यह सोचने की बात है कि विदेशों में शिक्षा लेने के लिए अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा का पड़ने वाला बोझ भी लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन फिर भी इस समस्या को लेकर सत्ता पर कुंडली मार कर बैठे हुए लोगों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती । प्रश्न यह है कि कब तक हमारा देश दूसरों से पढ़ाई और रोज़गार के लिए वीसा की भीख माँगता रहेगा ? क्यों नहीं सतहत्तर वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को इतना दुरुस्त कर पाए कि कुछ विशेष विषयों / विशिष्ट क्षेत्रों को छोड़ कर हमारे छात्रों को बाहर जाकर पढ़ने की जरूरत ही ना पड़े?
वी यस पाण्डेय
वर्षों से विभिन्न देशों द्वारा दिए जाने वाले वीसा को लेकर देश में चर्चा चलती रहती है । यूरोप और अमेरिका के वीसा को लेकर मारा मारी एक आम बात है । हाल ही में नये अमरीकी राष्ट्रपति के शपथ लेने के बाद से तो यह शोर बहुत बढ़ गया है और लाखों हिंदुस्तानियों, जो वर्तमान में अमरीका में काम कर रहे हैं, उनके ऊपर संकट के बादल मंडराने लगे हैं । यह एक वास्तविकता है कि वर्षों से देश के तंत्र के द्वारा जब कभी भी अमेरिका या यूरोप के देशों के साथ बात चीत होती है तो देश के निवासियों के लिए ज़्यादा वीसा दिए जाने का मुद्दा हमेशा उठाया जाता रहा है । यह सही है कि हमारा देश अब जनसंख्या के हिसाब से विश्व भर में नंबर एक पर है लेकिन रोज़गार की दृष्टि से देश की स्थिति अच्छी नहीं है । इसी तरह कई दशकों से लाखों की संख्या में हमारे छात्र विदेश में पढ़ने के लिए लाइन में खड़े मिलते हैं । पूछने पर यही उत्तर मिलता है किक्या करें देश में शिक्षा और विशेषकर उच्च शिक्षा संस्थानों का स्तर अच्छा नहीं है और ना तो शिक्षा का माहौल ही ठीक है ।
इन बातों में सच्चाई है या नहीं यह निर्णय तो साल दर साल देश से बाहर शिक्षा की चाह रखने वालों की संख्या में होने वाले इज़ाफ़े को देख कर आराम से लिया जा सकता है । यह सोचने की बात है कि विदेशों में शिक्षा लेने के लिए अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा का पड़ने वाला बोझ भी लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन फिर भी इस समस्या को लेकर सत्ता पर कुंडली मार कर बैठे हुए लोगों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती । प्रश्न यह है कि कब तक हमारा देश दूसरों से पढ़ाई और रोज़गार के लिए वीसा की भीख माँगता रहेगा ? क्यों नहीं सतहत्तर वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को इतना दुरुस्त कर पाए कि कुछ विशेष विषयों / विशिष्ट क्षेत्रों को छोड़ कर हमारे छात्रों को बाहर जाकर पढ़ने की जरूरत ही ना पड़े?
इससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि कई दशकों से अमीर भारतीयों द्वारा अपने देश की नागरिकता छोड़ने का चलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि कोई तो ऐसी स्थितियां ज़रूर रही होंगी जिसके चलते उनको अपनी जड़ों से अलग होकर एक बिल्कुल नया सामाजिक और सांस्कृतिक पारिस्थितिकी तंत्र अपनाने का विकल्प चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा है। पिछले साल संसद में विदेश मंत्री द्वारा साझा किए गए आँकड़ों के अनुसार, 2011 से अब तक 16 लाख से ज़्यादा अमीर भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ी है। पिछले साल उनकी संख्या सिर्फ़ 85,256 से बढ़कर 2,25,620 हो गई। मंत्री ने यह भी खुलासा किया कि भारतीयों ने 135 देशों की नागरिकता ले ली है, जो दर्शाता है कि उनमें से ज़्यादातर किसी भी कीमत पर भारत छोड़कर दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में बसना चाहते हैं।कई भारतीयों के देश छोड़ने का प्राथमिक कारण देश की दयनीय नागरिक बुनियादी ढांचा, कई शहरों में कानून और व्यवस्था का टूटना, दम घोंटने वाला प्रदूषण और जटिल कर ढांचा बताया ।इस स्थिति को गंभीरता से लेकर सुधारात्मक कदम उठाने की जगह हमारे शासक अपने वोट बैंक की रक्षा के लिए प्रतिस्पर्धात्मक कोलाहल में लिप्त हैं, जिसका खामियाजा आम, कानून का पालन करने वाले नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गाये जाने वाला प्रसिद्ध गीत ” सारे जहाँ से अच्छा , हिंदोस्तां हमारा ” एक प्रकार से अतीत का सपना सा बन गया है जो वास्तविकता से इतर हो ।आज एक विकसित और सुरक्षित भारत के लिए अपनी प्रतिभा और धन दोनों को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती सा बन गया है जिसपर सत्ताधारियों का ध्यान जा ही नहीं रहा ,ऐसा लगता है ।
देश के नीति निर्धारक कब यह समझेंगे कि केवल नारों से देश नहीं बनता , वह बनता है कड़ी मेहनत से , ईमानदार व्यवस्था से जहाँ सबको न्याय मिलने मिलने की गुजाइश हो । हमारे देश में काम करने वालों की कोई कमी नहीं है । देश की प्रतिभा का आज विश्वभर में डंका बज रहा और बड़ी संख्या में भारतीय आज विदेशी भूमि पर सफलता के झंडे गाड़ चुके हैं ।हाल ही में प्रकाशित प्रसिद्ध संस्था ऑक्सफ़ॉर्म की रिपोर्ट में यह पुनः दोहराया गया कि भारत देश अंग्रेजों के आने से पहले तक विश्व की एक चौथाई पूजीं ( जीडीपी) रखता था , यानी देश की अर्थव्यवस्था सदैव से अग्रणी रही और उसमें वह दम ख़म है कि वह एक समृद्ध राष्ट्र बने । लेकिन अगर सतहत्तर साल के स्वशासन के बाद भी अगर हम ग़रीब देशों की श्रेणी में खड़े हैं तो इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ देश की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को ही ज़िम्मेदार ढहराया जा सकता है जिनके पास देश को चलाने की सारी शक्तियाँ संविधान ने दे रखीं थी लेकिन फिर भी इन सब दशकों से सत्ता पर काबिज लोगों ने सिर्फ़ अपने स्वार्थ में और सत्ता के मोह के चलते ऐसे हालात पैदा किए कि वर्षों बाद भी देश की हालत ऐसी बनी हुई है कि लाखों लोग हर साल देश से बाहर जाकर पढ़ने और रोज़ी रोटी कमाने के लिए आज भी मजबूर हैं । स्पष्ट है कि आम लोगों के जीवन को सुखद और समृद्ध बनाने के लिए यह सब बदलना होगा ।समय आ गया है कि हम सब वीसा का रोना छोड़ कर देश की व्यवस्था को सुधारने में जुटें
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)