चुनाव सुधार के लिए तीन प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं। जिसमें विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान शुरू हो गया है। दूसरा — एक देश एक चुनाव और तीसरा — जातीय जनगणना के बाद लोकसभा-विधानसभा का परिसीमन शामिल है। चुनाव सुधार के लिए ये तीनों आवश्यक हैं, लेकिन इसे लेकर सियासी दलों में समर्थन और विरोध चल रहा है।
राजेन्द्र द्विवेदी
संसद में चुनाव सुधारों को लेकर गर्मागर्म चर्चा हुई। सभी दलों ने अपने-अपने हिसाब से सुझाव दिए। आरोप-प्रत्यारोप भी लगाए। लेकिन चुनाव सुधार के सबसे महत्वपूर्ण बिंदु पर किसी दल ने चर्चा नहीं की और न ही उसे किसी ने चर्चा में लाने की हिम्मत दिखाई। राजनीतिक दल सुधार के लिए महत्वपूर्ण बिंदु पर अमल भी नहीं कर पाएंगे, इसलिए चुनाव सुधार के लिए नए नियम-कानून, संविधान संशोधन हो जाएंगे, लेकिन चुनाव सुधार संभव नहीं है क्योंकि राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति ही नहीं है कि वे अपराधियों को प्रत्याशी न बनाएं। दूसरा — रेवड़ी संस्कृति पर रोक लगाएं और तीसरा — आदर्श चुनाव आचार संहिता का पालन करें। पार्टी में जाति-धर्म से हटकर अच्छे प्रत्याशियों का चयन करें। जब तक राजनीतिक दल इन बिंदुओं पर पहल नहीं करेंगे, संसद में चुनाव सुधार पर चर्चा — SIR, वन नेशन वन इलेक्शन, जातीय जनगणना, परिसीमन — सभी बेमानी साबित होंगे। फिलहाल सदन में चुनाव सुधार पर चर्चा हुई और राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी लाभ-हानि के नजरिये से बढ़-चढ़कर बहस में शामिल हुए।
वास्तविक स्थिति यह है कि आजादी के 75 वर्षों में चुनावी भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है। करोड़ों रुपये चुनाव में खर्च होते हैं। जिसके लिए राजनीतिक दलों को उद्योगपतियों से चंदा लेना पड़ता है और सत्ता में रहकर करोड़ों कमाना मजबूरी बन गई है क्योंकि बिना पैसे का चुनाव लड़ना आसान नहीं रह गया है। ग्राम पंचायत के छोटे से छोटे चुनाव में लाखों खर्च होते हैं, लेकिन विधानसभा और लोकसभा में यह आकड़ा करोड़ों तक पहुँच जाता है। चुनाव में बढ़ते खर्चों के कारण भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि उसे तोड़ पाना फिलहाल संभव दिखाई नहीं दे रहा है। चुनाव सुधार से कुछ आशा की किरणें दिखती हैं, लेकिन वह तभी संभव है जब चुनाव सुधार की प्रक्रिया निष्पक्ष और सियासी दांव-पेंच से हटकर लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती के लिए सभी मिलकर एकमत से बनाये।
चुनाव सुधार के लिए तीन प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं। जिसमें विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान शुरू हो गया है। दूसरा — एक देश एक चुनाव और तीसरा — जातीय जनगणना के बाद लोकसभा-विधानसभा का परिसीमन शामिल है। चुनाव सुधार के लिए ये तीनों आवश्यक हैं, लेकिन इसे लेकर सियासी दलों में समर्थन और विरोध चल रहा है। अगर निष्पक्षता पूर्वक हम देखें तो चुनाव सुधार की प्रक्रिया में एनडीए और इंडिया दोनों गठबंधन से जुड़े सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से समर्थन और विरोध कर रहे हैं। लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में सही सुधार के लिए कोई राजनीतिक दल तैयार नहीं है। सभी चुनाव जीत-हार के समीकरण के आधार पर समर्थन और विरोध कर रहे हैं।
अगर हम वर्तमान में चल रहे विशेष मतदाता पुनरीक्षण अभियान को देखें तो वह भी पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है और भारत निर्वाचन आयोग की कार्यशैली भी विवादित दिखाई दे रही है। चुनाव सुधार के लिए सबसे अहम और महत्वपूर्ण—सही मतदाता और सही मतदाता सूची है। संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि कोई भी पात्र मतदाता मतदान से वंचित न रह जाए। इसके लिए निर्वाचन आयोग को लोकसभा और विधानसभा तथा राज्य निर्वाचन आयोग को पंचायत और शहरी निकाय की जिम्मेदारी दी गई है। निष्पक्ष मतदाता सूची के लिए विशेष मतदाता पुनरीक्षण अभियान (SIR) बहुत जरूरी है।
लेकिन SIR करने में आयोग को राज्यों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिये। जब एक देश एक चुनाव और जातीय जनगणना के बाद परिसीमन की प्रक्रिया आने वाले दिनों में होने जा रही है, ऐसे में राज्यों में चुनाव के थोड़े दिन पहले SIR कराना उचित नहीं कहा जा सकता। क्योंकि 2003 के बाद जो SIR का आधार बनाया गया है, उसके बाद देश में 2004, 2009, 2014, 2019 और 2024—पांच लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में 5 से 6 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। पुरानी मतदाता सूची से 2024 के लोकसभा चुनाव हाल में ही संपन्न हुए हैं। बिहार में चुनाव के 3 महीने पहले SIR कराने की क्या जल्दी थी? पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश सहित 12 राज्यों में SIR प्रक्रिया चल रही है — इसे भी कराने की जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए क्योंकि जातीय जनगणना के बाद परिसीमन और परिसीमन के बाद मतदाता सूची में व्यापक बदलाव आएगा।
जिस तरह से निर्वाचन आयोग ने मतदाता सूची को लेकर SIR की प्रक्रिया शुरू की, वह निश्चित रूप से उचित नहीं कहा जा सकता और विपक्ष का आरोप काफी हद तक सही है कि SIR भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। क्योंकि विपक्ष द्वारा उठाए गए बहुत सारे सवालों का तथ्यात्मक जवाब आयोग नहीं दे रहा है। जिस तरह से आयोग का अड़ियल रुख है और सियासी दलों के बीच घमासान मचा है—ऐसे में SIR प्रक्रिया के द्वारा निष्पक्ष मतदाता सूची बनना संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए एक वर्ष का समय चाहिए और पारदर्शिता के साथ राजनीतिक दल एवं आयोग, जनता का सहयोग लेकर मतदाता सूची बनाई जानी चाहिए। आयोग के निर्देशों के कारण जिला अधिकारियों पर कम समय में SIR को पूरा करने का दबाव पड़ा, उससे 10 से अधिक BLO ने आत्महत्या की—यह भी दुखद और चिंता का विषय है।
चुनाव सुधार का दूसरा अहम और महत्वपूर्ण बिंदु — एक देश एक चुनाव, जिसकी प्रक्रिया जारी है। भारत सरकार ने इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति भी बनाई थी जिसने मार्च 2024 में अपनी रिपोर्ट भी दी। रिपोर्ट में लोकसभा-विधानसभा के चुनाव एक साथ और एक माह के अंतराल में पंचायतों और शहरी निकायों का चुनाव कराने का प्रस्ताव है। लेकिन इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चारों चुनाव — लोकसभा, विधानसभा, शहरी निकाय एवं पंचायत एक साथ होने चाहिए। इसके लिए मतदान कई चरणों में आवश्यकतानुसार कराया जा सकता है।
वन नेशन वन इलेक्शन से जहाँ अरबों रुपये चुनाव में बचेंगे, वहीं रेवड़ी संस्कृति और जातीय एवं धार्मिक ध्रुवीकरण पर भी अंकुश लगेगा। क्योंकि जब सभी चुनाव एक साथ होंगे तो पार्टियों के अलग-अलग चुनाव में विभिन्न जातियों एवं धर्मों के प्रत्याशी होंगे। जिसके कारण यदि राजनीतिक दल किसी एक जाति के प्रत्याशी (चाहे वह लोकसभा या विधानसभा का हो) का ध्रुवीकरण करने का प्रयास करेगा तो अन्य पदों पर अलग जाति से लड़ रहे प्रत्याशी को नुकसान भी हो सकता है।
इसे लेकर भी पक्ष और विपक्ष के बीच सियासी संघर्ष छिड़ा हुआ है। क्योंकि भाजपा जहाँ वन नेशन वन इलेक्शन के पक्ष में है, वहीं विपक्ष इस बात को लेकर विरोध कर रहा है कि भारत निर्वाचन आयोग जिस तरह से चुनाव करा रहा है, उससे वन नेशन वन इलेक्शन होने पर भाजपा को लाभ मिल जाएगा। क्योंकि ईवीएम और मतदाता सूची पर निर्वाचन आयोग के पक्षपातपूर्ण रवैये से गैर-भाजपा दलों को नुकसान होगा। इसलिए विपक्ष चाहता है कि चुनाव EVM के बजाय मतपत्र से चुनाव कराए जाएं।
तीसरा अहम बिंदु, जिसे लेकर राहुल गांधी सहित गैर-भाजपा दलों के नेता आवाज उठा रहे हैं — वह है जातीय जनगणना। केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना कराने का भी निर्णय किया है और वह 2026 से 2027 के बीच पूरा किया जाएगा। जातीय गणना और जनगणना पूरी होने के बाद परिसीमन किया जाएगा। परिसीमन को लेकर भी विवाद है। क्योंकि दक्षिण भारत के राज्यों में आबादी घटी है और सीटों का निर्धारण आबादी के अनुसार किया जाता रहा है, इसलिए नए परिसीमन में दक्षिण भारत के राज्यों में सीटों की संख्या कम होगी जबकि हिंदी भाषी राज्यों में आबादी बढ़ने के कारण सीटें बढ़ेंगी। जनगणना के पहले ही दक्षिण के राज्यों में नाराजगी और विरोध तेज हो गया है। सत्तारूढ़ भाजपा किस तरह और कैसे परिसीमन का मानक तय करती है, इसका भी चुनाव सुधार से सीधा संबंध रहेगा। चुनाव सुधार के तीनों महत्वपूर्ण बिंदुओं पर निष्पक्षता पूर्वक राजनीतिक दल और निर्वाचन आयोग एक साथ मिलकर लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए ईमानदारी से कार्य करें तो चुनाव में सुधार की सम्भावना बढ़ जाएगी अन्यथा जिस तरह से सियासी दांव-पेंच चल रहा है ऐसे में संसद में चर्चा करने से चुनाव सुधार संभव नहीं है ।





