पर्यावरण प्रतिपूर्ति

पर्यावरणीय समस्या एक गंभीर समस्या है जिसके संदर्भ में ऐसे जलसे एक मज़ाक़ है,समस्या का हल नहीं है।कहने का तात्पर्य यह है कि जिस कार्यक्रम की सफलता के लिए,बरसों तक कड़ी मेहनत,सुव्यवस्थित तरीक़े से,करनी अनिवार्य है वहाँ केवल रस्म-अदायगी जलसे की तस्वीर अख़बारों में छपवा कर समझा जाता है कि मंज़िल मिल ही गई।
प्रो. एच सी पांडे

“दरख़्त काट के,जब थक गया लकड़हारा,
तो एक दरख़्त के,साये में जाके बैठ गया।”

दशकों पूर्व पर्यावरण मंत्रालय के अध्यक्ष के संगमरमर से सुसज्जित कक्ष में वुड पैनेलिंग करने का आदेश दिया गया।ज़रूरत बिलकुल नहीं थी,कक्ष वैसे ही चक-धक था।मंत्रालय या तो इस तथ्य से अनिभिज्ञ था कि वुड पैनेलिंग के लिये वृक्ष काटने पड़ते हैं,या समझता था कि कटी लकड़ी दफ़्तर में लगी देख कर अध्यक्ष महोदय को याद रहेगा कि उनके मंत्रालय का विशेष ध्येय है वृक्षों को कटने से बचाना।चाहे जो भी हो वुड पैनेलिंग से दफ़्तर का पर्यावरण तो शानदार हो गया चाहे देश के पर्यावरण को चोट पहुँची हो और कई परिंदों के आशियाने उजड़ गये हों।पर्यावरण संरक्षण की महत्ता पर अनगिनत भाषण,परिसंवाद , गोष्ठियाँ आदि हो चुकी हैं,हो रही है,और,होती रहेंगी,पर,कोई,देशव्यापी,निरंतर चलनेवाला,विस्तारित कार्यक्रम जन्म न ले सका है।शुरुआत में वन-महोत्सव का कार्यक्रम बड़े ज़ोर-शोर से चला पर धीरे-धीरे यह मात्र औपचारिकता रह गया है।ज़ोर कब का ख़त्म हो चुका,शोर भी ग़ायब हो गया है।जैसे समझा जाता है कि गंगा-स्नान के बाद सभी पाप धुल जाते हैं,वैसे ही यह माना जाता है कि,वन महोत्सव में महामहिम द्वारा एक पौधा लगाने से हज़ारों वृक्षों के काटन की क्षतिपूर्ति हो जाती है।इतने गाजे-बाजे के साथ रोपित पौधे की रक्षा हेतु,एक वृक्ष काट कर लकड़ी का जंगला(ट्री-गार्ड),भी बना कर लगाया जाता है ताकि अगले वन महोत्सव तक यदि पौधा न भी रहे तो जंगला तो रहेगा ही।
पर्यावरणीय समस्या एक गंभीर समस्या है जिसके संदर्भ में ऐसे जलसे एक मज़ाक़ है,समस्या का हल नहीं है।कहने का तात्पर्य यह है कि जिस कार्यक्रम की सफलता के लिए,बरसों तक कड़ी मेहनत,सुव्यवस्थित तरीक़े से,करनी अनिवार्य है वहाँ केवल रस्म-अदायगी जलसे की तस्वीर अख़बारों में छपवा कर समझा जाता है कि मंज़िल मिल ही गई।बढ़ती जनसंख्या के साथ,उस से भी अधिक गति से बढ़ती हुई भौतिक सुख-सुविधा की लालसा का प्राकृतिक संसाधनों पर दोहरा प्रहार,पर्यावरण की अवनति का मूलभूत कारण है।जनसंख्या नियंत्रण,तथा अनावश्यक साज-सामान के संचयन की प्रवृत्ति को घटाना अनिवार्य है।जापान एक ज्वलंत उदाहरण है।पिछले सत्तर वर्षों में इस देश की जनसंख्या ९ करोड़ से १२ करोड़ हुई अर्थात् ३३ प्रतिशत बढ़ोतरी जबकि भारत में इसी दरमियान जनसंख्या ३५ करोड़ से १४० करोड़ हो गई है,अर्थात् ३०० प्रतिशत बढ़ोतरी।यदि जापान का अनुसरण किया होता तो आज भारत की जनसंख्या ५० करोड़ से भी कम होती और स्पष्टतः ऐसे में पर्यावरण ह्रास की समस्या न्यूनतम होती जिसकी प्रतिपूर्ति सरलता से की जा सकती।
आज पर्यावरण की समस्या एक विकराल रूप में विद्यमान है जिसका निराकरण तभी संभव है जब,जन-साधारण को,प्राथमिक स्तर से ही,पर्यावरण शिक्षा द्वारा,पर्यावरण संरक्षण एवं प्रतिपूर्ति की महत्ता एवं अनिवार्यता समझाई जाये ताकि यह उनकी जीवन-शैली का अंग बन सके,और कालांतर,संस्कार के रूप में आत्मसात् हो जाये।विषय संबंधित पाठ्यक्रम बनाना कठिन नहीं है पर उसके अनुसरण करने के लिये विस्तृत व्यवहारिक कार्यक्रम आवश्यक है,जिसे लागू करने के लिये उच्च प्रशासनिक स्तर पर इच्छाशक्ति अनिवार्य है।हमारी आदतें बहुत ख़राब हो चुकी हैं।किसी भी दीर्घकालिक कार्यक्रम के लिये इच्छा-शक्ति की नितांत कमी है,और,कर्म के बिना फल की आशा,एक विश्वास का रूप ले चुकी है।उपयोग करो और फेंक दो (use and throw),की मानसिकता सर्वमान्य होती जा रही है जबकि,उपयोग करो और (अवशेष-क्षमता अनुसार) पुनः उपयोग करो (recycling),की संस्कृति को अपनाना आवश्यक है।शीर्ष आवश्यकता है,आज के निराशावादी,निष्क्रिय जन समूह को हर स्तर पर समझाना है कि पैर ज़रूर फैलाइए पर चादर की देखभाल भी कीजिये और चादर बुनते रहिये ताकि पैर बाहर न निकलें तथा यह भी याद रखें कि सूत असीमित नहीं है इसलिए अनावश्यक फैलाव से बचें।
अगर पेड़ ही नहीं बचेगा तो पसीना सुखाने को छाया कहाँ से मिलेगी।

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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