राजनीतिक विकल्पों का विरोधाभास

डॉ स्मिता पांडे

बहुतायत के इस युग में हमारी पसंद खराब हो गई हैं। हमारे पास अनंत विकल्प हैं, एक कार्बनिक स्वस्थ अनाज, एक प्राकृतिक क्रीम, एक रासायनिक मुक्त शैम्पू, सबसे मजबूत सीमेंट, सबसे टिकाऊ पेंट, आदि के ब्रांड मूल्य को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनो की भरमार है। हालांकि, सबसे महत्वपूर्ण घटक राजनीति जो हमारे पूरे जनसंख्या के जीवन को निर्धारित करता है में किसी भी सार्वजनिक प्रवचन में अथवा प्रसार प्रचार में नैतिक और कुशल शासन की बात पूरी तरह से अनुपस्थित है। किसी भी पार्टी के पास नैतिक ब्रांड मूल्य नहीं है। शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि सच ने कभी भी हमारे देश में शासन को परिभाषित नहीं किया है क्योंकि शायद इससे कोई भौतिक लाभ नेताओं को नहीं है, ईमानदार शासन को बढ़ावा देने से राजनीति लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ है। चुनावी समय में आज के हालात में हमें अपने दृष्टिकोण में उदारता बढ़ानी पड़ती है और हमें बुरे विकल्पों के विरोधाभास से सामना करना पड़ता है और हम देश के वोटेर चुनाव मैं खड़े उम्मीदवारों मैन से सबसे अच्छा चुनने की जगह सबसे कम बुरे के लिए वोट देते हैं और सालों से इसी तरह वोट देते हैं। प्रसिद्ध अमरीकी दार्शनिक नोआम चॉम्स्की कहते हैं, “प्रचार प्रणाली द्वारा लोगों को यह महसूस करने के लिए लगातार दबाव डाला जाता है कि वे असहाय हैं, कि उनके पास केवल एक ही भूमिका है कि नेता लोग जो निर्णय लें उसको जनता स्वीकार करे और वह चीज़ों का उपभोग करने के लिए है।” और लगातार हम लोग, भ्रष्ट शासन की त्रासदी अनिवार्य रूप से ढोते चले आ रहे हैं।

हमेशा की तरह नाटक शुरू होता है – पहला वादा अछे दिन से फिर समग्र विकास कानून का राज , सामाजिक न्याय, सभी के लिए स्वास्थ्य, और इन नारों से लगने लगता है कि भारत इस समय आगे बढ़ने जा रहा है। 100 दिनों में जादुई उपलब्धियों प्राप्त करने के बाद प्रचार निरंतर जारी रहता है। जनता सालों से बिजली पानी , स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों के साथ रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी सुविधाओं का इंतजार कर रही है। आज़ादी के सत्तर सालों के बाद भी, सभ्य जीवन की व्यवस्था अनुपस्थित रहती है जबकि मीडिया लगातार उपलब्धियों को चित्रित करता रहता है। विकास के सूचकांक में कमी आई है लेकिन सत्ता में बैठे नेताओं की समृद्धि बढ़ती रही और कट्टरपंथी विचारधारा का विकास होता रहा है। उनके साथ-साथ ह उनके जो दलाल हैं, जो करदाताओं के पैसे को लूटते हैं और हजारों करोड़ों को लूटने के बाद, उन शक्तियों के साथ मिलकर विदेशी देशों में भाग जा ते रहे हैं। बड़े औद्योगिक घर शक्तिशाली लोग देश के क़ानून से छेड़छाड़ करके बड़े हो जाते हैं और सत्ता के करीब लोग अपनी सत्ता से निकटता का नंगा प्रदर्शन करते हुए प्रतिस्पर्धा को उखाड़ फेंकने के लिए अपनी मांसपेशियों को प्रदर्शित करते हैं। अम्बेडकर ने सही ढंग से जोर देकर कहा था कि “दुनिया में विद्रोहियों के लिए बहुत अधिक काम बकाया है जो शकिशाली लोगों के सामने बहस करने की हिम्मत करेंगे और जोर देकर कहते हैं कि वह अजेय नहीं है।” इन सभी माई बाप शासनों की शैलियों, जिसमें हर सरकार भ्रष्ट होने के बाद अनुपलब्ध भी हो जाती है । यह राजनीतिक लोग पिछड़ा, वंचित और ग़रीबों का शिकार करके खुद को शक्तिमान और अमीर कर लेते है और केवल नीरव मोदी या माल्या या उनके स्वयं के पसंद लोगों की किस्मत को बढ़ावा मिलता है- जिसका ना तो विरोध करने की कोई हिम्मत करता है, न ही उससे लड़ा जाता है। शासन की इन बुराइयों को प्रतिबंधित करना असंभव है, क्योंकि विरोध की शक्तियों को अनैतिक दिक्कतों का करना पड़ता है । सिस्टम में उन लोगों के लिए सबसे कठिन चुनौती है क्योंकि उनमें नैतिक साहस की कमी रहती है। ड्रामा का अध्याय दो शुरू होता है। जातिवाद और सांप्रदायिकता को शासन की स्पष्ट असफलताओं से सार्वजनिक ध्यान हटाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसलिए गरीबों, वंचित और पिछड़े पर अत्याचार के नए आयाम स्थापित किए जाते हैं। भीड़ हिंसा वर्तमान के मौसम की विशेषता है। न्याय जनता के लिए एक दूरदराज का सपना बनी हुई है। समानता भी एक दूर का सपना जैसे लगता है। आधिकारिक सर्वेक्षण बताते हैं कि देश में असमानता कैसे चल रही है, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां स्थिति भयावह हो गई है। जाति आधारित राजनीतिक संरचनाओं के साथ-साथ, प्रमुख दलों ने जातिवाद को अपने निहित हितों की सेवा के लिए जीवित रखने का सहारा लिया है और इसके लिए सामाजिक समानता का उनका नारा बेहद जरूरी है। मीडिया दलित के साथ भोजन, दलित घर में रात बिताते हुए हेडलाइंस बनाते रहते है चाहे बीजेपी जैसे बड़े दल इसे कर रहे हों या कोंग्रेस । इसके बाद राजनीति के लिए पड़ोसी देशों का भी उपयोग वोट बढ़ाने में किया जाना सामान्य आचरण हो चुका है ।

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