शिवपाल सिंह यादव भतीजे से किस तरह से आह्त एवं दुःखी है कि उन्होने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। शिवपाल से स्षप्ट कर दिया है कि दो साल से वह सपा में इतने उपेक्षित और अपमानित हो चुके है कि मोर्च के रूप में बढ़ाया गया कदम अब वापस नहीं लेेगें। उन्होंने ने कहा दो साल इन्तजार किया अब किसी भी सूरत में पीछे नही हटूगां। अखिलेश यादव पर तंज कसते हुए कहा एक घण्टा साईकिल चलाकर बताते है कि बहुत बड़ा काम कर दिया जबकि मैं नेता जी के चुनाव प्रचार में 90-90 किलोमीटर साईकिल चलाया हूं।
शिवपाल के आक्रमक रुप से सपा, बसपा गठबन्धन के लिए जमीनी स्तर पर एक बहुत बड़ी गंभीर चुनौती तैयार हो गयी है। इसमें कोई संदेह नही है कि सपा पार्टी को खड़ा करने में मुलायम सिंह यादव और शिवपाल का सबसे बड़ा योगदान है। 1993 में सपा के गठन से लेकर 2011 तक शिवपाल सिंह सीधे संगठन का कार्य देखते थे। 2011 में अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने के बाद भी संगठन मजबूत करने का कार्य शिवपाल सिंह यादव ही कर रहे थे। 2012 में सत्ता में आने के बाद 2017 तक सरकार में रहते हुए अखिलेश ने संगठन पर बहुत ज्यादा ध्यान नही दिया। उपेक्षित कार्यकर्ता इस दौरान भी शिवपाल से ही मद्द लेते रहे। चुनाव पूर्व सपा में हुए वर्चस्व की लड़ायी में सत्ता में रहते हुए अखिलेश, मुलायम और शिवपाल पर भारी पड़े। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हो गये। अखिलेश के अध्यक्ष बनने के बाद मुलायम और शिवपाल अपमानित होकर अलग-थलग पड़ गये। अब दो वर्षो के इन्तजार के बाद नई पारी शुरू की है। यह कड़ुआ सच है कि जब सपा, बसपा का गठबन्धन होगा तो निश्चित रुप से दोनों दल 80 सीटों पर चुनाव नही लड़ेगे। समझौते में सीटे बटेगी संख्या कम ज्यादा हो सकती है। ऐसी स्थिति में 80 सीटे होगी जिन पर कुछ सीटों पर सपा और कुछ सीटों पर बसपा चुनाव नही लड़ रही होगी। ऐसे में सपा और बसपा के जिन नेताओं का गठबन्धन में चुनाव लड़ने का अवसर नही मिल रहा है वह निश्चित रूप से चुनाव लड़ने के लिए प्रयास करेंगे। ऐेसे नेताओं का पहला प्रयास भाजपा होगी लेकिन भाजपा में सम्भावनायें बहुत कम होगी। ऐसी स्थिति में शिवपाल का मोर्चा चुनाव लड़ने का एक मजबूत प्लेट फार्म होगा। सपा बसपा के उपेक्षित बड़े नेता जब शिवपाल के मोर्चे बैनर पर चुनाव लड़ेगें तो गठबन्धन ही कमजोर होगा और नुकसान होगा। अखिलेश यादव को जमीनी हकीकत और राजनीतिक माहौल को समझना चाहिए। मायावती के साथ बुआ, भतीजे रिश्ता बनाकर गठबन्धन करके चुनाव लड़ने से जिलों व गांव तक फैले सपा कार्यकर्ता बसपा के प्रत्याशी को क्यों जितायेगें? प्रदेश में 1995 के बाद सपा कार्यकर्ता सीधी लड़ाई बसपा के कार्यकर्ताओं से करते रहे है। इस दौरान मायावती 1995,1997,2002 भाजपा के समर्थन थे और 2007 से 2012 तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलायी। इस बीच पंचायतों के पांच चुनाव हुए और इन पांच चुनाव में सपा, बसपा के कार्यकर्ताओं के बीच प्रधानी, प्रमुखी और जिला पंचायत अध्यक्ष जैसे पदों को लेकर संघर्ष होता रहा। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में सीधी लड़ाई सपा और बसपा के बीच होती रही। 2014 लोकसभा चुनाव और 2017 विधानसभा चुनाव में भी सपा और बसपा दूसरे व तीसरे स्थानों पर लोकसभा में 31 सीटों पर सपा 34 सीटों बसपा दूसरे स्थान पर है। समझौते में इन 65 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे सपा और बसपा के नेता जिन्हें गठबन्धन में अवसर नही मिलेगा तो वह निश्चित रुप से चुनाव लड़ेगें और यही नेता मोर्चे के प्रत्याशी होगें। 1995 से लेकर 2017 तक हुए सभी चुनाव में सपा,बसपा के बीच लड़ाई होती रही है। 2003 में बसपा के विधायकों को तोड़कर मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनायी थी। बसपा सरकार में सपा के नेताओं के खिलाफ पूरे प्रदेश में बड़े रूप में मुकदमें दर्ज हुए और उनपर कार्यवाही की गयी। यही स्थिति सपा सरकार में रही बसपा के बहुत नेता और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमें कायम हुए और उनपर कड़ी कार्रवाई हुई। अखिलेश को यह नही भूलना चाहिए कि 1993 में जब सपा, बसपा का गठबन्धन हुआ था और दोनों ने मिलकर सरकार बनाई थी ऐसी स्थिति आज नही है। क्योंकि निचले स्तर पर सपा,बसपा कार्यकत्र्ताओं में बहुत कटुता है। इस सब का लाभ निश्चित रूप से शिवपाल यादव को मिलेगा। चुनाव मोर्चा जीते या न जीते लेकिन सपा, बसपा को हराने में बहुत कारगर होगा। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। कांग्रेस अकेले लड़ने पर भी शिवपाल के मैदान में आने से फायदे में रहेगीं। जिन-जिन लोकसभा सीटों में कांग्रेस के प्रत्याशी मजबूत होगें, मुस्लिम और सवर्ण मतदाताओं की पहली पसन्द कांग्रेस होगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि शिवपाल के मोर्चे से उत्तर प्रदेश में एक नया राजनीतिक समीकरण उभर कर सामने आ रहा है। मोर्चा किसके साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा यह तो आने वाले समय पर पता चलेगा लेकिन वर्तमान में जो स्थिति दिखाई दे रही है उसमें निश्चित रूप से शिवपाल सिंह यादव का मोर्चा अखिलेश -मायावती के गठबन्धन को कमजोर करने मे अह्म भूमिका निभायेगा।