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(Update 12 minutes ago)

देश के विकास को गति देने के लिए न्यायिक सुधार तत्काल आवश्यक

पूर्व आईएएस अधिकारी वी एस पाण्डेय का मानना है कि अगर हम विश्व के अन्य विकसित देशों की विकास के पथ पर की गई यात्रा पर दृष्टिपात करें तो हम पाएँगे कि इन सभी राष्ट्रों ने सबसे पहले न्याय व्यवस्था , क़ानून व्यवस्था , शिक्षा , स्वास्थ्य को पुख़्ता करने का काम किया लेकिन इनमें से भी सबसे पहले न्याय व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त किए बिना यह देश शायद ही अपना वांछित लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो पाते , यह स्पष्ट है ।

पिछले सप्ताह ही एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने निचले न्यायालयों में मामलों के निस्तारण में वर्षों का समय लगने पर गम्भीर चिंता व्यक्त की और कहा कि जहां मामले के निस्तारण होने में सालों लग जाते हैं वहीं निर्णयों को लागू कराने के लिए दाखिल किए गए एक्सेक्यूशन प्रार्थना पत्रों में भी सालों का समय लग रहा और आठ लाख से ज़्यादा इस तरह के प्रार्थना पत्र वर्षों से लोअर कोर्ट्स में लम्बित हैं , जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है ।सर्वोच्च न्यायालय ने पहले की ही तरह इस स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह स्थिति अत्यंत गम्भीर है जो स्पष्ट करता है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था की स्थिति शोचनीय है और तत्काल आवश्यक सुधरात्मक कदम उठाये जाने बहुत ज़रूरी हैं। इससे पहले देश की संसद भी कई बार देश की न्यायिक व्यवस्था की लचर हालत पर चिंता व्यक्त करती रही है और स्थिति को सुधारने की माँग उठाती रही है लेकिन दुर्भाग्य से स्थिति में बदलाव लाने के लिए कोई भी ठोस कदम कभी भी सरकारों ने उठाया हो , ऐसा नहीं लगता ।
हमारे देश ने वर्ष २०४७ यानी स्वतंत्रताप्राप्ति के सौ वर्ष के अंदर पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य रखा है । यह लक्ष्य निश्चित रूप से प्राप्त किया जा सकता है और इसको प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं आनी चाहिए ऐसा मैं अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ । लेकिन पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने के लिए कई ज़रूरी कदम शीघ्रातिशीघ्र उठने होंगे क्योंकि वर्ष २०४७ अब ज़्यादा दूर नहीं है । अगर हम विश्व के अन्य विकसित देशों की विकास के पथ पर की गई यात्रा पर दृष्टिपात करें तो हम पाएँगे कि इन सभी राष्ट्रों ने सबसे पहले न्याय व्यवस्था , क़ानून व्यवस्था , शिक्षा , स्वास्थ्य को पुख़्ता करने का काम किया लेकिन इनमें से भी सबसे पहले न्याय व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त किए बिना यह देश शायद ही अपना वांछित लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो पाते , यह स्पष्ट है ।
स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्र की आर्थिक प्रगति का मूल आधार ही संविदा यानी कॉंट्रैक्ट क़ानूनों का शीघ्र और प्रभावी ढंग से अनुपालन होता है क्योंकि सभी आर्थिक गतिविधियों का प्रारम्भ और अंत संविदा से ही होता है और जब आम जन को लगता है कि देश की न्याय व्यवस्था सभी संविदाओं के न्यायपूर्ण ढंग से अनुपालन कराने में सक्षम है तो लोग निवेश करने और उद्योग धंधों , व्यापार आदि गतिविधियों को प्रारम्भ करने के लिए निःसंकोच आगे आते है । इसी तरह सुदृढ़ न्याय व्यवस्था के बिना क़ानून व्यवस्था को कभी भी मजबूत नहीं किया जा सकता , यह भी स्पष्ट है । न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता और उसका ईमानदार और प्रभावी होना भी इस बात को सुनिश्चहित करता है कि आम लोगों और ख़ास कर कारोबार से जुड़े लोग बिना किसी कठिनाई के अपने अपने धंधे में निश्चिंत हो कर कार्य कर सकते हैं। सामान्यतः इसी स्थिति को “ईज ओफ़ डूइंग बिज़्नेस” का नाम दिया जाता है और इन परिस्थितियों को स्थापित किए बिना कोई भी देश आज तक विकसित नहीं हो पाया , इतिहास इसका गवाह है ।
जब हम इस दृष्टि से अपने देश की स्थितियों का परीक्षण करते है तो हमें एक अत्यंत निराशाजनक स्थिति परिलक्षित होती है क्योंकि आज भी हमारा देश ईज ओफ़ डूइंग बिज़्नेस यानी व्यापार करने की अनुकूल स्थितियों के मामले में विश्वभर में बहुत ही निचली पायदान पर खड़ा हमको मिलता है । इन्ही स्थितियों के चलते आज हमारा देश विदेशी निवेश के मामले में छोटे छोटे देशों की तुलना में भी काफ़ी पीछे खड़ा मिलता है । सबसे दुःखद स्थिति तो यह है कि हर साल हज़ारों की संख्या में करोड़पति भारतीय नागरिक देश छोड़ कर विदेश में बसने के लिए जा रहे हैं , ऐसी खबर पिछले कई वर्षों से देश के प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रही है । यह सोचने की बात है कि जब खुद हमारे करोड़पति देश छोड़ रहे तो कोई विदेशी क्यों यहाँ निवेश करने को सोंचेगा । यह प्रश्न निश्चित रूप से देश की सरकारों के लिए एक गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए और स्थिति को सुधारने के लिए आज तत्परता से कदम उठाया जाना आज की महती आवश्यकता है । लेकिन दुःख की बात तो यह है कि ऐसा होता हुआ बिल्कुल भी नहीं दिख रहा ।
आख़िर न्याय व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त करने में क्या कठिनाई है इस पर कोई भी गम्भीर चर्चा देश में आज भी नहीं हो रही है , यह साफ़ है । इस विषय पर पूर्व में भी जब भी विश्लेषण किया गया तो सबसे पहले न्यायालयों की कमी का ही रोना रोया जाता रहा है । इस में कोई विवाद नहीं कि देश में प्रति दस हज़ार की जनसंख्या पर केवल दो न्यायिक अधिकारी नियुक्त हैं जबकि विकसित देशों में यह संख्या ६-१० प्रति दस हज़ार जनसंख्या के बीच में है , जिसमें सुधार लाया जाना अति आवश्यक है और बिना किसी विलम्ब के देश में न्यायालयों की संख्या में कम से कम तीन गुनी की बढ़ोतरी की जानी चाहिए और इसके लिए आवश्यक अवस्थापन सुविधाओं को स्थापित किया जाना चाहिए ।
इसी के साथ यह भी तो देखा जाना चाहिए की आज स्थापित न्यायालय भी मानकों के अनुसार कार्य कर रहे या नहीं और भारतीय न्यायालयों में “ तारीख़ पर तारीख़ “ दिए जाने का जो चलन चल पड़ा है उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है ।अपने सेवा काल के दौरान न्यायालयों की कार्यप्रणाली में पीठासीन अधिकारी के रूप में भाग लेने एवं उनके पर्यवेक्षण करने के दौरान मैंने पाया कि वर्तमान स्थितियों में भी न्यायालयों की कार्यप्रणाली में कुछ कदम उठा कर बहुत बड़ा सुधार लाया जा सकता । सबसे पहले पूर्णतः झूठे तथ्यों पर आधारित मुक़दमे दाखिल करने पर गम्भीर दंड जैसे कम से कम पाँच साल की सजा का प्रावधान किया जाना इस सुधार की प्रक्रिया की शुरुआत हो क्योंकि आज हमारी अदालतें नीचे से ऊपर तक , फ़र्ज़ी मुक़दमों के बोझ तले दबी हैं और यह भार रोज़ बढ़ता जा रहा है । कारण यह है कि झूट बोलने और ग़लत शपथ पत्र देने के लिए कभी भी कोई दण्डित नहीं होता इसलिए झूँठे मुक़दमे दाखिल करके दूसरे पक्ष को वर्षों तक परेशान करने की प्रथा ने हमारी न्याय व्यवस्था को एक प्रकार से पंगु कर रखा है ।विश्व के सभी विकसित देशों में ग़लत बयानी करना एक गम्भीर अपराध है लेकिन हमारे देश में तो लगता है कि जैसे झूँठ बोलना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हो ।
इसी के साथ पक्षों को नोटिस जारी करने की वर्तमान प्रक्रिया में बदलाव लाकर एक साथ नोटिस, रेजिस्टर्ड डाक , मेसिज , वत्सप्प, मोबाइल फ़ोन पर सूचना और अख़बारों में नोटिस मुद्रण की प्रक्रिया निर्धारित की जाए ताकि नोटिस के स्तर पर होने वाले विलम्ब को समाप्त करके शून्य किया जा सके ।इसके अतिरिक्त यह भी सुनिश्चहित किया जाना होगा कि न्यायाधीशों को केवल न्यायिक कार्य करने के अलावा न्यायालयों के प्रबंधन आदि से पूर्णतः मुक्त किया जाए और न्यायालयों के प्रबंधन के लिए एक पूर्णतः प्रशिक्षित मैनज्मेंट काडर हो जो मुक़दमों के पंजीकरण , तिथि निर्धारण , सामान्य व्यवस्थाओं को सुनिश्चहित करने का काम करे जैसा कि युरोप देशों में व्यवस्था है ।

हमारे देश में अन्य देशों की भाँति ही वर्तमान में लागू क़ानूनी व्यवस्था के तहत मुक़दमे की पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही निर्णय दिया जा सकता है , उससे इतर नहीं, इस लिए पक्षों पर बाध्यता हो कि वह मामले से सम्बंधित सभी साक्ष्य मामले में वाद पत्र दायर करने के साथ ही न्यायालय में दाखिल करें और इसी प्रकार प्रतिवादी भी अपने उत्तर के साथ सभी साक्ष्य आदि एक साथ दाखिल करे और इसके लिए कोई भी अतिरिक्त समय ना दिया जाए । अधिकांशतः अतिरिक्त साक्ष्य देने के अवसर के नाम पर तारीख़ पर तारीख़ लगती रहती है । इसी प्रकार न्यायालयों में बहस करने के नाम पर मामलों को वर्षों तक खींचा जाता है जिसको समाप्त करने के लिए प्रत्येक मामले में मौखिक बहस के लिए एक तिथि और एक सीमित समय निर्धारित किए जाने की व्यवस्था की जानी होगी जैसा कि सभी विकसित देशों में है जहां मुक़दमे में दूसरी तारीख़ यानी अजर्न्मेंट की व्यवस्था लगभग शून्य है । इसके अतिरिक्त पक्षों की लिखित बहस एक सप्ताह में देने का अवसर प्रधान करते हुए मामले को आदेश के लिए सुरक्षित किए जाने की व्यवस्था करने से हमारे देश में “ तारीख़ पर तारीख़ “ की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति समाप्त हो जाएगी । ऐसा करने में कोई भी बाधा या कठिनाई नहीं है , प्रश्न सिर्फ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति प्रदर्शित करने का है । इसके अतिरिक्त न्यायालयों को यह सख़्त हिदायत होनी चाहिए कि मामले के निर्णय सैंकड़ों पृष्ठों में लिखने की आदत छोड़ कर संक्षिप्त में कुछ पन्नो में तर्कपूर्ण ढंग से लिख कर दें । यही नियम उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के लिए भी लागू किया जाना होगा जहां बड़े बड़े वकील दिनो दिन बहस करके न्यायालय का काफ़ी समय लेते रहते है जबकि वह अपने सारे तर्क लिखित रूप से भी सम्यक् रूप से देकर न्यायिक व्यवस्था की मदद आसानी से कर सकते हैं । लेकिन तब बड़े बड़े वकीलों की शायद लाखों , करोड़ों की हर सुनवाई पर फ़ीस का क्या होगा ? हमारी सारी न्याय व्यवस्था इसी कुव्यवस्था के चंगुल में वर्षों से फँसी पड़ी है और कोई कुछ भी करने के बजाय सिर्फ़ सुस्त न्यायिक व्यवस्था का रोना रोता रहता है ।यह सभी बदलाव तत्परता से किए जा सकते हैं जो न्यायिक व्यवस्था को तेज और प्रभावी बना कर सुखद बदलाव का सकते हैं ।उपरोक्त कुछ ऐसे कदम हैं जो बिना समय गवाए आसानी से लागू किए जा सकते है ।
हमारे देश की पूर्व और आज की सभी सरकारों ने चाहे वह केंद्र की हो या राज्यों की , ने कभी भी न्याय व्यवस्था को ठीक करने के लिए कुछ भी ठोस कदम नहीं उठाया लेकिन अब समय आ गया है कि देश हित में कम से कम न्यायिक व्यवस्था में बदलाव लाकर देश को विकसित राष्ट्र बनाने के सपने की ओर एक मजबूत कदम उठाया जाए और वर्षों से “तारीख़ पर तारीख़ “ के नाम से बदनाम देश की न्याय व्यवस्था के साथ “न्याय” हो सके ।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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